देश में 18 राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेश अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में रहने वाले 75 विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (PVTG) की जनसंख्या के बारे में सरकार के पास कोई आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं.
यह जवाब भारत सरकार के आदिवासी मंत्रालय ने 9 फ़रवरी 2022 को संसद में दिया है. आदिवासी मामलों के मंत्रालय का कहना है कि हर दस साल में होने वाली जनगणना में अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या के आँकड़े जमा किये जाते हैं.
लेकिन विशेष रूप से कमज़ोर आदिवासी समूहों की अलग से जनगणना नहीं होती है. सरकार ने यह भी कहा है कि 1951 की जनगणना के बाद किसी भी दशक में यह आँकड़े नहीं जुटाए गए हैं.
दरअसल पीवीटीजी यानि जो आदिवासी समुदाय विशेष रूप से पिछड़े समुदायों की पहचाने गए हैं उनकी आबादी में गिरावट से जुड़ा एक सवाल संसद में पूछा गया था. राज्य सभा में सांसद महेश पोद्दार ने यह सवाल आदिवासी मामलों के मंत्रालय से किया था.
उन्होंने जानना चाहा था कि पिछले 3 सालों में विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों की जनसंख्या का क्या रुझान है. उन्होंने सरकार से पीवीटीजी समुदायों की जनसंख्या के ताज़ा आँकड़े भी माँगे थे.
पीवीटीजी यानि विशेष रूप से पिछड़े आदिवासी समुदाय उन्हें कहा जाता है जो अभी भी मुख्यधारा से बहुत दूर हैं. यानि ये आदिवासी अभी भी लगभग पूरी तरह से जंगल के भरोसे ही जीते हैं और खेती किसानी में माहिर नहीं हैं. इसके अलावा शिक्षा और विकास के दूसरे मानकों पर ये समूह पिछड़े हुए हैं.
सरकार ने देश के अलग अलग राज्यों में 75 आदिवासी समूहों की पहचान विशेष रूप से पिछड़े समुदायों के तौर पर इसलिए की थी कि इनके विकास पर ख़ास ध्यान दिया जा सके. सरकार इनके विकास के लिए अलग से योजनाएँ बनाती है.

कई राज्यों में सरकारें इन आदिवासियों के विकास के लिए माइक्रो प्रोजेक्ट चलाती हैं जिनके लिए अलग से पैसे का प्रावधान किया जाता है.
लेकिन यह अजीबोग़रीब बात है कि इन आदिवासियों की सही सही संख्या जाने बिना ही इनके लिए विशेष योजनाएँ बनती हैं. संसद में पूछा गया यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि कई पीवीटीजी समुदायों में जनसंख्या में या तो ठहराव है या फिर गिरावट है.
सरकार ने इनकी जनसंख्या में गिरावट या ठहराव को रोकने के लिए कई उपाय करने के दावे किए हैं.
इस सवाल के जवाब में जो आँकड़े दिए गए हैं उनसे पता चलता है कि राज्य सरकारें भी इन विशेष रूप से कमज़ोर कहे जाने वाले आदिवासी समूहों को लेकर बहुत मुस्तैद नहीं हैं. तमिलनाडु और केरल को छोड़ दें तो शायद ही किसी राज्य के पास अपने पीवीटीजी समुदायों की जनसंख्या के सही आँकड़े मौजूद हैं.
पीवीटीजी समुदायों में कई ऐसे समुदाय हैं जिनके बारे में कहा जा रहा है कि वो विलुप्त होने के कगार पर खड़े हैं. मसलन अंडमान के ग्रेट अंडमानी समुदाय का वजूद तो लगभग मिट ही चुका है.
इसके अलावा ओंग समुदाय के बारे में भी लगातार चिंता प्रकट की जाती रही है. इसके अलावा भी की और राज्यों में ऐसे आदिवासी समुदाय हैं जिनके बारे में ऐसी आशंका प्रकट की जाती रही है.
2014 में प्रोफ़ेसर खाखा कमेटी ने आदिवासियों की सामाजिक आर्थिक स्थिति पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की थी. इस रिपोर्ट में भी सिफ़ारिश की गई थी की पीवीटीजी समुदायों की अलग से जनगणना ज़रूर की जानी चाहिए.