भारत के नॉर्थईस्ट में बसी नागा जनजाति ना सिर्फ अपने रंग-बिरंगे कपड़ों और अनोखी बोलियों के लिए जानी जाती है, बल्कि इनकी ज़िंदगी, सोच और संस्कृति भी बाकी देश से काफी हटके है.
नागा लोग असल में 16 से ज्यादा जनजातियों में बंटे हुए हैं, और हर एक की अपनी खास पहचान है.
नागा जनजाति के ज्यादातर लोग नागालैंड में रहते हैं. इसके अलावा मणिपुर, असम और अरुणाचल प्रदेश के कुछ इलाकों में भी इनकी अच्छी-खासी आबादी है.
नागालैंड के शहर जैसे कोहिमा और दीमापुर इनके प्रमुख ठिकाने हैं. हर जनजाति की अपनी अलग भाषा, पहनावा और रीति-रिवाज हैं.
नागाओं का सिस्टम कुछ हद तक मातृसत्तात्मक भी है, यानी कई मामलों में महिलाओं की अहम भूमिका होती है. गांवों में फैसले आमतौर पर बुजुर्गों की पंचायत में लिए जाते हैं.
नागा लोग अपने स्वाभिमान और आज़ादी को लेकर बहुत संवेदनशील हैं. यही वजह है कि इतिहास में इन्होंने कभी भी बाहरी दखल को सहन नहीं किया.
नागा जनजाति की अपनी अलग बोली है, जो ज़्यादातर कुकी-चिन-नागा भाषा समूह से आती हैं.
आपस में बात करने के लिए ये लोग एक नागामी क्रियोल अंग्रेजी भी बोलते हैं, जो थोड़ी अपनी तरह से ढाली गई इंग्लिश होती है.
नागा लोगों का फैशन से रिश्ता बहुत पुराना है, जैसे रंगीन धोती, सजीले स्कार्फ, सिर पर पंखों वाली टोपी और गहनों से भरा शरीर। हर चीज़ इनके गौरव और पहचान का हिस्सा होती है.
इनका खाना थोड़ा अलग हो सकता है, जैसे चावल, स्मोक्ड मीट(Smoked Meat), जंगली सब्जियां, इनके खाने का हिस्सा हैं. कई जगहों पर कुत्ते और सूअर का मांस भी खाते हैं. घर का बना चावल बीयर और जड़ी-बूटियों वाली चाय भी बहुत प्रसिद्ध है.
पुराने ज़माने में नागा जनजाति के लोग प्रकृति पूजक थे. इसका मतलब ये था कि वे पेड़-पौधों, नदियों, पहाड़ों और जानवरों को सिर्फ प्राकृतिक तत्व नहीं बल्कि देवता समझते थे.
उनके अनुसार प्रकृति के ये तत्व जीवन की रक्षा करते थे. हर चीज़ में एक आत्मिक शक्ति को मानना नागा समाज की सबसे पुरानी और गहरी मान्यता थी.

लेकिन 19वीं सदी के मध्य में, ब्रिटिश उपनिवेशकाल (colonial period) के दौरान, ईसाई मिशनरियों ने नागालैंड और आसपास के क्षेत्रों में अपना धर्म प्रचार शुरू किया.
उन्होंने नागा समुदाय में शिक्षा और चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध कराकर ईसाई धर्म को फैलाना शुरू किया.
मिशनरियों का प्रभाव इतना गहरा था कि धीरे-धीरे नागा लोगों ने अपने पारंपरिक प्रकृति पूजा के तरीके छोड़कर ईसाई धर्म अपना लिया।
आज के समय में लगभग 95% नागा लोग ईसाई धर्म के समर्थक हैं, जिसमें अधिकतर प्रोटेस्टेंट ईसाई हैं. उनके सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में चर्च का बड़ा महत्व है.
गॉस्पेल संगीत, जो ईसाई धर्म का हिस्सा है, नागा युवाओं में बहुत लोकप्रिय है, और यह उनकी पूजा-अर्चना का एक अहम हिस्सा बन चुका है.
इसके अलावा क्रिसमस, ईस्टर जैसे ईसाई त्योहार पूरे नागालैंड में बड़े धूमधाम से मनाए जाते हैं, जो अब नागा संस्कृति का मुख्य हिस्सा बन चुके हैं.
हालाँकि धार्मिक रूप से परिवर्तन हुआ, परंतु नागा लोगों के पारंपरिक त्योहार, नृत्य और रीति-रिवाज आज भी जीवित हैं और सांस्कृतिक, खुशहाली के प्रतीक बने हुए हैं.
