आदिवासी बहुल इलाकों में स्थानीय समाज को मजबूती देने के लिए 1996 में पेसा (PESA) यानी पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) क़ानून आने लाया गया था. लेकिन मध्य प्रदेश को इस क़ानून को लागू करने में क़रीब 26 साल लग गए.
वैसे कहा जाता है देर आए, दुरुस्त आए. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पिछले कुछ महीनों में आदिवासी समाज के लिए एक के बाद एक कई घोषणाएँ की हैं. इनमें पेसा को राज्य में लागू करने की घोषणा भी शामिल है.
आदिवासियों के लिए की गई घोषणाओं के प्रचार पर राज्य सरकार ने काफ़ी ज़ोर दिया है. लेकिन वैसा ज़ोर इन योजनाओं को लागू करने में नज़र नहीं आ रहा है. ख़बरों के अनुसार शराबबंदी को लेकर गरमाई राजनीति के बावजूद प्रदेश के अफसर शराब को बढ़ावा देने के रास्ते निकालने में व्यस्त हैं.
सरकार प्रदेश के 12350 आदिवासी गांवों में पेसा कानून लागू किया है. पिछले साल नवंबर में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अफसरों से इस एक्ट के लिए कुछ नए नियम बनाने को कहा था. यह भी कहा था कि इस कानून में ग्राम सभा को ताकतवर बनाने के नियम बनाएं.
इस सिलसिले में यह बताया जा रहा है कि गांवों में शराब दुकानें खोलने या बंद करने का फैसला लेने का अधिकार भी ग्राम सभा को देने के प्रावधान करने को कहा गया था.
लेकिन पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग ने जो ड्राफ्ट तैयार किया, उसमें गांव में शराब दुकान बंद करने का फैसला लेने वाली ताकत ग्राम सभा को न देकर कलेक्टर को दे दी गई है. ग्राम सभा को सिर्फ सिफारिश करने का हक दे दिया गया है.
सूत्रों के हवाले से बताया जा रहा है कि हाल ही में जब अफसरों ने मुख्यमंत्री को नए नियमों का प्रेजेंटेशन दिया तो सीएम ने उन्हें जमकर फटकार लगाई. साथ ही कहा- तत्काल नए नियम बनाकर ग्राम सभा को मजबूत करें.
बताया जा रहा है कि मुख्यमंत्री चाहते हैं कि इस कानून का असर दिखना चाहिए. अब नौकरशाह नए सिरे से इस अधिनियम को लागू करने से जुड़े नए नियम बना रहे हैं. मध्य प्रदेश में इस क़ानून से जुड़े जो नियमों का ड्राफ़्ट तैयार किया गया था उससे इस क़ानून का मक़सद ही पीट जाता है.
नए नियमों के तहत ग्राम सभा को ताक़त देने की बजाए सारे फ़ैसले कलेक्टर को दे दिये गए थे. लेकिन अब 15 अगस्त के बाद ही विधानसभा के मानसून सत्र के बाद ही यह क़ानून लागू हो सकेगा.
ख़बरों के अनुसार मुख्यमंत्री अफ़सरों से नाराज़ हैं कि उन्होंने नियमों को ढंग से नहीं बनाया है. लेकिन नियमों को बनाने में पहले ही 4 महीने का समय निकल चुका है और कम से कम 6 महीने का समय और लग सकता है. यानि मुख्यमंत्री की घोषणा के बाद भी अभी इस क़ानून के नियमों पर बहस ही चल रही है.
आदिवासी इलाक़ों के लिहाज़ से दो क़ानून बेहद अहम माने जाते हैं. वन अधिकार क़ानून (Forest Rights Act) और पेसा (PESA).
ये दोनों ही क़ानून आदिवासियों के साथ हुई ऐतिहासिक भूल को सुधारने और इस समाज को सशक्त बनाने की दिशा में बड़ा कदम था. लेकिन देखा गया है कि कई राज्य सरकारों ने इन क़ानूनों को लागू करने में कोताही की है.
कई राज्यों ने अलग अलग बहानेबाज़ी करके इन क़ानूनों को लागू करने में देरी की है. मध्य प्रदेश का प्रदर्शन इन दोनों ही क़ानूनों को लागू करने में बहुत अच्छा नहीं रहा है.
मध्य प्रदेश में सरकार की घोषणाओं और ज़मीन पर उन्हें लागू करने के प्रयास में काफ़ी अंतर नज़र आता है. मज़े की बात ये है कि पेसा क़ानून को लागू करने में देरी के लिए ज़िम्मेदार अफ़सरों की जवाबदेही तय करने की बजाए, मुख्यमंत्री इसमें भी अपनी इमेज को मज़बूत करने की कोशिश कर रहे हैं.
मीडिया को बताया जाता है कि मुख्यमंत्री अपने अफ़सरों से नाराज़ हैं . लेकिन इस नारज़गी का क्या मतलब निकलता है, किसकी जवाबदेही तय होती है ?
मज़े की बात ये है कि केंद्र सरकार ने 1994 में एक कमेटी बनायी थी. इस कमेटी के अध्यक्ष मध्य प्रदेश से सांसद दिलीप सिंह भूरिया थे. इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट 1995 में सौंपी जिसमें आदिवासी समाज के साथ किये गए शोषण की चर्चा की गई थी.
इस कमेटी के अनुशंसा के अनुसार केंद्र सरकार ने पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों के लिए विस्तार) (पेसा) अधिनियम, 1996 कानून बनाया. इस कानून के साथ से अनुसूची पांच के क्षेत्र में आने वाले ग्राम सभा को काफी सशक्त किया गया.
लेकिन अफ़सोस पेसा को लागू करने में मध्य प्रदेश ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है. अभी भी कोई ख़ास इच्छाशक्ति की बजाए, पैंतरेबाज़ी ज़्यादा लगा रही है.