HomeAdivasi Dailyबिरसा मुंडा: एक प्रतीक जो देश के आदिवासियों को जोड़ सकता है

बिरसा मुंडा: एक प्रतीक जो देश के आदिवासियों को जोड़ सकता है

आज बिरसा मुंडा पहले से ज़्यादा प्रासंगिकता रखते हैं. क्योंकि अपने हक में बने क़ानूनों की रक्षा करते हुए, राजनीति और दूसरे स्पेस में आदिवासी को अपनी दावेदारी मज़बूत करने के लिए बिरसा एक बड़ी प्रेरणा हैं. बिरसा मुंडा एक ऐसे प्रतीक हैं जो पूरे देश के आदिवासी को स्वीकार्य हैं.

‘अबुआ राज सेतेर जाना, महारानी राज टुंदुर जाना’ यानि महारानी का राज ख़त्म हो और हमारा अपना राज स्थापित हो. यह नारा बिरसा मुंडा ने दिया था जिन्हें धरती आबा कहा जाता है.

आज यानि 9 जून उनकी पुण्यतिथि है. साल 1900 में उन्होंने राँची जेल में आख़री साँस ली थी. उस समय के जेल के अधिक्षक कैप्टन एआऱएस एंडरसन ने उनकी मौत का कारण कमज़ोरी और ख़राब सेहत बताया था.

हालाँकि यह भी कहा जाता है कि बिरसा मुंडा को अंग्रेज अधिकारियों ने ज़हर दे कर मार दिया था. बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर, 1875 को आज के झारखंड राज्य के छोटा नागपुर इलाक़े में हुआ था.

साल 1890 आते आते बिरसा मुंडा एक आदिवासियों के शोषण के ख़िलाफ़ लड़ने वाले एक चैंपियन के तौर पर स्थापित हो चुके थे. यानि उस समय उनकी उम्र क़रीब 15 साल रही होगी.

25 साल की उम्र में उनकी मौत हो गई. लेकिन अपनी मौत से पहले बिरसा मुंडा ने आदिवासियों के लिए कई तरह के अधिकार हासिल कर लिए थे. बिरसा मुंडा के आंदोलन की वजह से ही अंग्रेजों को छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट (CNT) लाना पड़ा. यहाँ क़ानून जल, जंगल और ज़मीन पर आदिवासी हक़ को मानता है. 

लेकिन बिरसा मुंडा का असली काम आदिवासियों को शोषण से मुक्ति का रास्ता दिखाना था. अपने उलगुलान से उन्होंने आदिवासियों को यह दिखा दिया था कि दुश्मन कितना भी ताकतवर हो, संगठन की ताक़त से उसे हराया जा सकता है.

इतिहास में नायकों का अपना एक समय होता है. उस दौर में उनके काम की प्रासंगिकता रहती है और वो बड़े बदलाव के कारण भी बनते हैं. लेकिन असली हीरो वही होता है जिसका काम आने वाली पीढ़ियों को भी रास्ता दिखाता है.

इस मामले में बिरसा मुंडा का कोई मुक़ाबला नहीं है. भारत के आदिवासियों में अगर कोई एक व्यक्तित्व है जिसकी महानता को सभी समुदायों और क्षेत्रों में स्वीकार किया जाता है तो वह बिरसा मुंडा ही हैं.

बिरसा मुंडा एक ऐसा प्रतीक है जो आदिवासियों को संगठित होने के लिए प्रेरित करता रहा है. वो ऐसे प्रतीक भी हैं जिनके नाम पर देश के लगभग हर इलाक़े के आदिवासी लोगों को जोड़ भी सकता है.

क्या आज बिरसा प्रासंगिक हैं? इसका जवाब है हाँ. बल्कि इसका जवाब है कि बिरसा मुंडा आज पहले से ज़्यादा प्रासंगिक हैं. 

आदिवासी आज भी भारत की राजनीति के केन्द्र में नहीं आ पाया है. मसलन जिस तरह से दलित, पिछड़ों या समाज के दूसरे वंचित तबकों की चर्चा देश की राजनीति में होती है, आदिवासी की नहीं होती है.

मीडिया या विमर्श के मंचों पर भी आदिवासी की चर्चा पर्याप्त नहीं होती है. लेकिन यह भी सही बात है कि आदिवासी धीरे धीरे अपना स्पेस क्लेम करने की तरफ़ कदम बढ़ा रहा है.

यह स्पेस राजनीति, पढ़ाई-लिखाई, नौकरशाही और विमर्श के अन्य मंचों सभी जगह पर क्लेम किया जा रहा है. 

पिछले लगभग दो दशक में आदिवासियों के अधिकारों की चर्चा और लड़ाई ने कई महत्वपूर्ण मुक़ाम हासिल किये हैं. इनमें वन अधिकार क़ानून 2006, पेसा 1996 जैसे क़ानूनों का ज़िक्र किया जा सकता है. 

आदिवासी संघर्ष के दबाव में देश में कुछ क़ानून बना तो दिए गए, लेकिन उन्हें लागू कराना आसान काम नहीं होता है. आज भी कई राज्य हैं जहां पेसा जैसा महत्वपूर्ण क़ानून लागू नहीं है. मसलन मध्य प्रदेश जहां सबसे अधिक आदिवासी आबादी रहती है यह क़ानून लागू ही नहीं हुआ है.

आदिवासी हक़ों के क़ानूनों के बारे में थोड़ा सा शोध बता देता है कि इनको लागू करने में देरी करने के लिए नौकरशाही और राजनीतिक दल किस तरह की पैंतरेबाज़ी करते रहते हैं. 

बल्कि इन क़ानूनों को लागू करने में ज़ोर लगाने की बजाए वो इस बात पर माथापच्ची करते हैं कि इन क़ानूनों को धता कैसे बताया जाए. आज जब हम बिरसा मुंडा को याद कर रहे हैं तो ऐसे कई बड़े मामलों में आदिवासी संघर्ष कर रहे हैं.

इनमें छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य को बचाने की लड़ाई भी चल रही है. पिछल 10 साल से इस इलाक़े में आदिवासी लगातार जंगल बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. दूसरी तरफ़ पश्चिम बंगाल में ज़मीन अधिग्रहण के मुद्दे पर चुनाव जीत कर आईं ममता बनर्जी भी अब आदिवासियों की ज़मीन छीन कर उद्योग को देना चाहती हैं. वहाँ भी कोल ब्लॉक के लिए जंगल उजाड़ने और आदिवासियों को विस्थापित करने के ख़िलाफ़ आंदोलन हो रहा है. 

हम हाल ही में महाराष्ट्र के पालघर और ठाणे ज़िले के आदिवासियों से मिल कर लौटे हैं. हमने वहाँ क़रीब से देखा कि आदिवासी लगातार विस्थापन के डर में जी रहा है. उसकी ज़मीन पहले साहूकारों ने हड़पी थी तो अब साहूकारों के साथ साथ सरकार भी शामिल हो गई है.

इसलिए आज बिरसा मुंडा पहले से ज़्यादा प्रासंगिकता रखते हैं. क्योंकि अपने हक में बने क़ानूनों की रक्षा करते हुए, राजनीति और दूसरे स्पेस में आदिवासी को अपनी दावेदारी मज़बूत करने के लिए बिरसा एक बड़ी प्रेरणा हैं. 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Recent Comments