खाने से प्यार किसे नहीं होता?
हर संस्कृति, हर समुदाय का अपना एक खास स्वाद होता है , कोई मीठा पसंद करता है, कोई चटपटा, तो कोई खट्टा.
लेकिन जब खाने को ख़ास बनाने के नए नए प्रयोग किये जाने की बात हो, तो भारत की जनजातीय समुदायों का कोई जवाब नहीं.
उनका खाना सिर्फ पेट भरने के लिए नहीं होता, बल्कि उनकी पहचान, परंपरा और प्रकृति से जुड़ा एक अनुभव होता है.
आज हम बात करेंगे बोड़ो जनजाति के खास और लज़ीज़ खट्टे खाने की..
बोडो में अम्लीय और खट्टी सब्जियां
बोड़ो समुदाय के लोगों का खाना उनकी संस्कृति, परंपरा और रोज़मर्रा की जिंदगी का बहुत अहम हिस्सा है.
यह समुदाय प्रकृति से गहरा जुड़ा हुआ है और अपने आस-पास पाए जाने वाले स्थानीय पौधों, जड़ों, पत्तियों और मछलियों का इस्तेमाल करके अपना खाना बनाते हैं.
बोड़ो लोगों का पारंपरिक ज्ञान, खासकर खेती और खाने के तरीके, उन्हें मुश्किल मौसम में भी जीवित रहने में मदद करता है.
मसलन बोड़ो खाने में सबसे खास पौधा है “थासो”, जिसे कोलोकैसिया (Colocasia esculenta) कहते हैं.
यह पौधा बोडो खाने का बड़ा हिस्सा बनाता है, खासकर जुलाई से सितंबर तक के समय में, जब खाने पीने की अन्य चीजें कम मिलती हैं.
इस समय खेती का काम कम होता है, इसलिए लोग आसपास के पौधों और पारंपरिक खाने पर निर्भर रहते हैं.
थासो उनके लिए ऊर्जा और पोषण का मुख्य स्रोत बन जाता है.
थासो के लगभग हर हिस्से का इस्तेमाल किया जाता है. इसकी कोमल पत्तियाँ, हरी पत्तियाँ, सूखी पत्तियाँ, डंठल और जड़, सब कुछ खाना बनाने में इस्तेमाल होता है.
इन्हें चटनी, तली हुई डिश, करी या मसालेदार व्यंजनों में पकाया जाता है.
बोड़ो लोग मानते हैं कि थासो के हर हिस्से का स्वाद और पोषण अलग होता है.
थासो की कुछ खास किस्में भी हैं.
“थासो-बिथोराई” में कोमल मुड़ी हुई पत्तियाँ होती हैं.
इसे पकाकर चटनी या मसालेदार व्यंजन के रूप में खाया जाता है.
इसमें अक्सर सूखी या फर्मेंटेड मछली (नाफाम) भी डाली जाती है, जिससे इसका स्वाद और भी गहरा हो जाता है.
थासो का फूल “थासो-बिभार” कहलाता है.
इसे मैथा (Hibiscus sabdariffa) की पत्तियों और खमीर वाली मछली के साथ पकाया जाता है.

इसका स्वाद खट्टा-तीखा और बहुत लज़ीज़ होता है.
सर्दियों में, यानी दिसंबर से अप्रैल तक, बोड़ो लोग “थासो-बिसोंग” बनाते हैं.
यह पके हुए डंठल से तैयार होता है और इसमें भी सूखी मछली और नाफाम मिलाई जाती है.
बोड़ो खाने में सूखी और फर्मेंटेड मछली बहुत आम है, क्योंकि यह लंबे समय तक सुरक्षित रहती है और सर्दियों में जरूरी पोषण देती है.
कोलोकैसिया के अलावा बोड़ो लोग और भी कई स्थानीय जड़ों और पौधों का इस्तेमाल करते हैं, जैसे “ओलोडोर” (Amorphophallus bulbifera) और “दुदाली” (Xanthosoma violaceum).
इन्हें उबालकर या भूनकर मछली और मसालों के साथ पकाया जाता है.
इसके अलावा “रतालू” (Dioscorea alata) भी बहुत पसंद किया जाता है.
इसे उबालकर चिकन, मछली या स्मोक्ड मछली के साथ करी बनाई जाती है, जो सर्दियों में शरीर को गर्म रखती है और ऊर्जा देती है.
हालांकि आलू बोड़ो का पारंपरिक पौधा नहीं है, लेकिन अब यह उनके खाने का हिस्सा बन गया है.
आलू को उबालकर, तलकर या करी में मिलाकर खाया जाता है.
इसके अलावा था-सुमली (Manihot esculenta) और शकरकंद (sweet potato) भी उनके आहार में शामिल हैं. इन सबको उबालकर नाश्ते में खाया जाता है.
बोड़ो खाने की खास बात यह है कि यह पूरी तरह प्राकृतिक और स्थानीय चीज़ों पर आधारित होता है.
वे पौधे के लगभग हर हिस्से का इस्तेमाल करते हैं — पत्ते, तना, जड़, फूल.
इन सामग्रियों को सूखा कर, फर्मेंट करके या धुएँ में सुखाकर लंबे समय तक इस्तेमाल किया जाता है.
नाफाम, यानी फर्मेंटेड मछली, सिर्फ स्वाद ही नहीं बढ़ाती बल्कि प्रोटीन और पोषण भी देती है.
बोड़ो खाने में पौधों की विविधता बहुत बड़ी है.
वैज्ञानिक भी मानते हैं कि यह विविधता समय के साथ उनके आसपास के वातावरण के अनुसार विकसित हुई है.
इसका मतलब है कि ये पौधे अपने पर्यावरण के अनुसार ढल गए हैं, जिससे बोड़ो लोग हमेशा पौष्टिक और उपलब्ध भोजन पा सके.
जंगली पौधों से खाना (Wild food plants)

