HomeAdivasi Dailyगमुनाम आदिवासी नायक और नायिकाओं की तलाश में सरकार, किताब प्रकाशित होगी

गमुनाम आदिवासी नायक और नायिकाओं की तलाश में सरकार, किताब प्रकाशित होगी

सरकार ने तय किया है कि आज़ादी की लड़ाई में शामिल आदिवासी समुदाय के नायक और नायिकाओं के योगदान पर एक किताब प्रकाशित की जाएगी. इसके अलावा संसद के नए भवन में इन आदिवासी नायकों में से कुछ की तस्वीर गैलरी में लगाई जा सकती है.

भारत की आजादी के 75 साल पूरे होने पर स्वतंत्रता संग्राम के आदिवासी नायकों और नायिकाओं को याद किया जाएगा.  इस मामले की जानकारी रखने वाले अधिकारियों ने बताया कि केंद्र सरकार उन 75 आदिवासी महिलाओं और पुरुषों में थलक्कल चंथु, तिरोत सिंह, सेला और नूरा जैसे योद्धाओं को याद करेगी.

एक अधिकारी के अनुसार “विचार उन आदिवासियों की कहानियों को उजागर करना है जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया और अन्य अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी. ये गुमनाम नायक हैं जिनकी कहानियों को बताने की जरूरत है.”

इस बारे में अभी तक मिली जानकारी के अनुसार कुछ बहादुरों आदिवासी नायक और नायिकाओं की तस्वीरें नए संसद भवन की गैलरी में भी लगाई की जा सकती हैं. हालांकि अभी इस पर फैसला लिया जाना बाकी है, लेकिन योद्धाओं की याद में एक किताब ज़रूर रिलीज होने वाली है.

आदिवासी योद्धाओं की सूची में अरुणाचल प्रदेश की मोनपा जनजाति से सेना और नूरा शामिल हैं. दोनों बहनें प्रसिद्ध राइफलमैन जसवंत सिंह के साथ थीं, जिन्होंने 1972 के भारत-चीन युद्ध में दुश्मन के 300 सैनिकों को गोली से उड़ा दिया था.

झारखंड में छोटानागपुर के शोधकर्ता वासवी किड़ो द्वारा प्रकाशित एक पुस्तिका, उलगुलान की औरतें (क्रांति की महिलाएं) के अनुसार सिंगी दाई और कैली दाई रोहतासगढ़ प्रतिरोध के दौरान स्वतंत्रता और आदिवासी पहचान के लिए शहीद हुए थीं. यह बताया गया है कि इन दोनों आदिवासी नायिकाओं को भी उस सूचि में शामिल किया गया है.

सूची में शामिल होने वाला एक और नाम थलक्कल चंतु का है, जो केरल के वायनाड में अंग्रेजों से लड़ने वाले पजहस्सी राजा के कुरिच्य सैनिकों के प्रमुख थे.

अन्य आदिवासी दिग्गजों में टांट्या भील शामिल हैं. टांट्या भील को अंग्रेज़ डैकत और हत्यारा बताते थे. लेकिन आम आदिवासी के लिए टांट्या भील किसी रॉबिन हुड से कम नहीं थे. 

मध्य प्रदेश के इस भील नायक ने 1878 और 1889 के बीच अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी. टांट्या भील अंग्रेज़ अधिकारियों के लिए दहशत का नाम था. 

19वीं सदी की शुरुआत में तिरोत सिंह सिएम मेघालय के खासी मुखिया थे. सिमलीह वंश के इस ट्राइबल नेता खासी पहाड़ियों पर अंग्रेजों के क़ब्ज़े के ख़िलाफ़ युद्ध किया था. यह युद्ध चाल साल तक चलता रहा था. 

ट्राइबल लोगों ने चार साल तक गुरिल्ला युद्ध किया और अपनी ज़मीन को बचाने की कोशिश की. अंततः जनवरी 1833 में तिरोट सिंग को अंग्रेजों ने पकड़ लिया और ढाका भेज दिया गया. 

बिरसा मुंडा को भारत के आदिवासियों के बड़े वर्ग में भगवान कह कर पुकारा जाता है. उन्होंने अपने लोगों को ब्रिटिश शासन से मुक्त करने के लिए 1899 के मुंडा विद्रोह का नेतृत्व किया. 

बिरसा ने जीवन भर अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष किया. उन्हें 3 फरवरी, 1900 को चक्रधरपुर के जंगल में एक भीषण मुठभेड़ के बाद गिरफ्तार किया गया और कैद में ही उनकी मृत्यु हो गई.

ओडिशा में भूमिया जनजाति के  लक्ष्मण नाइक एक और क्रांतिकारी थे. वे 1942 के कोरापुट विद्रोह का हिस्सा थे. आदिवासी लोग उन्हें मलकानगिरी का गांधी कहते थे. इस क्षेत्र के बोंडा जनजातियों ने लक्ष्मण नाइक के नेतृत्व में मटिली पुलिस स्टेशन पर क़ब्ज़ा कर लिया गया था. 

पुलिस ने गोलियां चलाईं, जिसमें लगभग सात लोग मारे गए और कई घायल हो गए. 29 मार्च 1943 को भोर के समय लक्ष्मण नाइक की हत्या कर दी गई. 

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