ओडिशा (PVTG tribes of Odisha) में लोकसभा (Lok Sabha election 2024) और विधानसभा चुनाव (Odisha assembly election 2024) एक साथ हो रहे हैं. राज्य में 13 मई से 1 जून तक वोटिंग होगी.
राज्य में आदिवासी जनसंख्या करीब एक करोड़ है जो कुल जनसंख्या का लगभग 23 प्रतिशत होता है. इसलिए केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी हो या फिर राज्य में सरकार चला रही बीजु जनतादल, दोनों ही आदिवासी विकास के दावे कर रहे हैं.
लेकिन यह देखा गया है कि चुनाव के समय अक्सर जनसंख्या में बड़े समुदायों की ज़रूरतों या मांगों पर राजनीतिक दलों का ज़ोर ज़्यादा रहता है.
सामाजिक और आर्थिक तौर पर पिछड़े समाज के वे तबके चर्चा से बाहर ही रह जाते हैं जिनकी जनसंख्या चुनाव में बहुत मायने नहीं रखती है.
ओडिशा की बात करें तो इस राज्य में कम से कम 13 आदिवासी समुदाय ऐसे हैं जिन्हें विशेष रूप से पिछड़ी जनजाति (PVTG) कहा जाता है.
लोकसभा चुनाव से तुरंत पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पीवीटीजी (PVTG) समुदायों के लिए पीएम-जनमन की घोषणा की थी.
पीवीटीजी (विशेष रूप से कमज़ोर जनजाति) को पहले पीटीजी( आदिम जनजातीय समूह) कहा जाता था.
पीवीटीजी (Particularly vulnerable tribal group) समुदाय में शामिल होने के लिए कुछ मापदंड तय किए गए है. यह है- जिनकी आर्थिक स्थिति ठीक ना हो, खेती में पांरपरिक तकनीक का इस्तेमाल करते हो, जनसख्यां घट रही हो.
इन 13 पीवीटीजी समुदायों में डोंगरियां कोंध, बिरहोर, कुटिया कोंध, बोंडो, सौरा इत्यादि आदिवासी समुदाय शामिल हैं. आइए इनके बारे में विस्तार से जानते हैं.
- डोंगरिया कोंध:-

डोंगरिया कोंध (Dongria Kondh) ओडिशा में स्थित नियमगिरि पहाड़ियों में रहते हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार इनकी जनसंख्या लगभग 8000 हैं.
डोंगरिया कोंध के पड़ोसी इन्हें डोंगरिया इसलिए कहते है क्योंकि डोंगर का अर्थ है पहाड़िया. यह आदिवासी ज्यादातर पहाड़ों, जंगलों और ऊंचे इलाकों में रहते हैं.
डोंगरिया आदिवासी जंगलों पर कई फसलों की खेती करते है. जिनमें संतरे, केले, अदरक, मीठा पापीता आदि शामिल हैं. इन फलों को यह बाज़ारों में जाकर बेचते हैं.
यह आदिवासी मुर्गी, सुअर, बकरी और भैंस भी पालते हैं.
डोंगरिया कोंध दुनिया भर में उस समय चर्चा में आए जब उन्होंने एक भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनी वेदांता के बॉक्साइट खनन का विरोध किया. अंतत: आदिवासियों ने इस आंदोलन में जीत हासिल की और अपने पहाड़ को बचा लिया.
लेकिन इस आंदोलन के दौरान इस समुदाय के कई लोगों पर मुकदमें भी दायर किये गए थे. इनमें से कई लोगों पर गंभीर धाराओं के तहत मुकदमें दायर हुए हैं.
हाल ही में इन आदिवासियों ने इन मुकदमों को ख़ारिज किये जाने की मांग करते हुए चुनाव बहिष्कार की धमकी दी है.
2) बिरहोर आदिवासी

