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असम: जंगल में आदिवासी और दलितों के बच्चों के 68 स्कूलों बंद होंगे

असम में पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने जंगल में 68 स्कूलों को बंद करने की मांग की है. इन स्कूलों में आदिवासी, दलित और ओबीसी बच्चे पढ़ते हैं. इसके अलावा यहां पर वन अधिकार कानून 2006 के तहत आदिवासी और अन्य समुदाय के लोगों को पट्टा नहीं मिलने दिया जा रहा है.

असम के सोनितपुर ज़िले के जंगलों में सर्व शिक्षा अभियान के तहत स्थापित स्कूलों को बंद करने की मांग की जा रही है. इन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों में ज़्यादातर आदिवासी, दलित और ओबीसी समुदायों के हैं. 

यहां के सोनाई-रुपाई (Sonai-Rupai) वन्य जीव अभ्यारण (Wildlife Sanctury) और चारद्वार रिज़र्व फॉरेस्ट (Charduar Reserve Forest) में कुल 68 प्राइमरी स्कूल स्थापित किये गए हैं. 

इन जंगलों में आदिवासी, अनुसूचित जाति और ओबीसी समुदायों के कम से कम तीन लाख लोग रहते हैं. इस सिलसिले में वन विभाग के शीर्ष अधिकारियों ने नेशनल ग्रीन ट्रब्यूनल (National Green  Tribunal) को सूचित करते हुए यह जानकारी दी है. 

एनजीटी (NGT) को एक शपथपत्र में बताया गया है कि नामेरी नेशनल पार्क के इन दो जंगलों में यानि सोनाई-रुपाई और चारद्वार के कुल 73524.86 हेक्टेयर क्षेत्रफ़ल में से 50241 हेक्टेयर ज़मीन पर अवैध कब्ज़ा है.

इस शपथपत्र में यह जानकारी भी दी गई है वन विभाग ने कम से कम 10000 हेक्टयर ज़मीन को अवैध कब्ज़े से मुक्त भी कराया है. 

वन विभाग की तरफ से यह दावा भी किया गया है कि आदिवासी और जंगल में रहने वाले अन्य समुदायों के लिए बनाए गए वन अधिकार क़ानून 2006 के तहत कम से कम 23000 लोगों ने पट्टे के लिए आवेदन किया है. 

वन विभाग की तरफ़ से इन सभी परिवारों को वन अधिकार कानून के तहत ज़मीन का पट्टा देने का विरोध किया है. इस मामले में वन विभाग की तरफ से आपत्ति दर्ज कराई गई है. 

वन विभाग के अनुसार इन परिवारों ने जंगल की ज़मीन पर कब्ज़ा किया है. इसके साथ ही वन विभाग का यह भी कहना है कि ये लोग जंगल की ज़मीन को बर्बाद कर रहे हैं. 

इसी साल 9 फ़रवरी को वन अधिकार क़ानून के तहत पट्टा देने वाली ज़िला कमेटी ने कम से कम 4157 लोगों के आवेदन ख़ारिज कर दिए थे. 

एनजीटी को दिए शपथ पत्र (Affidavit) में वन विभाग ने यह माना है कि अगर रिजर्व फॉरेस्ट और वाइल्डलाइफ़ सेंचुरी में स्थापित स्कूलों को बंद किया जाता है तो वंचित तबकों के कम से कम 3000 बच्चों की शिक्षा प्रभावित होगी. 

हांलाकि इसके साथ ही वन विभाग ने यह भी जोड़ा है कि इन परिवारों को जंगल से बाहर निकालना ही एक विकल्प होगा.

इस मामले के सहारे यह समझा जा सकता है कि 20 साल बाद भी वन अधिकार क़ानून के तहत आदिवासी और जंगल में रहने वाले अन्य समुदायों के लोगों को ज़मीन का अधिकार क्यों नहीं मिला है.

पर्यावरण और वन संरक्षण के लिए काम करने वाले अधिकारिओं और संगठनों को यह ध्यान रखना चाहिए कि जब आदिवासियों को जंगल से बाहर निकाला जाता है तो वह सिर्फ़ बेघर नहीं होता है या उसकी खेती की ज़मीन नहीं जाती है. बल्कि उसके जीविका के अन्य साधन बुरी तरह से प्रभावित होते हैं. 

जब जंगल से परिवारों को विस्थापित किया जाता है तो उन्हें घर और कुछ पैसा दिया जाता है. लेकिन जंगल में उनके पास मामूली खेती के साथ हर मौसम के हिसाब से वन उत्पाद (Minor Forest Produce) मिलते हैं. 

यानि जंगल से मिलने वाले फल-फूल उनको ज़रूरी आमदनी तो देते ही हैं, इसके साथ उनकी खाद्य सुरक्षा (Food Security) भी होती है. 

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