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संस्थानों की प्रतिष्ठा या फिर आदिवासी और वंचित तबकों के छात्रों की जान, ज्यादा ज़रूरी क्या है?

संसद में सरकार ने यह जानकारी देते हुए बताया था कि 2014 से 2021 के बीच सैंट्रल यूनिवर्सिटी, IIT और NIT में कु 101 छात्रों ने ख़ुदकुशी कर ली. सिर्फ़ IIT में ही 34 छात्रों ने इस दौरान आत्महत्या की थी. इनमें आधे से ज़्यादा छात्र आदिवासी, दलित या ओबीसी के थे.

किसी भी मुद्दे के हल के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि उस मुद्दे पर चर्चा हो…चर्चा जितनी व्यापक होगी…यानि उस चर्चा में जितनी विविधता होगी…इस बात की संभावना बढ़ती जाएगी कि उस मसले का सही हल मिल जाए. इस बातचीत, चर्चा या विमर्श का सबसे बड़ा फ़ायदा ये होता है कि किसी मुद्दे को गहराई से समझा जाता है… उसके अलग आयाम सामने आते हैं…लेकिन कई बार बहस को ऐसी दिशा भी दे दी जाती है…जो मुद्दे को ही बदल कर रख देती है. अक्सर यह काम सोच-समझ कर किया जाता है…..जिसमें class bias होता है…कई बार लापरवाही में भी ऐसा हो जाता है….हाल ही में ऐसी ही एक बहस शुरू हुई है जिस पर मुझे लगा की आपसे बात होनी चाहिए…. यह बहस देश के प्रतिष्ठित संस्थानों में आदिवासी और दलित छात्रों में आत्महत्या के बढ़ते मामलों से जुड़ी है….अगर आपको मेरी बात ग़लत लगे तो बताईएगा ज़रूर….

तो फ़रवरी महीने में IIT Bombay से एक दलित छात्र की आत्महत्या की दुखद ख़बर आई. इस छात्र के परिवार ने आरोप लगाया कि दर्शन सोलंकी नाम के इस छात्र के साथ संस्थान में जातिगत भेदभाव हो रहा था. इस भेदभाव से परेशान हो कर ही दर्शन ने अपनी जान दे दी थी.

इस मसले पर IIT Bombay ने एक समिति बनाई और इस समिति ने संस्थान के प्रबंधन को क्लीन चिट देते हुए कहा कि क्योंकि दर्शन सोलंकी के परीक्षा में लगातार नंबर कम आ रहे थे, इसलिए उसने शर्मिंदा हो कर आत्महत्या कर ली थी.

इस कमेटी की रिपोर्ट और गठन दोनों पर ही कई बुद्धिजीवियों ने सवाल उठाए हैं. इनमें से IIT Bombay में पढ़ाने वाली एक वर्तमान प्रोफ़ेसर और एक पूर्व प्रोफ़ेसर भी शामिल हैं. इन दोनों ही प्रोफ़ेसर की बात का सार ये है कि इस कमेटी का गठन किया ही इस नज़रिये से गया था कि संस्थान को क्लीनचिट मिल सके और संस्थान की बदनामी ना हो.

हमने इस रिपोर्ट को देखा नहीं है और इस रिपोर्ट से जुड़ी कुछ ही बातें मीडिया में रिपोर्ट हुई हैं….इसलिए इन टिप्पणियों या प्रतिक्रियाओं पर कुछ कहना मुनासिब नहीं होगा. लेकिन इस मसले पर एक बहस मीडिया में छपी है…इस बहस में देश मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ भी शामिल हुए हैं. इसके अलावा IIT या देश के ऐसे ही प्रतिष्ठित संस्थानों से जुड़े लोग भी अपनी बात इस मुद्दे पर कह रहे हैं. 

मार्च 5 को देश के एक बड़े अख़बार Times of India में वी रामगोपाल राव का एक लेख इस मुद्दे पर छपा है. वे IIT दिल्ली के डायरेक्टर रह चुके हैं, और फिलहाल बिट्स पिलानी के ग्रुप वाइसचांसलर हैं. उन्होंने अपने लेख में भारत के कॉलेजों और संस्थानों में आत्महत्या के बढ़ते मामलों पर चिंता जताई है. 

इस मसले पर चिंता जताने के साथ ही उन्होंने उन कारणों की पहचान की है जो आत्महत्याओं के मामलों में बढ़ोत्तरी का कारण हो सकते हैं. इसके साथ ही उन्होंने कुछ उपाय भी सुझाए हैं जो आत्महत्याओं को रोक सकते हैं. 

इस सिलसिले में उन्होंने चार मुख्य उपाय करने की सलाह दी है…इसमें पहली सलाह है छात्र और शिक्षक के अनुपात को सुधारना  – उन्होंने कहा है कि अब प्रतिष्ठित संस्थानों में लगातार छात्रों की तादाद बढ़ रही है, लेकिन उस अनुपात में शिक्षक या संसाधन नहीं बढ़ रहे हैं…उनकी नज़र में यह सत्यानाश की जड़ है, यह सबसे बड़ा कारण है जिसकी वजह से छात्रों में तनाव बढ़ता है

उन्होंने दूसरा उपाय बताया है स्ट्रॉंग कम्युनिटी फ़ीलिंग – उन्होंने दावा किया है कि ना जाने कितने वैज्ञानिक शोध मौजूद हैं जो बताते हैं कि मज़बूत रिश्ते खुश रहने की कुंजी है. उनका कहना है कि ऐसा माहौल होना चाहिए जहां अगर कोई छात्र मुश्किल महसूस करता है तो वह मदद माँग सके. इसके लिए उन्होंने कहा है कि NCC और NSS की गतिविधियाँ मदद कर सकती हैं. कुल मिलाकर वो कहते हैं कि छात्रों और अध्यापकों के बीच संवाद होते रहना चाहिए. 