बिरहोर (Birhor tribe) शब्द दो शब्द बिर और होर को मिलाकर बना है. जिनमें बिर का अर्थ ‘ जंगल ’ और होर का अर्थ आदमी. मतलब ऐसे आदिवासी जो जंगल और पहाड़ों में रहते हो.
2011 की जनगणना के मुताबिक बिरहोर जनजाति की जनसंख्या 596 है. इस आंकड़े से ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि राज्य में इनकी घटती जनसंख्या बड़ी चिंता का विषय है.
बिरहोर समुदाय की महिलाएं श्रृंगार के लिए विभिन्न आकृतियों के गोदान गुदवाती है.
बिरहोर आदिवासियों का रोज़गार – बिरोहर आदिवासियों का आर्थिक जीवन शिकार करना, जंगली कंदमूल, भाजी और जंगली वनोपज पर पूरी तरह से निर्भर है.
यह आदिवासी मोहलाइन छाल की रस्सी या बांस के टुकना, झऊहा बनाकर भी बेचते हैं.
बिरहोर आदिवासियों में भूत-प्रेत और टोना-जादू पर बेहद विश्वास होता है. इनमें तंत्र-मंत्र व जड़ी बूटी जानने वाले को पाहन कहा जाता है.
बिरहोर समुदाय में घटती जनसंख्या और बढ़ता कुपोषण एक बड़ी समस्या हैं. 2017 में एक बिरहोर बच्ची की भूख से मौत की खबर सुर्खियों में आई तो शायद पहली बार दुनिया को बता चला कि बिरहोर नाम का भी एक आदिवासी समुदाय भारत में रहता है.
3) बोंडा आदिवासी

बोंडा आदिवासी (Bonda tribe) मालकानगिरि ज़िले में रहते हैं. 2011 की जनगणना के मुताबिक इनकी कुल जनसंख्या 12,231 हैं.
इन आदिवासियों की बस्तियां आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडिशा की सीमाओं पर स्थित हैं.
बोंडा महिलाएं सजने-संवरने के अंदाज़ और आभूषणों की वजह से अलग ही नज़र आती हैं.
यह महिलाएं सिर पर बाल बिल्कुल नहीं रखती.
इसके अलावा बोंडा महिलाएं शरीर के ऊपरी हिस्से को ढकने के लिए कपड़े का नहीं अपितु रंग बिरंगी मालाओँ का इस्तेमाल करती हैं.
बोंडा आदिवासियों को दो भागों में बांटा गया है. पहले वो है जिन बोंडा आदिवासियों ने पहाड़ों से नीचे आकर बसे और मुख्यधारा समाज के साथ संपर्क किया है.
लेकिन बोंडा आदिवासियों में आज भी कुछ समूह ऐसे है, जो पहाड़ो में ही बसे हैं. इन्हें पहाड़ी बोंडा कहा जाता है.
पहाड़ी बोंडा को पीवीटीजी श्रेणी में रखा गया है. बोंडा आदिवासियों में कम सक्षारता दर एक बड़ी चिंता है. बोंडा आदिवासियों में सक्षारता दर बस 3.19 प्रतिशत है.
इसके अलावा इस समुदाय की लगातार कम होती जनसंख्या भी चिंता का कारण है.
4) डिडायी जनजाति

डिडायी आदिवासी (Didayi tribe) ओडिशा के कोरापुट और मलकानगिरी ज़िले में रहते हैं. इसके अलावा ये आंध्र प्रदेश के गोदावरी ज़िले में भी बसे हैं.
इनकी जनसंख्या सबसे ज्यादा पूर्वी और पश्चिमी घाट में देखी गई है. 2011 की जनगणना के अनुसार इनकी कुल जनसंख्या 7,250 हैं.
डिडायी आदिवासी के पड़ोसी इन्हें डिडायी कहते है, जिसका अर्थ है ऐसे लोग जो जंगलों में रहते है. वहीं ये आदिवासी खुद को गटारे (Gatare) कहते है, जिसका अर्थ है आदमी.
इन आदिवासियों का पहनावा कुछ-कुछ तक डोंगरिया कोंध जैसा ही होता है.
डिडायी समुदाय की भाषा अन्य समुदाय की भाषा से काफी अलग है. इनकी भाषा तीन अलग अलग भाषाओं से मिलकर बनी है. जिनमें मुंडारी(ऑस्ट्रो-एशियाई, तेलगु और ओड़िया (ओडिशा की भाषा) शामिल है.
डिडायी समुदाय अन्य आदिवासियों की तरह झूम खेती करते हैं.
डिडायी समुदाय का कम सक्षारता दर एक बड़ी समस्या है. वहीं इन आदिवासियों में बाल मृत्यु दर लगातर बढ़ता जा रहा है. जिसका मुख्य कारण कुपोषण है.
5) जुआंगा जनजाति

