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आदिवासी को राष्ट्रपति बनाया जा सकता है तो अध्यक्ष पद से हटाया भी जा सकता है

चुनाव में घोषणा पत्र, नेता और प्रतीकों के अलावा एक और महत्वपूर्ण काम बारीकी से ज़मीनी रणनीति तैयार करना. किसी राजनीतिक दल का कार्यक्रम और उम्मीदवार कितना भी भला या मजबूत क्यों ना हो, अगर सामाजिक समीकरण उसके पक्ष में नहीं हैं तो जीत के प्रति आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता है. छत्तीसगढ़ में लगातार चुनावी असफलताओं पर पार्टी के अंदर मंथन का दौर चल रहा था. इस मंथन का परिणाम यह निकला की पार्टी अध्यक्ष पद से एक आदिवासी नेता विष्णुदेव साय को पद से हटा दिया गया. 

द्रोपदी मूर्मु को राष्ट्रपति पद के लिए चुन कर बीजेपी ने देश में आदिवासी समुदाय को महत्व दिया है. उसके इस कदम ने कई विपक्षी दलों को भी बचाव की मुद्रा में धकेल दिया था. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जैसी आक्रमक नेता को इस मुद्दे पर अपनी ही उम्मीदवार से दूरी बनाते देखा गया.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व की सरकार और बीजेपी के इस कदम को फिर से मास्टर स्ट्रोक बताया गया. उनके इस कदम की महज एक प्रतीकात्कम कदम भी बताया गया. लेकिन बीजेपी के विरोधी भी यह मान गए कि यह वास्तव में एक अच्छा कदम है. इससे बीजेपी को वोट और विचारधारा दोनों ही फ़ायदा हो सकता है. 

लोकतंत्र में चुनाव किसी दल या व्यक्ति को सत्ता तक पहुंचाते हैं और चुनावों के लिए कार्यक्रमों, नीतियों, व्यक्तितत्व की तरह ही प्रतीकों का इस्तेमाल भी महत्वपूर्ण माना जाता है. आज के दौर में बीजेपी को इस काम में माहिर माना जाता है. कुछ और दलों ने यह काम कामयाबी से किया है लेकिन उनका साइज़ अभी इतना बड़ा नहीं है कि बीजेपी को चुनौती दे सकें. 

चुनाव में घोषणा पत्र, नेता और प्रतीकों के अलावा एक और महत्वपूर्ण काम बारीकी से ज़मीनी रणनीति तैयार करना. किसी राजनीतिक दल का कार्यक्रम और उम्मीदवार कितना भी भला या मजबूत क्यों ना हो, अगर सामाजिक समीकरण उसके पक्ष में नहीं हैं तो जीत के प्रति आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता है. 

आज के दौर में बीजेपी ने इस मामले में भी देश की सभी राजनीतिक दलों को पीछे छोड़ दिया है. उसने यह साबित किया है कि देश के किसी भी राज्य के सबसे बड़े तबके के सामने भी एक जातियों का गठबंधन तैयार किया जा सकता है. कई राज्यों में बीजेपी यह प्रयोग सफलता पूर्वक कर चुकी है.

उत्तर प्रदेश में ग़ैर यादव और ग़ैर जाटव जातियों को जुटाने और हरियाणा में ग़ैर जाट जातियों को जमा कर बीजेपी ने सत्ता हासिल की है.

बीजेपी इसी तर्ज पर उन राज्यों में भी काम करती है जहां चुनाव की दृष्टि से आदिवासी काफ़ी महत्वपूर्ण है. मसलन हेमंत सोरेन की सरकार से पहले बीजेपी की सरकार झारखंड में थी. उस सरकार में अपने आदिवासी नेताओं को नज़रअंदाज़ करके बीजेपी ने रघुबर दास को मुख्यमंत्री बनाया था.

उसी तरह से छत्तीसगढ़ में भी बीजेपी की सरकार का नेतृत्व रमन सिंह करते रहे थे. झारखंड में कुल आबादी का एक चौथाई (लगभग 27 प्रतिशत) से ज़्यादा आबादी आदिवासी है. 

देश के कई राज्यों में चुनाव का माहौल बन चुका है. छत्तीसगढ़ भी उन्ही राज्यों में से एक है. बीजेपी में चुनाव के लिए (chhattisgarh bjp president news) बदलाव की शुरुआत हो गई है यह माना जा रहा था कि बीजेपी इस बार प्रदेश अध्यक्ष के रूप में आदिवासी चेहरा उतारेगी .

लेकिन पार्टी ने साहू समाज से  बीजेपी के अरुण साव को राज्य इकाई का अध्यक्ष बनाया है. राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने बिलासपुर के सांसद अरुण साव को छत्तीसगढ़ का बीजेपी का प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त करने की घोषणा की है.

अरुण साव जो कि साहू समाज से आते हैं, जिन्हें पहली बार बीजेपी ने 2019 के चुनाव में लोकसभा में टिकट दिया था. साव बिलासपुर लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़े थे. 

गौरतलब है कि 2018 के विधानसभा चुनाव में पार्टी की करारी हार हुई थी. इसके बाद हुए कई उपचुनावों में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा है. साथ ही नगर निकाय चुनावों में भी बीजेपी को जीत नहीं मिली. 

लगातार असफलताओं को लेकर पार्टी के अंदर मंथन का दौर चल रहा था. इस मंथन का परिणाम यह निकला की पार्टी अध्यक्ष पद से एक आदिवासी नेता विष्णुदेव साय को पद से हटा दिया गया. 

उन्हें बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाया जाने पर कांग्रेस ने निशाना साधा है. छत्तीसगढ़ कांग्रेस के संचार विभाग प्रमुख सुशील आनंद शुक्ला ने कहा कि बीजेपी ने विष्णुदेव साय को हटाना पार्टी का अपना निर्णय है. 

लेकिन विश्व आदिवासी दिवस के दिन आदिवासी नेता विष्णुदेव साय को हटाना भाजपा की आदिवासी विरोधी सोच को दर्शाता है. कम से कम आदिवासी दिवस के दिन विष्णुदेव साय को नहीं हटना चाहिए था.

बीजेपी के इस फैसले के पीछे का कारण भूपेश बघेल के मुकाबले एक नेता खड़ा करने की मंशा बताई जा रही है. यानि यह स्पष्ट है कि लोकतंत्र में सभी समुदायों और वर्गों को कम से कम उचित प्रतिनिधित्व मिल सके, इस नियम का पालन भी तभी किया जाता है जब उसके राजनीतिक फ़ायदे होते हैं.

इसलिए राष्ट्रपति पद पर एक आदिवासी महिला को चुनने का फ़ैसला बेशक बड़ा है. लेकिन किसी आदिवासी को राष्ट्रपति बनाने और पार्टी अध्यक्ष, मुख्यमंत्री या फिर प्रधानमंत्री बनाना….ना…ना..ना..ना

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