छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने हाल ही में कहा है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC/ST (Prevention of Atrocities Act) 1989) केवल तभी लगाया जा सकता है जब अपराध सिर्फ़ इसलिए किया गया हो कि पीड़ित व्यक्ति इन समुदायों से आता है.
यानि एक विशेष जाति या समुदाय से होने की वजह से किसी को अपराध का निशाना बनाया गया है.
अदालत ने कहा है कि कोई पीड़ित दलित या आदिवासी समुदाय से है सिर्फ़ यह वजह नहीं हो सकती जिसमें अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण क़ानून का इस्तेमाल किया जाए. अदालत ने कहा है कि यह ज़रूरी नहीं है कि हर दलित या आदिवासी के ख़िलाफ़ होने वाला अपराध उसकी पहचान से जुड़ा ही हो.
कोर्ट ने यह भी कहा कि एससी/एसटी अधिनियम के तहत अपराध करने वाले व्यक्तियों को अग्रिम ज़मानत देने से नहीं रोका जा सकता, जब तक उसके ख़िलाफ़ कोई ऐसा मामला ना बनता हो जो यह साबित करता है कि उसने किसी दलित .या आदिवासी को उसकी सामाजिक पहचान की वजह से सताया है.
क़ानूनन SC/ST (PoA) Act, 1989 की धारा 18 के तहत अपराध करने वाले व्यक्तियों की ज़मानत पर रोक है.
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने अपने फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट के खुमान सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य केस के फ़ैसले का हवाला दिया है. अपने फ़ैसले में जस्टिस मनींद्र मोहन श्रीवास्तव ने कहा, “1989 के अधिनियम की धारा 3 (2) (वी) (ए) के तहत अपराध केवल तभी माना जाएगा जब पीड़ित यह आरोप लगाए कि उसपर हमला इसलिए किया गया कि वो आरक्षित वर्ग से है.
इसके अलावा फ़ैसले में कहा गया है कि अगर पुलिस की जांच में यह पता चले कि अपराध इसलिए हुआ कि पीड़ित पिछड़े या आदिवासी समुदाय से है तो भी इस क़ानून की धाराएँ लगाई जानी चाहिएँ.
कोर्ट ने यह भी कहा कि SC/ST (PoA) Act, 1989 की धारा 3 (2) (V)(ए) सज़ा को बढ़ा सकती है, अगर प्रोसेक्यूशन (Prosecution) यह साबित कर पाए कि पीड़ित पर अत्याचार की वजह सिर्फ़ उसकी पहचान है.