जुआंगा आदिवासियों (Jaung tribe) का मूल निवास ओडिशा का क्योंझर ज़िला माना जाता हैं. हालांकि अब ये आदिवासी क्योंझर ज़िले के आस-पास क्षेत्रों में भी रहते हैं.
जुआंगा आदिवासियों की बस्ती अनुगुल और ढेंकानाल ज़िले में भी स्थित हैं.
क्योंझर ज़िले में रहने वाले जुआंगा आदिवासियों को थारिया कहा जाता है. वहीं जुआंगा आदिवासियों के वो समूह जो अन्य ज़िलों में जाकर बस गए है, उन्हें भागुडिया कहा जाता है.
जुआंग आदिवासियों को पहले पतुआ भी कहते थे क्योंकि ये लोग पत्तों को कपड़े की जगह इस्तेमाल करते थे.
जुआंगा समुदाय पौडी भुइयां की उपजनजाति मानी जाती है. 2011 की जनगणना के अनुसार इनकी जनसंख्या 47,095 हैं.
जुआंग आदिवासियों में कुपोषण एक बड़ी समस्या है. सरकार द्वारा जुआंग आदिवासियों में कुपोषण रोकने के लिए कई योजनाएं चलाई गई है. लेकिन इनका परिणाम बहुत अच्छे नहीं रहे हैं.
6) खड़िया जनजाति

खड़िया जनजाति (kharia tribe) ओडिशा के अलावा छत्तीसगढ़, बिहार, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और झारखंड में रहती है. ओडिशा में यह आदिवासी मुख्य तौर पर सुंदरगढ़, संबलपुर, मयूरभंज और झारसुगुड़ा ज़िले में रहते हैं.
यह आदिवासी मुंडा समुदाय से संबंध रखते है. खड़िया जनजाति को तीन भागों में बांटा गया है. इनमें हिल खड़िया, दुध खड़िया और धेलकी खड़िया शामिल हैं.
खड़िया समुदाय के हिल खड़िया को ओडिशा में पीवीटीजी श्रेणी में रखा गया है. हिल खड़िया आदिवासियों को सावर भी कहा जाता है.
खड़िया समुदाय के तीन उपजनजाति हिल, दुध और थेलकी की पंरपराएं एक-दूसरे जुड़ी हुई होती है. हालांकि इन समुदायों के बीच विवाह मान्य नहीं होता.
यह आदिवासी उड़िया, हिंदी और थोड़ी-बहुत बंगाली भाषा जानते हैं.
खड़िया आदिवासी शहद इकट्ठा करने और पेड़ों पर चढ़ने में माहिर होते हैं. यह आदिवासी मार्च से जून और सितंबर से नवंबर महीनें में शहद इकट्ठा करते हैं.
लेकिन अब इनका एक मात्र रोज़गार का साधान शहद इकट्ठा करना भी मुश्किल हो गया है.
गोधा साही गाँव में एमबीबी टीम की मुलाकत खड़िया समुदाय के कुछ लोगों से हुई थी. उन्होंने हमें वन विभाग के अधिकारी और खड़िया समुदाय के बीच हो रहे संघंर्ष के बारे में जानकारी दी.
उनका कहना था कि अक्सर वन विभाग मांकड़िया और खड़िया जैसे समुदाय को रोकता है और उन पर जंगल जलाने का आरोप लगाता है. लेकिन संथाल जैसे बड़े समुदाय को कोई कुछ नही कहता.
7) सौरा आदिवासी

