HomeColumnsआदिवासियों का हक़ मारने की ताक में बैठी सरकार जनजातीय गौरव की...

आदिवासियों का हक़ मारने की ताक में बैठी सरकार जनजातीय गौरव की बात कर रही है

दामन पे कोई छींट न ख़ंजर पे कोई दाग़, तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो – कलीम आजिज़ का यह शेर मेरी दिमाग़ में चल रही जद्दोजहद के जवाब के तौर पर आया है. यह जद्दोजहद 15 नवंबर, 2022 यानि जनजातीय गौरव दिवस से जुड़ी थी. इस बार जनजातीय गौरव दिवस बहुत बड़े स्तर पर मनाया जा रहा है. 

राष्ट्रपति द्रोपदी मूर्मु आदिवासी नायक बिरसा मुंडा के जन्मस्थान उलिहातु में जनजातीय गौरव दिवस के कार्यक्रम में हिस्सा लेंगी. इसके अलावा इस साल स्कूलों और कॉलेजों में भी जनजातीय गौरव दिवस मनाया जाएगा. 

आदिवासी को राष्ट्रीय स्तर पर जितनी चर्चा आजकल मिल रही है, शायद ही यह कभी पहले हुआ है. पिछले साल बिरसा मुंडा जयंती को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाए जाने का फ़ैसला किया गया. देश को पहली आदिवासी राष्ट्रपति भी मिली. 

देश में आदिवासियों को जो चर्चा मिली है उसका श्रेय निस्संदेह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को जाता है. उन्होंने अपने भाषणों में आदिवासियों को शामिल किया है. गुजरात और मध्य प्रदेश में आदिवासियों से जुड़े कई बड़े आयोजनों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी शामिल हुए. 

यह उनका कौशल और करिश्मा है कि वह जिस मसले पर चाहें, देश की बहस को केंद्रित कर सकते हैं. इसके अलावा उनकी पार्टी और सरकार के अलावा मीडिया में भी उनका जो दबदबा है वह उनके काम को आसान बना देता है.

अगर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यह कहते हैं कि जनजातीय गौरव दिवस को बड़े स्तर पर मनाया जाना चाहिए, तो सरकार के साथ साथ मीडिया और ख़ासतौर पर टीवी चैनल इसे अपना कर्तव्य मान लेते हैं. “मैं भी भारत” कि शुरुआत करते हुए हमने कहा था कि हम यह चाहते हैं कि आदिवासियों और उनके अधिकारों बारे में राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा होनी चाहिए.

इस लिहाज़ से हमें इस बात की संतुष्टि होनी चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आदिवासी को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में ले आए हैं. फिर मेरा दिमाग़ क्यों जद्दोजहद में फँस गया है. आदिवासी नायक बिरसा मुंडा की जयंती पूरे देश के स्कूल कॉलेजों में जनजातीय गौरव दिवस के तौर पर मनाई जाएगी तो नई पीढ़ी को आदिवासियों को समझने में आसानी होगी. 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल ही में कहा है कि वो रोज़ किलोग्राम के हिसाब से गाली खाने के आदी हो चुके हैं. क्या मैं भी उन पत्रकारों में शामिल हो चुका हूँ या होना चाहता हूँ जो मोदी जी का खून पीते हैं. इस जद्दोजहद से निकलने का एक ही तरीक़ा मुझे सुझता है, ठोस तथ्यों का ठोस विश्लेषण. 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार को अब केंद्र में 8 साल हो चुके हैं. इस दौरान उनकी सरकार और जिन राज्यों में डबल इंजन सरकारें हैं, यानि जिन राज्यों में बीजेपी की सरकारें हैं, वहाँ आदिवासियों के लिए क्या क्या काम किया गया, इसको देखा जाए. 

आदिवासी आबादी की पहचान या अस्मिता और उसके संवैधानिक – क़ानूनी अधिकारों के मामले में नरेन्द्र मोदी सरकार और बीजेपी की राज्य सरकारों का प्रदर्शन का सिलसिलेवार विश्लेषण शायद हमें यह समझने में मदद करे कि पिछले 8 सालों में आदिवासियों के प्रति सरकार कितनी संजीदगी से काम कर रही है.

वन अधिकार क़ानून 2006

देश के आदिवासियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय को ख़त्म करने के लिए वन अधिकार क़ानून 2006 लाया गया था. यह क़ानून आदिवासियों और जंगल में रहने वाले अन्य निवासियों को उस भूमि पर अधिकार देता है जिस पर वे खेती करते रहे हैं. 

आदिवासी समुदायों के आर्थिक सशक्तिकरण में यह एक बड़ा और निर्णायक कदम था. इस क़ानून के तहत आदिवासियों को ज़मीन के पट्टे दिए जाने का प्रावधान है. इस सिलसिले में बीजेपी शासित राज्यों का रिकॉर्ड सबसे ख़राब है. 

