छत्तीसगढ़ के गौरेला-पेंड्रा-मरवाही ज़िले से एक 12 वर्षीय आदिवासी छात्र की मौत का मामला सामने आया है.
आदिवास छात्र की मौत कथित लापरवाही के कारण हुई है. पहले आदिवासी कल्याण विभाग के तहत चलने वाले आवासीय विद्यालय के अधिकारियों की लापरवाही के कारण और फिर एक स्थानीय झोलाछाप डॉक्टर की लापरवाही के कारण, जिसने सर्दी और बुखार का इंजेक्शन लगाया था.
छात्र की मौत के ग्यारह दिन बाद भी ज़िले के अधिकारियों ने कोई जवाबदेही तय नहीं की है क्योंकि जिस आवासीय विद्यालय में बच्चा पढ़ रहा था, उसने प्रशासन को मौत के बारे में सूचित नहीं किया.
मामले में अभी तक कोई एफआईआर दर्ज नहीं की गई है और न ही जांच के आदेश दिए गए हैं.
टाइम्स ऑफ इंडिया से बात करते हुए आदिवासी कल्याण विभाग के प्रमुख सचिव सोनमणि बोरा ने कहा, “हमने कलेक्टर से रिपोर्ट मांगी है और उन्हें किसी भी तरह की चूक या कर्तव्य में लापरवाही होने पर उचित कार्रवाई करने के लिए कहा है.”
उन्होंने कहा कि उन्होंने आदिवासी कल्याण विभाग के आयुक्त नरेंद्र दुग्गा से मामले की जांच करने और विस्तृत जानकारी के साथ उन्हें रिपोर्ट देने को कहा है.
कक्षा 6 के छात्र आयुष कंवर ने 2 जून को गौरेला-पेंड्रा-मरवाही जिले में राज्य के आदिवासी कल्याण विभाग के तहत चलने वाले टिकरकला आवासीय विद्यालय में दाखिला लिया था.
14 जुलाई को आयुष के माता-पिता को हॉस्टल से एक कॉल आया जिसमें उन्हें अपने बच्चे को घर वापस ले जाने और उसका इलाज कराने के लिए कहा गया क्योंकि उसकी तबीयत खराब है.
हॉस्टल से 35 किलोमीटर दूर रहने वाले गरीब माता-पिता ने कहा कि वे अगले दिन अपने बच्चे को ले जाएंगे. आयुष को हल्की सर्दी और खांसी थी और माता-पिता उसे एक झोलाछाप डॉक्टर के पास ले गए जिसने उसे एक इंजेक्शन लगाया. इसके बाद आयुष की कुछ ही मिनटों में मौके पर ही मौत हो गई.
हॉस्टल अधीक्षक अतुल सिंह ने कहा कि जब बच्चा दोपहर 12:30 बजे अपने माता-पिता के साथ गया था तो उसकी सेहत बिल्कुल ठीक थी और वह उस दिन स्कूल भी गया था. लेकिन शाम को उसे आयुष की मौत के बारे में फोन आया.
सिंह के पास इस बात का कोई स्पष्टीकरण नहीं है कि उन्होंने अधिकारियों को सूचित क्यों नहीं किया, यह मानते हुए कि बच्चे को माता-पिता को सौंप दिया गया था और वे उसे झोलाछाप डॉक्टर के पास ले गए.
उन्होंने यह बताने से परहेज किया कि जब उन्होंने अपने माता-पिता को फोन किया था, तब उन्होंने आयुष का इलाज क्यों नहीं करवाया.
जीपीएम कलेक्टर लीना कमलेश मंडावी को इस घटनाक्रम के बारे में कोई जानकारी नहीं थी और उन्होंने मीडिया को बताया कि उन्हें स्थानीय पत्रकारों के माध्यम से यह जानकारी मिली.
आदिवासी विभाग के अधिकारियों पर मामले को छिपाने की कोशिश करने और माता-पिता द्वारा यह स्पष्टीकरण मांगे जाने के बीच कि जब बच्चे ने बीमार होने की शिकायत की तो छात्रावास प्रशासन क्या कर रहा था, इस रिपोर्ट के लिखने तक कोई जवाबदेही तय नहीं की गई और न ही कोई एफआईआर दर्ज की गई.
वहीं स्थानीय पत्रकारों ने उस झोलाछाप डॉक्टर को पकड़ा लेकिन उसने अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया.
छात्रावास में रहने वाले छात्रों को नियम के अनुसार महीने में एक बार नियमित स्वास्थ्य जांच करानी होती है. लेकिन दूरदराज के इलाकों में छात्रावासों में रहने वाले आदिवासी बच्चों की स्थिति की जांच नहीं की जाती है.