सौरा आदिवासी (Sora tribe) को साओरा, सोरा, सावरा, सवारा या सबर के नाम से भी जाना जाता है. ओडिशा के आदिवासियों की कुल जनसंख्या का 5 प्रतिशत सौरा है.
ओडिशा के अलावा यह आंध्र प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में रहते हैं.
2011 की जनगणना के मुताबिक इनकी कुल जनसंख्या 8 लाख है, इनमें से 7 लाख सौरा आदिवासी ओड़िशा में रहते हैं.
सौरा आदिवासी पहले झूम खेती करते थे. अपने खेतों में वह कई तरह की फसले उगाते थे. लेकिन माइक्रो प्रोजेक्ट आने के बाद उनकी खेती के तरीके में बदलाव आया था.
यह माइक्रो प्रोजेक्ट सरकार ने पांचवी योजना( 1974-1978) में शुरू किया था.
सौरा आदिवासियों में भूमि पट्टा ना मिलना, पक्के मकानों का आभाव, पक्के सड़क की कमी है. माइक्रो प्रोजेक्ट के प्रभाव का देखने के लिए 2016 से 2021 के बीच सौरा आदिवासियों की बस्ती में सर्वेक्षण किया गया था.
जिसमें यह पता चला कि सौरा आदिवासियों के 58 गाँव में से 35 गाँव में एक भी आंगनवाड़ी मौजूद नहीं है. इन आंगनवाड़ियों का मुख्य काम कुपोषण से लड़ना है.
8) लांजिया सौरा आदिवासी

लांजिया सौरा (Lanjia tribe) सौरा आदिवासियों की उपजनजाति है. लांजिया सौरा के पड़ोसी इन्हें इनकी विशेष पहनावे की वजह से लांजिया बुलाते है.
लांजिया पुरूष की लंगोटी में एक लंबी पट्टी होती है, जो कुछ इस तरह से बांधी जाती है कि उस पट्टी का लाल कढ़ाई वाला सिरा शरीर के आगे और पीछे की तरफ लटकते हैं.
वहीं लांजिया समुदाय की महिलाएं एक सफेद कपड़े को अपने कमर में बांधती है. इस सफेद कपड़े के नीचे लाल रंग में बॉडर होता है.
इस कपड़े को इस प्रकार बांधा जाता है कि यह कपड़ा पैर का घुटना तक ही आ पाता है.
लांजिया आदिवासी महिलाओं के खास तरीके के दिखने वाले कुंडल और माथे के बीचों-बीचे टैटू होता है. इस आदिवासी समुदाय में भी भूमि अधिकार और कुपोषण बड़े मुद्दे हैं.
9) लोधा जनजाति

ओडिशा की लोधा जनजाति (lodha tribe) मयूरभंज ज़िले में रहते हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार इनकी कुल जनसंख्या 8905 हैं.
ब्रिटिश के समय इन आदिवासियों को आपराधिक प्रवृत्ति वाले लोगों की श्रेणी में रखा गया था.
आज़ादी के बाद 1960 के दशक में इस क़ानून को ख़त्म कर दिया गया. लेकिन आज भी इन्हें क्रिमिनल ही माना जाता है.
लोधा जनजाति उड़िया, मुंडारी और बंगाली से मिलती-जुलती भाषा बोलते हैं. लोधा आदिवासी सबाई रस्सी बनाते है. जिनकी बज़ारों में काफी अच्छी मांग है.
शिक्षा की कमी, गरीबी और खुद को जिंदा रखना इन आदिवासियों की बड़ी चुनौती हैं. ब्रिटिश द्वारा दिया गया क्रिमिनल टैग इनके ऊपर से आज भी नहीं हट पाया. पुलिस हो या बाहरी लोग इन्हें आज भी चोर ही समझते हैं.
10) पौंडी भुईयां

पौंडी भुईयां (Paudi bhuyan tribe) आदिवासी बिहार, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और असम में रहते हैं. इनके कुछ समूह पाहड़ों में भी बसे हैं, जिन्हें हिल भुईंया कहा जाता है.
इन आदिवासियों की बस्तियां ज्यादातर पहाड़ियों और ऊचांई में ही स्थित होती है. पौंडी भुईयां की बस्तियों के बीचों-बीच दरबारघर होता है. इस दरबारघर के पास ही ठकुरानीघर भी बनाया जाता है.
ठकुरानीघर में आदिवासियों के स्थानीय देवी-देवता निवास करते हैं. पौंडी भूईयां में नए घर बुधवार या शुक्रवार को ही बनाए जाते हैं.
इन आदिवासियों का आर्थिक जीवन भी वनोपज और खेती पर निर्भर हैं.
11) चुकटिया भुंजिया

