HomeAdivasi Daily20 साल पहले वादा किए गए पुल के इंतजार में हैं आदिवासी

20 साल पहले वादा किए गए पुल के इंतजार में हैं आदिवासी

राज्य के आदिवासी विकास विभाग का दावा है कि उन्होंने हाल ही में सावरयादिगर पुल के लिए 45 करोड़ रुपये मंजूर किए हैं.

महाराष्ट्र के सतपुड़ा रेंज में उदय नदी के बीच में तीन खंभे 20 साल पुराने अधूरे वादे का सबूत हैं. विशाल नर्मदा से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह नदी घने जंगल और आदिवासी इलाकों से होकर बहती है.

नंदुरबार के धडगांव तालुका के पश्चिमी छोर पर, इसके किनारों पर सावर्यादिगर, उदया, भादल, भामने और सादरी सहित 20 से अधिक भील गांव पिछले दो दशकों से एक पुल जैसी बुनियादी चीज के इंतजार में फंसे हुए हैं.

शहादा तालुका के मुख्य शहर से लगभग 100 किलोमीटर दूर प्रस्तावित सावर्यादिगर पुल (Savaryadigar bridge) को एक बार जीवन रेखा के रूप में देखा गया था जो 13,000 से अधिक निवासियों को स्कूलों, अस्पतालों, बाजारों और सुरक्षा से जोड़ेगा. लेकिन फिर भी दो दशकों से फाइलें धूल खा रही हैं और वादे नजरअंदाज किए जा रहे हैं.

पिछले फरवरी में सावरियादिगर की भारती पवारा ने नदी के किनारे बच्चे को जन्म दिया, जहां न तो कोई अस्पताल था और न ही कोई डॉक्टर, बस एक साड़ी से बंधा हुआ स्ट्रेचर और ढलती हुई रोशनी थी.

बिलगांव में निकटतम प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (PHC) में कर्मचारियों की कमी और नदी को पार करना बहुत खतरनाक होने के कारण, ग्रामीणों के पास कोई विकल्प नहीं था. यहां आपातकालीन स्थितियों का सामना एंबुलेंस नहीं “बाम्बुलेंस” से किया जाता है यानि साड़ियों में लिपटे बांस के स्ट्रेचर का…

गांव के निवासी रामदास पवारा ने कहा, “हर साल हम प्रसव, साँप के काटने और बुखार के कारण लोगों को खो देते हैं.”

एक स्थानीय अधिकारी पोड्या पवारा ने कहा कि मैंने बचपन में यह संघर्ष देखा है. अब हमारे बच्चे भी इसे जी रहे हैं.”

सावरियादिगर का अक्सर दौरा करने वाले एक स्वयंसेवी डॉक्टर ने कहना है कि इन गाँवों से अस्पताल पहुँचने में कम से कम तीन घंटे लगते हैं. मेरे साथ रास्ते में दुर्घटनाएं भी हुई हैं. यहां कोई सड़क नहीं है और नदी सब कुछ काट देती है.

वहीं अधिकारी भी बिलगांव PHC में सेवा की कमी को स्वीकार करते हैं. हमारे पास एक बड़ी इमारत है, लेकिन पानी नहीं है. टैंक की पाइपलाइन महीनों से टूटी हुई है. हमारे पास नदी पार मरीजों तक पहुँचने के लिए विश्वसनीय परिवहन नहीं है.”

जिला स्वास्थ्य अधिकारी डॉ. रवींद्र सोनावणे ने कहा, “मानसून के दौरान कट जाने वाले 72 गाँवों की मैपिंग की गई है. 60 गांवों के लिए पुलों का काम चल रहा है और बाकी का आकलन किया जा रहा है.”

सरदार सरोवर बाँध के बैकवाटर से घिरे सावरियादिगर, 2000 के दशक की शुरुआत में विस्थापित हुए 33 गाँवों में से एक था. जबकि कुछ को स्थानांतरित कर दिया गया था. सावरियादिगर जैसे अन्य लोगों को इसके बदले सड़क और पुल का वादा किया गया था.

यह आह्वान 2005 में जल और भूमि प्रबंधन संस्थान के तत्कालीन महानिदेशक सतीश भिंगारे के नेतृत्व में एक सरकारी पैनल द्वारा किया गया था. अब उन्हें इस फैसले पर पछतावा है.

उन्होंने कहा, “हमें लगा कि पुल बनने में एक साल लगेगा. लेकिन 20 साल हो गए हैं.”

2012 में स्वीकृत, कुछ साल बाद काम शुरू हुआ और फिर बंद हो गया. ग्रामीण खोखले वादों से थक चुके हैं.

सरपंच राद्या पवारा ने कहा, “वे 45 करोड़ रुपये के फंड की बात करते हैं लेकिन कोई विधायक या सांसद दौरा तक नहीं करता.”

मानसून के दौरान स्थिति और खराब हो जाती है. जून आते ही उदय नदी उफान पर आ जाती है और गांवों का संपर्क टूट जाता है. नाव सेवा जोखिम भरी हो जाती है और गर्भवती महिलाओं को लाने-ले जाने वाली आशा कार्यकर्ताओं को सबसे बुरा डर सताता है.

बिलगांव के एक कार्यकर्ता ने कहा कि मुझे मरीजों को खोने के बुरे सपने आते हैं.

हालांकि, राज्य के आदिवासी विकास विभाग का दावा है कि उन्होंने हाल ही में सावरयादिगर पुल के लिए 45 करोड़ रुपये मंजूर किए हैं.

आदिवासी विकास विभाग के एक अधिकारी ने कहा, “एक बार यह बन जाए तो अधिकारी, डॉक्टर और शिक्षक पहुंच सकेंगे. विकास अपने आप होगा.”

जिला कलेक्टर मिताली सेठी का कहना है कि काम का ठेका दे दिया गया है और दो साल में पूरा हो जाना चाहिए.

लेकिन पीडब्ल्यूडी के एक अधिकारी का कहना है कि अभी तक फंड जारी नहीं हुआ है. अधिकारी ने कहा कि अभी तक ठेकेदार अपनी जेब से खर्च कर रहे हैं.

लेकिन अप्रैल की गर्मी ने निर्माण को धीमा कर दिया है और मानसून के साथ-साथ देरी से मिलने वाले फंड का मतलब है कि आदिवासियों को अभी सुरक्षित रास्ते के लिए लंबा इंतजार करना होगा.

(Image credit: Times of India)

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