नागा समुदाय सदियों से अपनी सांस्कृतिक पहचान और सामाजिक स्वतंत्रता को लेकर बेहद सजग रहा है.
1947 में जब भारत को ब्रिटिश शासन से आज़ादी मिली, ठीक उसी समय नागा नेताओं ने खुद को एक “स्वतंत्र राष्ट्र” घोषित कर दिया.
उनका तर्क था कि नागा लोग सांस्कृतिक, भाषाई और सामाजिक रूप से भारत से अलग हैं, इसलिए वे एक अलग राजनीतिक अस्तित्व के अधिकारी हैं.
इसके बाद भारत सरकार और नागा राजनीतिक संगठनों जैसे NNC – Naga National Council और बाद में NSCN( Naga National Socialist Council) के बीच कई दशकों तक टकराव और संघर्ष चला.
कुछ समय के लिए हथियारबंद संघर्ष, हिंसा और अलगाव की मांगें भी सामने आईं, जिससे क्षेत्र में अस्थिरता बनी रही.
हालांकि, 1997 से भारत सरकार और नागा समूहों के बीच शांति वार्ता का दौर शुरू हुआ. NSCN और अन्य समूहों के साथ बातचीत के ज़रिए अब नागालैंड में स्थिरता की कोशिशें की जा रही हैं.
नागालैंड के त्योहारों में उनकी संस्कृति की गहराई, रंग-बिरंगी समुदाय की एकजुटता साफ दिखाई देती है. सबसे मशहूर त्योहार है हॉर्नबिल फेस्टिवल, जिसे हर साल दिसंबर में कोहिमा के किसामा हेरिटेज विलेज में बड़े धूमधाम से मनाया जाता है.
यह सिर्फ एक सांस्कृतिक आयोजन नहीं, बल्कि 16 से अधिक नागा जनजातियों की साझा विरासत का उत्सव है. यहां पारंपरिक पहनावे, लोक संगीत, जनजातीय नृत्य, हस्तशिल्प, हथियारों की प्रदर्शनी, नागा व्यंजन, सब कुछ एक ही मंच पर नजर आते हैं.
नागा योद्धाओं की पारंपरिक युद्ध टोपी (Warrior Headgear)

नागा जनजातियों की पारंपरिक टोपी न केवल एक पहनावा होती थी, बल्कि यह उनके समाज में सम्मान, वीरता और पहचान का प्रतीक मानी जाती थी.
खासकर जब नागा योद्धा युद्ध या शिकार पर जाते थे, तो वे एक विशेष प्रकार की टोपी पहनते थे,
यह टोपी आमतौर पर बाँस या बेंत से बनाई जाती थी, और उसमें सींग, हॉर्नबिल पक्षी की चोंच, सूअर के दांत, जंगली जानवरों के बाल, यहां तक कि इंसानी बाल तक सजावट के रूप में लगाए जाते थे.
ये सभी चीजें योद्धा की लड़ाइयों, शिकार और साहसिक उपलब्धियों का प्रतीक होती थीं। टोपी का आकार शंकु जैसा होता था और उसे बड़े गर्व से पहना जाता था।
इस तरह की पारंपरिक टोपी केवल उन्हीं पुरुषों को पहनने की अनुमति है, जिन्होंने समाज में अपनी बहादुरी का प्रमाण दिया हो.
नागालैंड की कई जनजातियों में इस टोपी का अलग-अलग रूप होता है. जैसे कोंयाक, अंगामी, आओ, यिम्मखिउंग और सेमा जनजातियों की पारंपरिक टोपियाँ अपने-अपने तरीके से बनाई जाती थीं.
इनके डिजाइन, रंग, सजावट और प्रतीकों में अंतर होता था, लेकिन उद्देश्य एक ही होता है.
आज के समय में ऐसी पारंपरिक टोपियाँ धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही हैं. असली जानवरों के अंगों की जगह अब प्लास्टिक से बनी सजावटी टोपियाँ उपयोग में लाई जाती हैं.
इन्हें अधिकतर त्योहारों, विशेषकर “हॉर्नबिल फेस्टिवल” के दौरान पहनकर नागा संस्कृति और परंपरा को जीवित रखा जाता है.
हालांकि अब ये टोपियाँ आम उपयोग की चीज़ नहीं रहीं, लेकिन इनका ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व आज भी नागा समाज की पहचान का अहम हिस्सा है.