भुंजिया नाम का अर्थ है वह लोग जो मिट्टी पर रहते हैं. भुंज शब्द भुम से लिया गया है, जिसका अर्थ है धरती और ईया का अर्थ है पर.
भुंजिया आदिवासी को दो भागों में बांटा गया है, जिनमें चुकटिया भुंजिया और चिंडा भुंजिया शामिल हैं.
चुकटिया भुंजिया (chuktia bhunjia) के रसोईघर घरों से अलग बनाए जाते हैं. अगर कोई बाहरी इनकी रसोई को छूता है, तो यह रसोईघर में आग लगाकर उसे नष्ट कर देते है और ररसोईघर का निर्माण फिर से किया जाता है.
चुकटिया भुंजिया झूम खेती करते है. झूम खेती को चुकटिया भुंजिया की भाषा में बेवार कहा जाता है. खेती के अलावा ये जंगलों में मिलने वाली लकड़ियों से झाडू बनाते है. जिसे ये व्यक्तिगत इस्तेमाल और बाज़ार में बेचते हैं.
12) मांकड़िया जनजाति

मांकड़िया आदिवासी (Mankidia Tribe) ओडिशा के मयूरभंज ज़िले के आस पास के जंगलो में रहते हैं. ये आदिवासी जंगलों में अपना स्थान बदलते रहते हैं.
मांकड़िया आदिवासी को रस्सी बनाने में माहिर माना जाता था. इन रस्सियों को ये आदिवासी जंगल के पास रहने वाले किसान परिवारों को बेचते थे.
लेकिन विस्थापन के बाद यह आदिवासी नाकारकत्मक जनसंख्या वृद्धि दर और कुपोषण जैसी समस्याओं का शिकार हो गए है.
13) कुटिया कोंध

कुटिया कोंध (kutia kondh tribe) ओडिशा के कालाहांडी ज़िले में रहते हैं. यह आदिवासी कालाहांडी ज़िले के लांजीगढ़, थुआमुल, रामपुर, मदनपुर रामपुर और भवानीपटना ब्लॉक में रहते हैं.
देश के अन्य आदिवासियों की तरह यह भी प्रकृति की पूजा करते हैं. यह आदिवासी पूरी तरह से वन उपज़ पर ही निर्भर है.
लांजीगढ़ में 90 प्रतिशत जनसख्यां कुटिया कोंध आदिवासियों की है. इस क्षेत्र में हर छठा परिवार भूख और खाद्य पदार्थ की कमी से जूझ रहा है.
इसके अलावा शिक्षा की कमी, बेरोज़गारी, भूमि अधिकार, पंरपरागत खेती जैसी समस्या देखी गई है.
कुटिया कोंध आदिवासियों के पास ज्यादातर 0.8-1.2 एकड़ तक की ज़मीन है. इनमें से कुछ ही कुटिया कोंध आदिवासियों के पास 3 एकड़ भूमि मौजूद है.
कुटिया कोंध जून से सितंबर के महीनें में अपनी फसलों की खेती करते है. वहीं जुलाई से अगस्त और नवंबर से दिसंबर के महीनें यह आदिवासी अपने फसलों के उत्पादन का इंतजार करते है.
इस समय कुटिया कोंध की बस्तियों में खाद्य पदार्थ की भारी कमी हो जाती है.
इसलिए यह आदिवासी दो वक्त की रोटी के लिए आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में जाकर ईट भट्टे और फैक्टरियों में काम करते हैं.
लांजीगढ़ क्षेत्र में रहने वाले कुछ ही आदिवासी सब्जी और दाल जैसे खाद्य पदार्थ खा पाते है. इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन आदिवासियों में खाद्य पदार्थ और भूख कितनी बड़ी समस्या है.