लक्ष्मण नायक, एक आदिवासी लीडर और स्वतंत्रता सेनानी थे. दक्षिण उड़ीसा में आदिवासियों के अधिकारों के लिए काम करने वाले लक्ष्मण नायक का जन्म 22 नवंबर 1899 को मलकानगिरी के तेंटुलिगुमा में हुआ था.
उनके पिता पदलम नायक थे, जो भूइंया जनजाति से थे. देश की आज़ादी की लड़ाई में न जाने कितने देशवासियों ने खुद को बलिवेदी पर चढ़ा दिया.
लक्ष्मण नायक ने अपने और अपने लोगों के लिए ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ मोर्चा खोला. अंग्रेजी सरकार की बढ़ती दमनकारी नीतियाँ जब भारत के आदिवासी इलाक़ों तक तक भी पहुँची तो आदिवासियों ने इन नीतियों का ज़बरदस्त विरोध किया.
आदिवासी उन की संपत्ति पर लगान वसूला जाने से बेहद नाराज़ हो गए. क्योंकि जब सरकार ज़मीन पर टैक्स लगाने लगे तो आदिवासी यह मान लेता है कि उसकी ज़मीन अब उसकी नहीं रही है.
इस माहौल में नायक ने अपने लोगों को एकजुट करने का अभियान शुरू कर दिया. उनके नेतृत्व में आदिवासियों का भरोसा बढ़ता गया.
इसके बाद लक्ष्मण नायक ने अंग्रेज़ों के खिलाफ अपना एक क्रांतिकारी गुट तैयार किया. आम आदिवासियों के लिए वे एक नेता बनकर उभरे. उनके इन कार्यों की वजह से धीरे धीरे पूरे देश में उन्हें जाना जाने लगा.
जब आदिवासी उन्हें अपना नेता मानने लगे तो उस समय स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व कर रही कांग्रेस ने उन्हें पार्टी में शामिल होने का न्यौता दिया.
कांग्रेस की सभाओं और ट्रेनिंग सेशन के दौरान वे गाँधी जी के सम्पर्क में आये. लक्ष्मण नायक वे गाँधी जी से काफी प्रभावित थे. कांग्रेस में शामिल होने के बाद भी वे आदिवासी मुद्दों पर ज़्यादा मुखर थे. लेकिन अब उनके सोचने और काम का दायरा बढ़ गया था.
उनके कांग्रेस में शामिल होने के कारण काफ़ी बड़ी तादाद में आदिवासी भी कांग्रेस के अभियानों में हिस्सा लेने लगा था. वे गाँधी जी का चरखा साथ लेकर आदिवासी गाँवों में एकता व शिक्षा के लिए लोगों को प्रेरित करते थे.
उन्होंने ग्रामीण इलाकों में बदलाव लाने में अहम भूमिका निभाई . उन्हें बहुत से लोग ‘मलकानगिरी का गाँधी’ भी कहने लगे थे.
महात्मा गाँधी के कहने पर उन्होंने 21 अगस्त 1942 को जुलूस का नेतृत्व किया और मलकानगिरी के मथिली पुलिस स्टेशन के सामने शांतिपूर्वक प्रदर्शन किया.
पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर अंधाधुंध गोलीबारी की, जिसमें 5 क्रांतिकारियों की मौत हो गई और 17 से ज्यादा लोग घायल हो गए.
ब्रिटिश सरकार ने उनके बढ़ते प्रभाव को देख, उन्हें हत्या के एक झूठे मामले में फंसा दिया. उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और फाँसी की सजा सुनाई गयी.
29 मार्च 1943 को बेरहमपुर जेल में उन्हें फाँसी दे दी गयी. बताया जाता है कि अपने अंतिम समय में उन्होंने बस इतना ही कहा था, “यदि सूर्य सत्य है, और चंद्रमा भी है, तो यह भी उतना ही सच है कि भारत भी स्वतंत्र होगा।”