अगले दो उपायों में उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया है कि मानसिक स्वास्थ्य को गंभीरता से लेना सीखना चाहिए…और हमें अपने कैंपसों में मेंटल हेल्थ के लिए पर्याप्त सुविधाएँ और संसाधन उपलब्ध कराने चाहिएँ. 

वे अपनी बात ख़त्म करते हुए एक बेहद ज़रूरी, पर अधूरी बात कहते हैं……..वो कहते हैं कि अब वो समय आ गया है जब प्रतिष्ठित संस्थानों के छात्रों को अपने सीमित और संकुचित दायरों से बाहर निकलना चाहिए. वो कहते हैं …इन संस्थान के छात्रों को वंचित तबकों के लोगों की मदद करना सीखना चाहिए…मसलन इस संस्थान के लोग किसी छोटे दुकानदार को अपना बिज़नेस ऑनलाइन ले जाने में मदद करनी चाहिए…या फिर कुछ दिन उन स्कूलों में पढ़ाना चाहिए जहां पर ग़रीब बच्चे पढ़ते हैं…उनका कुल मिला कर कहना ये है कि IIT, AIIMS, IIM जैसे संस्थानों के छात्रों को लोगों का कष्ट और दुख समझना चाहिए….और अंततः वे कहते हैं कि मानसिक बीमारी का इलाज संभव है….और इसमें जागरूकता और मज़बूत संबंध काम आ सकते हैं……

उन्होंने जो बात कही है…वह ज़रूरी होते हुए भी अधूरी है…और अधूरी है इसलिए उसका कोई लाभ भी शायद नहीं होगा…बल्कि जो उन्होंने जो कहा है वह काफ़ी हद तक चिंताजनक भी है…क्योंकि उनकी बात में ज़रूरी तथ्यों को छोड़ दिया गया है ….

वो तथ्य है कि इन संस्थानों में जिन छात्रों ने आत्महत्या की हैं उनमें से 58 प्रतिशत वे आदिवासी, दलित या फिर पिछड़ी जातियों से थे. संसद में सरकार ने यह जानकारी देते हुए बताया था कि 2014 से 2021 के बीच सैंट्रल यूनिवर्सिटी, IIT और NIT में कु 101 छात्रों ने ख़ुदकुशी कर ली. सिर्फ़ IIT में ही 34 छात्रों ने इस दौरान आत्महत्या की थी. इनमें आधे से ज़्यादा छात्र आदिवासी, दलित या ओबीसी के थे.

तो IIT Delhi  के पूर्व डायरेक्टर हों या फिर इन संस्थानों के प्रबंधन, उनकी चिंता इन संस्थानों की प्रतिष्ठा से ज़्यादा जुड़ी है. इस मामले में मुख्य न्यायधीश DY Chandrachud ने कुछ अहम बिंदुओं को छुआ है….. 

उन्होंने कहा कि वे इस बात से काफ़ी परेशान हैं कि देश के प्रतिष्ठित संस्थानों में वंचित तबकों के छात्र आत्महत्या कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि इन संस्थानों में जुड़े आँकड़ों को सिर्फ़ एक संख्या नहीं समझा जा सकता है, बल्कि ये कई बार सदियों के संघर्ष की कहानी कहते हैं. उन्होंने कहा कि अगर हम इस मसले का हल चाहते हैं तो सबसे पहली ज़रूरत है कि इस समस्या को समझा जाए. 

उन्होंने जाने माने शिक्षाविद सुखदेव थोराट को उद्धृत करते हुए कहा, “सुखदेव थोराट ने कहा कि जब प्रतिष्ठित संस्थानों में आत्महत्या करने वाले लोगों में से लगभग सभी छात्र दलित या आदिवासी हैं तो फिर यह एक पैटर्न है…जिसको समझने और सुलझाने की ज़रूरत है. 

उन्होंने कहा कि हमारे संस्थानों में empathy की कमी है और संस्थानों में भेदभाव से यह सीधा सीधा जुड़ा है. यानि इन संस्थानों में वंचित या कमज़ोर तबकों से आए छात्रों को समझने की कोशिश नहीं की जाती है. 

मोटे तौर पर मुख्य न्यायधीश ने जो बात कही है, वह इस मुद्दे पर एक गंभीर टिप्पणी है. लेकिन अफ़सोस की बात ये है कि उनकी इस टिप्पणी के बाद भी इन संस्थानों या उनसे जुड़े लोगों की जो प्रतिक्रिया है वो बहुत सतही है जिसे ज़्यादा से ज़्यादा managerial यानि खानापूर्ती ही कहा जा सकता है…इन संस्थानों से जुड़े संभ्रांत वर्ग के लोग यहाँ पनपते भेदभाव को सिरे से ख़ारिज करने में जुटे हैं….बेशक इस मामले में मुख्य न्यायधीश ने एक गंभीर टिप्पणी की है, लेकिन देश के न्यायालयों ने भी शिक्षण संस्थानों में जातीय भेद-भाव को मिटाने के लिए कोई बड़ा हस्तक्षेप नहीं किया है. 

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