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कोई कलेक्टर कभी JCB के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हुआ है कि पहाड़ मत खोदो

शिकार को रोकने के लिए कलेक्टर साहिबा ख़ुद आदिवासियों से मिलने पहुँची. इस तस्वीर में कलेक्टर साहिबा दंडवत् हो कर इन आदिवासियों को शिकार पर ना जाने की अपील कर रही थीं. मेरे दिमाग़ में इस तस्वीर के साथ एक सवाल भी उभरा, क्या कभी किसी अफ़सर ने इन 20 से 40 टायरों के ट्रक के सामने इस तरह से दंडवत् हो कर आग्रह किया है कि पहाड़ मत खोदिए…इससे पर्यावरण को नुक़सान होता है.

आज यानि 5 जून को दुनिया भर में पर्यावरण दिवस मनाया जा रहा है. कोविड की वजह से बड़े सार्वजनिक आयोजन नहीं हो रहे हैं. लेकिन इस मसले पर वेबिनार यानि ऑनलाइन सेमिनार तो आयोजित हो ही रहे हैं.

इन चर्चाओं में पर्यावरण को लेकर चिंता और समाधान की तलाश के प्रयास विषय हैं. इस विषय पर मेरा कोई ख़ास ज्ञान नहीं है. लेकिन फिर भी आज कुछ लिखने का मन किया. इस इच्छा के पीछे ओडिशा के मयूरभंज ज़िले का हाल का मेरा अनुभव है. 

मार्च महीने में मैं भी भारत की टीम ओडिशा के मयूरभंज और बालेश्वर ज़िले में थी. यह वही समय था जब मयूरभंज के सिमलीपाल टाइगर रिज़र्व फ़ॉरेस्ट की आग अंतरराष्ट्रीय चर्चा का विषय थी.

जंगल में गर्मी के मौसम में आग लगती है और हर साल लगती है. लेकिन इस साल आग ने भयानक रूप ले लिया. यह आग इस साल सिमलीपाल के कोर एरिया यानि जहां टाइगर रहता है वहाँ तक पहुँच गई.

दरअसल मार्च-अप्रैल में सिमलीपाल और दूसरे जंगलों में भी आग की घटनाएँ होती रहती हैं. लेकिन यह आग ज़्यादा नुक़सान नहीं कर पाती है. इसकी वजह है कि इन महीनों में जंगलों में थोड़ी बहुत बारिश होती रहती है. 

सिमिलिपाल जंगल में आग लगना चिंता का एक वाजिब कारण है. सिमलीपाल एशिया का दूसरा सबसे बड़ा नेशनल पार्क बताया जाता है. 

सिमलीपाल जंगल में आग के बाद की तस्वीर

इस जंगल में कम से कम फूलों (Orchid) की 94 प्रजातियों और पौधों की लगभग 3,000 प्रजातियों मिलती हैं. जंगली जीवों की पहचान की गई प्रजातियों में उभयचरों (amphibians) की 12 प्रजातियां, सरीसृपों (reptile) की 29 प्रजातियां, पक्षियों की 264 प्रजातियां और स्तनधारियों की 42 प्रजातियां शामिल हैं.

 ये सभी सामूहिक रूप से सिमिलिपाल की जैव विविधता समृद्धि को उजागर करते हैं. इस जंगल में साल के पेड़ों की भरमार है. ज़ाहिर है जब मामला इतना गंभीर है और चर्चा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुई थी तो आग बुझाने की कोशिश भी बड़ी स्तर पर की गई थी. 

वैसे उमस भरे इन जंगलों में 10 मार्च को बारिश हुई थी. जिससे बड़े इलाक़े में जंगल की आग बुझ गई थी. आग बुझाने के बाद नुक़सान का जायज़ा लेने के लिए वन विभाग के बड़े अफ़सर भी मैदान में उतरे. 

इस साल जंगल में कम से कम 349 जगहों पर आग लगी, जो थोड़ी असामान्य सी बात है. जंगल में बांस के रगड़ खाने से कई बार आग लग जाती है. क्योंकि पतझड़ की वजह से पूरा जंगल सूखे पत्तों से भर जाता है इसलिए आग फैल भी जाती है. 

लेकिन जिस स्तर पर सिमलीपाल जंगल में इस साल आग फैली, उससे इसके मानवीय भूल या शरारत को कारण माना जा रहा है. जंगल के अधिकारियों ने दबी ज़बान में जंगल की चौहद्दी पर बसे आदिवासियों को इस आग के लिए ज़िम्मेदार ठहरा दिया. 

क्या आदिवासी जंगल में आग लगाता है. इस सवाल के जवाब की तलाश में हम सिमलीपाल नेशनल पार्क के आस-पास बसे कई गाँवों के आदिवासियों से मिले.