अगर बीजेपी शासित त्रिपुरा को छोड़ दिया जाए तो आदिवासियों को वन अधिकार क़ानून के तहत पट्टा देने के काम में एक भी बीजेपी शासित राज्य में राष्ट्रीय औसत की बराबरी नहीं की जा सकी है. राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासियों के दावों को स्वीकार किये जाने का औसत 50.4 प्रतिशत है. 

20 जुलाई, 2022 को संसद में सरकार की तरफ़ से दी गई जानकारी में यह तथ्य पता चलता है. सरकार की तरफ़ से दी गई जानकारी के अनुसार बीजेपी शासित बड़ी मुश्किल से 50 प्रतिशत दावे ही स्वीकार कर सका है. 

बीजेपी शासित एक और बड़े राज्य मध्य प्रदेश में सिर्फ़ 47 प्रतिशत दावे ही स्वीकार हुए हैं. असम में भी बीजेपी की सरकार है और वहाँ पर वन अधिकार क़ानून के तहत आदिवासियों के दावों में से सिर्फ़ 47 प्रतिशत दावे ही स्वीकार हुए हैं.

बीजेपी शासित कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, उतराखंड में तो हालात बेहद ख़राब नज़र आते हैं. कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश में सिर्फ़ 5 प्रतिशत दावे ही स्वीकार किये गए हैं. वहीं उत्तर प्रदेश में अभी तक सिर्फ़ 20 प्रतिशत पट्टे ही आदिवासियों को मिले हैं.

जबकि कई ग़ैर बीजेपी शासित राज्यों का इस मामले में रिकॉर्ड काफ़ी बेहतर नज़र आता है. मसलन आंध्र प्रदेश में यह औसत 77 प्रतिशत है और ओडिशा में 71 प्रतिशत आदिवासियों को ज़मीन के पट्टे मिल चुके हैं. कांग्रेस शासित राज्यों का प्रदर्शन भी कोई बेमिसाल नहीं है, लेकिन फिर भी बीजेपी शासित राज्यों की तुलना में तो बेहतर ही है.

कांग्रेस शासित राज्य छत्तीसगढ़ में 53 प्रतिशत और राजस्थान में क़रीब 52 प्रतिशत आदिवासियों को ज़मीन का पट्टा दिया जा चुका है. वामपंथी शासन वाले केरल में वन अधिकार क़ानून के तहत क़रीब 61 प्रतिशत आदिवासियों को ज़मीन के पट्टे मिले हैं. 

पेसा (PESA) 1996

संविधान में आदिवासी बहुल इलाक़ों के लिए विशेष प्रावधान किये गए हैं. संविधान की अनुसूची 5, 6 और 7 में देश के अलग अलग राज्यों में रहने वाले आदिवासियों की संस्कृति, भाषा और धार्मिक सामाजिक व्यवस्था के संरक्षण के साथ साथ उनकी ज़मीन की रक्षा की व्यवस्था की गई है. 

आदिवासी परंपराओं और जीवनशैली को ध्यान में रखते हुए अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत राज व्यवस्था को लागू करने के लिए भी 1996 में एक क़ानून बनाया गया है. इस क़ानून को पेसा (Panchayti Raj Extension in Scheduled Areas) कहा जाता है. इस क़ानून के प्रावधान भी आदिवासी परंपराओं के साथ साथ उनकी ज़मीन और संसाधनों की रक्षा करते हैं.

मसलन इन इलाक़ों में किसी भी उद्देश्य के लिए ज़मीन तब तक नहीं ली जा सकती है जब तक ग्राम सभा से मंज़ूरी नहीं मिलती है. यानि यह क़ानून स्थानीय प्रशासन में आदिवासी भागीदारी के साथ साथ संसाधनों पर आदिवासी समुदाय को हक़ देता है. लेकिन बीजेपी शासित राज्यों में इस क़ानून को लागू करने के बारे में भी प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है.

मध्य प्रदेश में बीजेपी लंबे समय से शासन में है, लेकिन वहाँ पर अभी तक पेसा लागू नहीं हुआ है. कुछ महीने पहले मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने घोषणा की थी के राज्य में पेसा को लागू किया जाएगा. लेकिन राज्य सरकार अभी तक राज्य में पेसा के नियम तैयार नहीं कर पाई है. 

छत्तीसगढ़ में भी 15 साल लगातार सत्ता में रहने वाली बीजेपी ने पेसा को लागू ही नहीं किया. इसके अलावा जब झारखंड में आदिवासी समुदायों ने अनुसूची 5 के तहत मिले अधिकारों को पाने के लिए पत्थलगड़ी आंदोलन चलाया तो बीजेपी ने आंदोलन पर ज़बरदस्त दमन किया था. 

वन संरक्षण नियम 2022

28 जून को केन्द्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने वन संरक्षण नियम 2022 नोटिफाई किए थे. इन नियमों पर कई राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों ने चिंता ज़ाहिर की थी. 

वन संरक्षण नियम 2022 के नियमों के बारे में चिंता यह प्रकट की गई थी कि ये आदिवासियों को अनुसूची 5 में दिए अधिकारों से लेकर पेसा क़ानून के प्रावधानों का उल्लंघन करते हैं. 

