ओडिशा में आदिवासियों के सबसे बड़े त्योहार की शुरुआत हो चुकी है. सुलिया जात्रा (Sulia Jatra) आदिवासियों का प्रसिद्ध त्योहार है, जिसकी शुरुआत मंगलवार को बोलांगीर ज़िले (Bolangir District) के खैरगुडा गांव (Khairguda Village) में धूमधाम और हर्षोल्लास के साथ शुरू किया गया.
आदिवासियों ने सुलिया जात्रा के मौके पर पारंपरिक हथियारों के साथ जुलूस निकाला और त्योहार के बाद जानवरों की सामूहिक बलि दी जाएगी.
सुलिया जात्रा में रस्म के अनुसार सुलिया तीर्थ पर जानवरों की सामूहिक बलि दी जाएगी.
इस त्योहार के दौरान कानून-व्यवस्था की स्थिति बनाये रखने के लिए दो प्लाटून पुलिस बल की तैनाती की गई है.
सूत्रों के मुताबिक जुलूस मंगलवार तड़के शुरू हुआ. जुलूस के मंदिर पहुंचने के बाद मुख्य पुजारी ने अनुष्ठान के एक हिस्से के रूप में ऊपर के पत्तों से बनी पोशाक पहनी और भक्तों को ‘अन्न भोग’ दिया और पशु बलि की रस्म शुरू की.
अगल-अगल स्थानों के लोग इस सुलिया जात्रा में शामिल होने के लिए आए और उन लोगों ने बकरी और मुर्गियां जैसे जानवरों को बली के लिए पेश किया.
क्योंकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा सामूहिक बलि प्रथा पर लगी रोक हटाए जाने के कारण आदिवासी समुदाय के लोग सुलिया जात्रा को बड़े खुशी के साथ मना रहे हैं.
सुलिया जात्रा में बड़ी संख्या में भक्तों की भीड़ को देखते हुए पुलिस ने मंदिर में भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पर्याप्त कदम उठाने के साथ ही पुलिस ने त्योहार को शांतिपूर्ण ढंग से मनाने के लिए व्यवस्था की है.
इस त्योहार को लेकर ग्रामीणों का मानना है कि देवी सुलिया के स्थान पर जानवरों और पक्षियों का खून बहाने से अच्छी फसल और समृद्धि आती है.
खैरागुडा और कुमुरिया में सुलिया पिथा के बड़ा खाला और नुआ खाला में क्रमशः मुर्गा, कबूतर, मुर्गी, बकरी, भेड़ और भैंस के बछड़ों जैसे हजारों पक्षियों और जानवरों की बलि दी गई.
क्या है सुलिया यात्रा?
सुलिया जात्रा, पश्चिमी ओडिशा के प्रमुख आदिवासियों का त्योहार है. इस त्योहार को बलांगीर ज़िले के खैरगुडा गांव में धूमधाम और बहुल खुशी के साथ शुरू किया गया है.
सुलिया जात्रा को शुक्ल पक्ष के पहले मंगलवार को और हिंदी महीने के पौष यानी दिसम्बर जनवरी में मनाया जाता है.
सुलिया जात्रा में कध लोग (Kandha people) सुलिया बाबा यानी महादेव और सुला की पूजा के साथ आराध्य देवी की भी पूजा करते है.
कहां मनाते है?
सुलिया जात्रा बोलांगीर ज़िले के 6 गांवों में मनाते है. सुलिया जात्रा में मुख्य त्योहार देवगांव पंचायत समिति के खैरगुड़ा गांव के बड़खला और सांखला यानी कुमुरिया मेंस मनाते है.
इसके अलावा यह आसपास के गांवों जैसे चंद्रपुर, तुसुरा के पास चंटीपदर, बलांगीर शहर के पास खरलिकानी और मिर्धापाली में भी मनाते है.
प्रक्रिया
सुलिया यात्रा को पौष शुक्ल पक्ष के पहले मंगलवार को मनाई जाती है. सुलिया यात्रा का पहला भाग पिछली शाम यानी सोमवार की शाम से शुरू होता है.
इस सुलिया जात्रा अनुष्ठान की शुरुआत ग्राम खैरगुड़ा के महादेव की पूजा से होती है.
इस अवसर पर आदिवासी और गैर-आदिवासी दोनों तरह के सैकड़ों भक्त मंदिर के पास इकट्ठा होते हैं. इस अवसर को चिह्नित करने के लिए एक जुलूस का आयोजन किया जाता है.
इसके अलावा मंगलवार की सुबह, मुख्य आदिवासी पुजारी देहेरी या देहुरी शक्ति को पशु बलि के लिए बने मैदान यानी बड़खला में लाता है.
भोग बनाने की प्रक्रिया
भोग या प्रसाद को बनाने के बाद 3 बांस के डंडों में रखते है. फिर सबसे पहले सुलिया बाबा को शाकाहारी भोग (Vegetarian Bhog) लगाया जाता है.
उसके बाद बरूआ के द्वारा तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं यानी तेतिस कोटि देबता के नाम पर भोग तब प्रस्तुत किया जाता है और जब वे देवताओं के वश में हो जाते हैं.
इसके अवाला ऐसी किंवदंती है कि इन तीस करोड़ देव-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए उन्हें भोग लगाते है.
भोग में दूध और नारियल जैसी शाकाहारी वस्तुओं के अलावा बलि का खून भी सुलिया बाबा और देवता को चढ़ाते है.