हिल खड़िया समुदाय के देवरी

इन आदिवासियों में से एक समुदाय हिल ख़ड़िया है जो पूरी तरह से जंगल पर ही निर्भर है. ये आदिवासी जंगल से महुआ, चिरौंजी, और कई तरह के फूल पत्ते जमा करते हैं.

इसके अलावा ये आदिवासी शहद भी तोड़ते हैं. वन विभाग के अधिकारियों का कहना है कि ये आदिवासी महुआ की सीज़न में सूखे पत्तों में आग लगा देते हैं. इससे उन्हें महुआ बिनने में आसानी होती है.

इसके अलावा जंगल में मधुमक्खी उड़ा कर शहद जमा करने के लिए भी आग जलाते हैं. हमने ये दोनों बातें हिल खड़िया आदिवासियों के सामने रखी.

इसके जवाब में ये आदिवासी हमें अपने गाँव के आस-पास के जंगल में काफ़ी दूर तक ले गए. उन्होंने हमसे पूछा कि कहीं आपको आग दिखाई दे रही है. कोई निशान आपको नहीं मिलेगा की जंगल में आग लगी है.

फिर जिस इलाक़े पर वन विभाग का क़ब्ज़ा है, वहीं आग क्यों लगती है? 

इस समुदाय के देवरी यानि पुजारी कहे जाने वाले व्यक्ति ने कहा, अगर हम जंगल में आग लगा देंगे तो ज़िंदा कैसे रहेंगे?

ओडिशा में जंगल की आग से निपटने के लिए हर साल 50 करोड़ रूपये का प्रावधान किया जाता है. इस पैसे को तरह तरह के यंत्रों और स्टाफ़ पर ख़र्च किया जाता है.

लेकिन जंगल के आस-पास रहने वाले आदिवासियों में जंगल की आग को बुझाने में मदद करने के लिए या फिर उनमें जागरूकता पर कोई पैसा ख़र्च नहीं किया जाता है.

शहद की तलाश में जंगल जाते आदिवासी

जबकि जानकार तो यही कहते हैं कि आदिवासियों और जंगल में रहने वाले दूसरे समुदायों को भागीदारी दे कर जंगल में आग से होने वाले नुक़सान को कम किया जा सकता है. 

जब हम इन गाँवों में घूम रहे थे तो कई पीवीटीजी समूह कहे जाने वाले आदिवासी समूहों ने हमें बताया कि जंगल के अधिकारी बड़े आदिवासी समुदाय जैसे संताल या मुंडा से डरते हैं. लेकिन छोटे और कमजोर आदिवासी समुदायों को जंगल में घुसने से रोक देते हैं. 

ओडिशा से पहले हमें छत्तीसगढ़ के कोरबा और सरगुजा के आदिवासीयों से भी मिलने का मौक़ा मिला. रायपुर से कोरबा की सड़क को सीमेंट से बनाया जा रहा है. लेकिन इसके बावजूद यह सड़क कितने दिन टिकेगी यह कहना मुश्किल है. क्योंकि इस सड़क पर हेवी ट्रक जिस तरह से ओवरलोड हो कर चलते हैं, सड़क का टिकना मुश्किल ही दिखता है. 

ये ट्रक इस कदर धूल उड़ाते हैं की सड़क के दोनों तरफ़ के पेड़ सफ़ेद नज़र आते हैं. ज़ाहिर है ये ट्रक खादानों और सीमेंट के कारख़ानों से लद कर आते हैं. जब ये ट्रक चल रहे थे तो मेरे दिमाग़ में ना जाने क्यों पश्चिम बंगाल और ओडिशा सीमा की मीडिया में छपी एक तस्वीर उभर आई.

इस तस्वीर में कुछ आदिवासी जंगल की तरफ़ जा रहे हैं. इन आदिवासियों के हाथ में तीर कमान, भाले और कुल्हाड़ी थीं. दरअसल ये आदिवासी अपनी परंपरा सेंदरा के तहत साल में कम से कम एक बार जंगल में शिकार के लिए जाते हैं. 

इस शिकार को रोकने के लिए कलेक्टर साहिबा ख़ुद आदिवासियों से मिलने पहुँची. इस तस्वीर में कलेक्टर साहिबा दंडवत् हो कर इन आदिवासियों को शिकार पर ना जाने की अपील कर रही थीं.

मेरे दिमाग़ में इस तस्वीर के साथ एक सवाल भी उभरा, क्या कभी किसी अफ़सर ने इन 20 से 40 टायरों के ट्रक के सामने इस तरह से दंडवत् हो कर आग्रह किया है कि पहाड़ मत खोदिए…इससे पर्यावरण को नुक़सान होता है.

ख़ैर जाने दीजिए….बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी. आपको पर्यावरण दिवस की शुभकामनाएँ.

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