HomeAdivasi Dailyछूआछात के सताए, रोज़गार और पहचान को तरसते कातकरी आदिवासी

छूआछात के सताए, रोज़गार और पहचान को तरसते कातकरी आदिवासी

पीएम जनजाति आदिवासी न्याय महा अभियान (पीएम जनमन) के तहत 22 लाख से ज़्यादा पीवीटीजी परिवारों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को बेहतर बनाने का लक्ष्य लिया गया है. देश में कम से कम 75 जनजातियों को विशेष रूप से पिछड़ी यानि पीवीटीजी समुदाय की सूचि में रखा गया है. मैं भी भारत की इस ख़ास सीरिज़ में हम देश के पीवीटीजी समुदायों और उनकी सामाजिक आर्थिक चुनौतियों को पहचानने की कोशिश कर रहे हैं. आज बात कातकरी समुदाय की होगी. यह महाराष्ट्र के तीन पीवीटीजी समुदायों में से सबसे पिछड़ी जनजाति है. कत्था इकट्ठा करना इनका पांरपरिक व्यवसाय है. लेकिन कत्था की कटाई पर रोक लगने के बाद यह आदिवासी रोज़गार की तलाश में भटकते रहते हैं.

महाराष्ट्र (Tribes of Maharashtra) के कोलम, मदिया-गोंड और कटकारी या कातकरी (Katkari Tribe) जनजातियों को केंद्र सरकार द्वारा विशेष रूप से कमज़ोर जनजाति (पीवीटीजी) श्रेणी में रखा गया है.

इन तीन पीवीटीजी (PVTG) समुदायों में से कातकरी को सबसे पिछड़ी जनजाति माना जाता है.

विशेष रूप से कमज़ोर जनजाति यानी पीवीटीजी में उन समुदायों को रखा जाता है, जो आज भी खेती में पारंपरिक तकनीक का इस्तेमाल करते हो, जनसंख्या घट रही हो और आर्थिक स्थिति खराब हो.

कातकरी या कटकारी आदिवासी महाराष्ट्र में अधिकतर ठाणे, पालघर, रायगढ़, सिंधुदुर्ग, पुणे और नासिक ज़िलों में रहते हैं.

2011 की जनगणना के अनुसार महाराष्ट्र में इनकी जनसंख्या लगभग 3 लाख हैं. महाराष्ट्र के अलावा यह आदिवासी गुजरात, राजस्थान और कर्नाटक में भी रह रहें हैं.

यह आदिवासी कातकरी, मराठी भाषा बोलते है. कुछ कातकरी समूह हिंदी भाषा भी जानते हैं.

कातकरी आदिवासी एक समय में महाराष्ट्र के पश्चिमी घाट के जंगलों में रहा करते थे. उस समय इन्हें वाघमारे के नाम से जाना जाता था.

वाघमारे का अर्थ है, ऐसे लोग जो शेर का शिकार करते हैं.

यह भी माना जाता है कि ये आदिवासी कत्था का व्यापार करते है, इसलिए इन्हें कातकरी का नाम भी दिया गया है.

कत्था इकट्ठा करना इनका पांरपरिक व्यवसाय है. यह आदिवासी खैरा पेड़ की छाल से कसैला क्तथा या कत्था निकालते हैं.

लेकिन आज़ादी के बाद कत्थे के व्यापार में काफी गिरावट आई है. इसकी वज़ह कत्था पेड़ की कटाई पर लगाया गया प्रतिबंध हैं.

कत्था की कटाई पर प्रतिबंध लगने के बाद अब वन अधिकारी इन आदिवासियों को खेती भी नहीं करने देते.

इसलिए यह आदिवासी रोज़गार की तलाश में अपनी बस्तियों को छोड़कर शहरों को ओर चले गए हैं.

यह आदिवासी अब मई से अक्टूबर के महीने में मराठियों के खेतों में काम करते हैं. वहीं नवंबर से अप्रैल के महीने में शहरी उद्योग और ईट भट्टों में जाकर दहाड़ी-मज़दूरी का काम करते हैं.  

लेकिन मुख्यधारा समाज में भी कातकरी लोगों को छूआछूत का सामना करना पड़ता है. इनके रहन-सहन, खाने पीने की आदतों के चलते इन्हें अक्सर सामाजिक बहिष्कार झेलना पड़ता है.

कतकारी समुदाय में चूहों को समर्पित एक त्योहार है, जिसे उंदीर नवमी के नाम से जाना जाता है.

मराठी भाषा में उंदीर का अर्थ चूहा है. उंदरी नवमी के अलावा यह आदिवासी होली, दिपावली, मल्हार कोली, गौरी और पितृ अमावस्या जैसे त्योहार मनाते हैं.

कातकरी आदिवासियों की समस्याएं

भूमीहीन

कातकरी समुदाय के 87 प्रतिशत आदिवासी भूमीहीनता से जूझ रहे हैं. यह देश में मौजूद गाँव के औसत 43 प्रतिशत से दुगना है. वन अधिकार 2006 लागू होने के बावजूद भी 13 प्रतिशत आदिवासियों को ही भूमि मिली है.

ग़रीबी और पलायन

इस आदिवासी समुदाय के भूमिहीन होने के कारण रोज़गार का कोई स्थाई साधन इनके पास नहीं है. इसलिए इन आदिवासियों को खेत मज़दूर या भी ईंट भट्ठे पर काम करना होता है. इसके लिए इन्हें लगातार पलायन करना पड़ता है.

अक्सर यह देखा गया है कि इन आदिवासियों को न्यूनतम वेतन भी नहीं मिलता है.

पहचान का संकट

कातकरी आदिवासियों को पीवीटीजी के अलावा डिनोटिफाइड ट्राइब्स में रखा गया है. ऐसी जनजाति जिन्हें ब्रिटिश काल में क्रिमिनल ट्राइब्स का टैग दिया गया था. इस सिलसिले में अंग्रेजों ने 1871 में एक कानून बना कर कई समुदायों को जन्मजात अपराधी घोषित कर दिया था.

लेकिन आज़ादी के बाद इस कानून को खत्म कर दिया गया. लेकिन सच्चाई यही है कि आज भी इन्हें अपराधी की नज़र से देखा जाता है.

यह टैग अभी तक इनके नाम से जुड़ा हुआ है.

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