HomeAdivasi Dailyविस्थापन का डर मंडला में आदिवासियों को सोने नहीं दे रहा

विस्थापन का डर मंडला में आदिवासियों को सोने नहीं दे रहा

आदिवासियों से किसी प्रकार के जमीन हस्तांतरण का नियंत्रण करना राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में आता है. जल, जंगल और जमीन आदिवासियों की आजीविका का मुख्य साधन है. इसके खत्म होने से पलायन और भूखमरी जैसी स्थिति पैदा होती है.

आदिवासियों का पलायन और विस्थापन (displacement) सदियों से होता रहा है और ये आज भी जारी है. आदिवासियों के विस्थापन (Tribal Displacement) की कई वजहें रही हैं. लेकिन बड़ी बांध परियोजनाएँ और खनन (Dams and Mining) आदिवासी विस्थापन की दो बड़ी वजह कही जा सकती हैं.

जब आदिवासी विस्थापन का शिकार होता है तो सिर्फ़  जंगलों, संसाधनों या गांवों से ही बेदखल नहीं होता है. उसकी जीवनशैली, भाषा और संस्कृति सब प्रभावित होता है.

इसी तरह का विस्थापन नर्मदा घाटी (Narmada Valley) में देखा गया है. नर्मदा पर मध्य प्रदेश के हिस्से में 29 बांध बनाया जाना प्रस्तावित है, जिसमें से 10 का निर्माण हो चुका है और 6 का निर्माण कार्य प्रगति पर है. बाकी 14 में से एक माइक्रो सिंचाई परियोजना में बदल दिया गया है. 

13 प्रस्तावित बांधों में से 7 बांधों को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 3 मार्च, 2016 को निरस्त करने की बात कही थी. 

निरस्त बांधों में मंडला जिले का बसनिया बांध का भी नाम आया था. लेकिन पूंजी और आदिवासियों के बीच की लड़ाई में फिर से इस बांध के निर्माण का प्रस्ताव आया है. बसनिया बांध विरोधी समिति के सदस्य राज्यपाल से मिलकर उन्हें पांचवीं अनुसूची में प्राप्त विधायिकी शक्ति के इस्तेमाल के लिए आग्रह कर रहे हैं. 

लेकिन आज तक राज्यपाल ने अपनी शक्ति का इस्तेमाल आदिवासियों के मामले में किया हो ऐसा कोई उदाहरण संभवतः सामने नहीं आया है.

मंडला जिले में 30 साल पहले बरगी बांध के विस्थापितों का अब तक पुनर्वास नहीं हो पाया है तो बसनिया के आदिवासियों का क्या होगा बस यही चिंता उन्हें खाए जा रही है. इस चिंता ने उन्हें मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक रूप से बुरी तरह से प्रभावित किया है.

यहाँ के चकदेही गांव के लोग बताते हैं कि इसे रोकने के लिए बसनिया बांध विरोधी समिति 5 अक्टूबर को यहां के शाहपुरा के घुघुवा फांसिल्स पार्क में राज्यपाल से मुलाकात की. हमारे साथ दो विधायक डॉ अशोक मर्सकोले और शाहपुरा विधायक भूपेंद्र मरावी थे. 

जिन्होंने राज्यपाल को प्रस्तावित बसनिया, राघवपुर बाध को निरस्त करने की मांग के साथ एक ज्ञापन सौंपा. 

ज्ञापन के माध्यम से राज्यपाल को याद दिलाया गया कि संविधान के अनुच्छेद 244 में यह व्यवस्था है कि अनुसूचित क्षेत्रों में राज्यों की कार्यपालन शक्ति को पांचवी अनुसूची के प्रावधान (धारा 2) में शिथिल किया गया है. जिसका मतलब है अनुसूचित क्षेत्रों की प्रशासनिक व्यवस्था में राज्यपाल को सर्वोच्च शक्ति और अधिकार दिया गया है.

पांचवी अनुसूची की धारा 5(1) राज्यपाल को विधायिका की शक्ति प्रदान करता है. 

प्रावधान किया गया है कि आदिवासियों से किसी प्रकार के जमीन हस्तांतरण का नियंत्रण करना राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में आता है. जल, जंगल और जमीन आदिवासियों की आजीविका का मुख्य साधन है. इसके खत्म होने से पलायन और भूखमरी जैसी स्थिति पैदा होती है. 

लोग यह भी कहते हैं कि देश में पेसा कानून साल 1996 से लागू है. पिछले 17 सालों में प्रदेश के अंदर ग्राम सभाओं की अवहेलना करके आदिवासियों और ग्रामीण व्यवस्था को सरकारों द्वारा जानबूझकर नुकसान पहुंचाया जा रहा है और आदिवासियों के अधिकारों का हनन हा रहा है.

पांचवी अनुसूची के जो लोग अपने फैसले करने के लिए संवैधानिक रूप से अधिकारी थे उनके अधिकारों को रोका गया है.

नर्मदा नदी पर प्रस्तावित बसानिया और राघवपुर बांध से डिंडोरी के 61 और मंडला के 18 आदिवासी बाहुल्य गांव विस्थापित और प्रभावित होंगे. इससे 10942 हेक्टेयर जमीन डूब में आएगा जिसमें 3694 परिवारों कि 5079 हेक्टेयर निजी भूमि, 2118 वन भूमि तथा 3745 हेक्टेयर शासकीय भूमि शामिल है.

इस प्राकृतिक संसाधनों के खत्म होने से आदिवासी समुदाय की आजीविका पर प्रतिकूल असर पड़ेगा. इन गांवों के आदिवासी लगातार विस्थापन के भय में जी रहे हैं.

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