लेकिन सरकार ने इन नियमों का बचाव करते हुए राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों की चिंताओं को ख़ारिज कर दिया. इतना ही नहीं सरकार के जनजातीय मंत्रालय ने भी इन नए नियमों के बारे में प्रकट की गई आशंकाओं को ख़ारिज कर दिया. 

लेकिन हाल ही में वन संरक्षण नियम 2022 (Forest Conservation Rules 2022) को आदिवासी अधिकारों के ख़िलाफ़ बताते हुए राष्ट्रीय जनजाति आयोग के अध्यक्ष ने वन और पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव को इन नियमों को लागू ना करने की हिदायत दी है. 

इसके अलावा आयोग ने जनजातीय कार्य मंत्रालय (Tribal Affairs Ministry) के तर्क को भी ख़ारिज किया है. आयोग ने वन संरक्षण नियम 2022 को आदिवासी विरोधी माना है. 

आयोग ने कहा है कि वन संरक्षण के नए नियम वन अधिकार क़ानून 2006 में आदिवासियों और परंपरागत रूप से जंगल में रहते आए समुदायों के अधिकारों में हस्तक्षेप करता है.

राष्ट्रीय जनजाति आयोग ने पर्यावरण और वन मंत्रालय को चिट्ठी लिख कर इन नियमों को लागू ना करने को कहा है. 

आयोग ने वन और पर्यावरण मंत्रालय को साल 2017 के पर्यावरण संरक्षण नियमों को और मजबूत बनाने को कहा है. इस पत्र में आयोग ने लिखा है कि वन अधिकार क़ानून 2006 के तहत जंगल की ज़मीन को किसी भी परियोजना के लिए देने से पहले समुदाय से अनुमति का प्रावधान है. 

2017 के वन संरक्षण नियम में यह प्रावधान स्पष्ट रूप से किया गया है. इसलिए इन नियमों को मज़बूती से लागू किया जाना चाहिए और साथ साथ यह निगरानी भी रखी जानी चाहिए कि नियमों का उल्लंघन ना किया जाए.

आदिवासी मसलों पर सरकार का रूख

13 फ़रवरी 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने एक फ़ैसला दिया, जिससे क़रीब 17 लाख आदिवासी परिवारों पर बेघर होने का ख़तरा पैदा हो गया. इस फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जिन आदिवासियों के पट्टे के लिए किए गए दावे ख़ारिज हो गए हैं उन्हें जंगल की ज़मीन ख़ाली करनी होगी.

सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले से हड़कंप मच गया. जब हड़कंप मचा तो सरकार की नींद टूटी और सरकार ने ऐलान किया कि वह आदिवासियों को बेघर नहीं होने देगी. इसके बाद सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई और अदालत ने अपने फ़ैसले पर रोक लगा दी.

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में बेशक अपने आदेश पर रोक लगा दी है, लेकिन यह सच है कि सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार ने घोर लापरवाही की थी. सरकार की तरफ़ से सुप्रीम कोर्ट में कोई वकील ही पेश नहीं हुआ था. 

आदिवासियों पर अत्याचार और इंसाफ़

आदिवासियों पर अत्याचार के मामले में भी बीजेपी शासित राज्यों की तस्वीर बहुत अच्छी नहीं है. 2020 की अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट कहती है कि आदिवासियों के ख़िलाफ़ होने वाले अत्याचारों के मामले में मध्य प्रदेश नंबर एक पर है.

यह रिपोर्ट बताती है कि मध्य प्रदेश में आदिवासियों पर अत्याचार के मामले लगभग 20 प्रतिशत बढ़ गए थे. इसके अलावा सहरिया जैसे विशेष रूप से पिछड़ी जनजाति में बँधुआ मज़दूरी के काफ़ी मामले दर्ज होते रहे हैं. 

आदिवासी मसलों पर सरकार कितनी संजीदा है और उनके विकास के लिए कितने संसाधन दिए जा रहे हैं, इस पर काफ़ी विस्तार से लिखा जा सकता है. मसलन आदिवासी छात्र-छात्राओं के लिए जो आश्रम स्कूल चलाए जाते हैं, उनके बारे में कुछ ना ही कहा जाए तो अच्छा है. 

नरेन्द्र मोदी सरकार का दावा है कि उसने आदिवासी विकास पर ख़र्च बढ़ाया है. लेकिन जब बजट में की गई घोषणाओं और असल में दिए गए पैसे का हिसाब लगाएँगे तो असलियत पता चलती है.

लेकिन इस सबके बावजूद अगर सरकार छाती ठोक कर यह कहती है कि उसने जो किया वह आज तक किसी ने नहीं किया था, तो यह सिर्फ़ और सिर्फ़ मोदी मैजिक के भरोसे ही संभव है. 

आदिवासियों के संवैधानिक और क़ानूनी हक़ों की ताक में बैठी सरकार जनजातीय गौरव दिवस मना रही है, क्योंकि मोदी है तो मुमकिन है. 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Recent Comments