बोड़ो लोगों के खाने में “WFP” यानी Wild Food Plants का बहुत बड़ा महत्व है.
ये जंगली पौधे, जिन्हें जंगल या गाँव के आस-पास अपने आप उगते हुए पाए जाते हैं, बोड़ो खाने में अलग स्वाद और पोषण लाते हैं.
ये सिर्फ खाने के लिए नहीं बल्कि स्वास्थ्य के लिए भी फायदेमंद माने जाते हैं.
जंगली पौधों का स्वाद अक्सर खट्टा, हल्का कड़वा और ताज़गी भरा होता है.
बोड़ो लोग इन स्वादों को खाने में खास पसंद करते हैं क्योंकि ये स्वाद उनके व्यंजनों को मज़ेदार बनाते हैं और शरीर को भी संतुलित रखते हैं.
जैसे खट्टापन हज़म में मदद करता है और हल्की कड़वाहट शरीर की सफाई और ऊर्जा बढ़ाने में मदद करती है.
इन पौधों का इस्तेमाल बोड़ो लोग अलग-अलग तरीकों से करते हैं.
कुछ पत्तियों और जड़ों को उबालकर या भूनकर खाते हैं, तो कुछ को सलाद या चटनी में मिलाते हैं.
कई बार इन्हें मछली या मसालों के साथ पकाया जाता है, जिससे स्वाद और पोषण दोनों बढ़ जाते हैं.
बोड़ो लोग यह जानते हैं कि जंगल के ये पौधे मौसम और समय के अनुसार अलग-अलग प्रकार के पोषण देते हैं.
उदाहरण के लिए, बारिश के मौसम में कुछ जंगली पत्तियाँ ज्यादा हरी और रसदार होती हैं, जबकि सर्दियों में कुछ जड़ें और फल ज्यादा ताकत और ऊर्जा देते हैं
नारज़ी (Narzi)

बोड़ो लोगों के खाने में “नारज़ी” एक बहुत खास डिश है.
यह मुख्य रूप से सूखी पत्तियों से बनाई जाती है.
पहले इन पत्तियों को धूप में सुखाया जाता है ताकि उनमें से पानी निकल जाए और ये लंबे समय तक सुरक्षित रह सकें.
जब पकाने का समय आता है, तो पहले इन सूखी पत्तियों को उबालकर उनका कड़वापन कम किया जाता है.
ऐसा करने से पत्तियाँ नरम हो जाती हैं और स्वाद भी अच्छा हो जाता है। इसके बाद इन्हें पकाने के लिए तैयार किया जाता है.
नारज़ी को अक्सर सूअर का मांस या मछली के साथ पकाया जाता है.
मांस या मछली से इसका स्वाद और भी गहरा और लज़ीज़ हो जाता है.
इस डिश का स्वाद हल्का कड़वा और तीखा होता है, जो बोड़ो लोगों को बहुत पसंद है.
हल्का कड़वा स्वाद खाने में अनोखा एहसास देता है और तीखापन खाने को मजदार बनाता है.
यह डिश सिर्फ स्वाद ही नहीं बल्कि पोषण में भी बहुत उपयोगी है.
सूखी पत्तियाँ शरीर के लिए हल्का और जरूरी पोषण देती हैं, और मांस या मछली प्रोटीन का अच्छा स्रोत होते हैं.
नारज़ी दिखाती है कि बोड़ो लोग कैसे स्थानीय और प्राकृतिक सामग्रियों का इस्तेमाल करके स्वाद और स्वास्थ्य दोनों का ध्यान रखते हैं.
यह डिश उनकी पारंपरिक खाना पकाने की कला और प्रकृति के करीब जीवन जीने के नज़रिये को भी दर्शाती है.
बोड़ो व्यंजन केवल स्वादिष्ट ही नहीं बल्कि बेहद पौष्टिक भी होते हैं.
वे कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, फाइबर और खनिजों का अच्छा स्रोत होते हैं.
इनका खाना प्राकृतिक रूप से संतुलित है क्योंकि इसमें जड़ें, पत्तियाँ, मछली और स्थानीय मसाले सबका सही मेल होता है.
बोड़ो लोग अपनी पारंपरिक विधियों से इन सामग्रियों को तैयार करते हैं और पीढ़ियों से यह ज्ञान एक-दूसरे को सिखाते आए हैं.

