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मध्य प्रदेश: आदिवासी की हत्या में दोषियों को बचाने की कोशिशें हो रही हैं

मध्य प्रदेश में सरकार लगातार आदिवासियों के लिए बड़े बड़े आयोजन कर रही है. इसके अलावा एक बाद एक घोषणाएँ भी आदिवासी विकास के लिए की जा रही हैं. लेकिन राज्य आदिवासियों पर अत्याचार के मामले में देश पर में अव्वल है. यहाँ आदिवासी को सहज इंसाफ़ की उम्मीद नहीं रहती है.

9 अगस्त को मध्य प्रदेश के विदिशा ज़िला में लटेरी के पास वन विभाग के कर्मचारी की फायरिंग में एक आदिवासी की मौत हो गई. चैनसिंह भील नाम के इस आदिवासी की उम्र 35 साल बताई गई थी. 

जिस दिन आदिवासी पर गोली चलाने की घटना हुई उस दिन दुनिया भर में विश्व आदिवासी दिवस मनाया जा रहा था. चैनसिंह भील की मौत की घटना में इंसाफ़ मांगने के लिए उनके परिवार और गांव के लोगों ने थाने का घेराव कर लिया.

इस प्रदर्शन में कई सामाजिक कार्यकर्ता भी शामिल हुए. विश्व आदिवासी दिवस के दिन एक आदिवासी की गोली मार कर हत्या की चारों तरफ निंदा हुई. 

इस मामले में ज़िला प्रशासन ने काफी फुर्ती से कार्रावाई की और एफआईआर दर्ज कर ली. इसके अलावा प्रशासन की तरफ से आश्वासन दिया गया कि दोषी वन विभाग कर्मचारियों को निलंबित कर गिरफ्तार किया जाएगा.

प्रशासन ने चैनसिंह भील और दूसरे घायल हुए आदिवासी परिवारों को मुआवज़ा देने की घोषणा भी की. इस घोषणा में चैनसिंह के परिवार को एक सरकारी नौकरी देने का वादा भी शामिल था. 

इस सिलसिले में 12 अगस्त को डिप्ची रेंजर निर्मल कुमार अहिरवार को गिरफ्तार भी कर लिया गया. प्रशासन ने जिस मुस्तैदी से इस पूरे मामले में काम किया था उससे लगा था कि आदिवासियों के मामले में अब मध्यप्रदेश प्रशासन संजीदा हो रहा है.

लेकिन अब लगता है कि इस पूरे मामले में शुरूआती तेज़ी सरकार और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की छवि को बचाने के लिए था. क्योंकि यह मुख्यमंत्री शिवराज चौहान का पुराना संसदीय क्षेत्र है और राजधानी भोपाल से सटा हुआ इलाका है.

इस मामले में एक गिरफ्तारी के बाद वन विभाग ने प्रशासन पर दबाव बढ़ाया है. वन विभाग ने आरोप लगाया है कि आदिवासी जंगल से लकड़ी की तस्करी में शामिल हैं. 

यह भी जानकारी मिली है कि वन मंत्री विजय शाह ने वनकर्मियों को आश्वासन दिया है कि जब तक इस मामले में आयोग की रिपोर्ट नहीं आ जाती है किसी और की गिरफ्तारी नहीं होगी. 

यानि फ़िलहाल वन विभाग ने पूरा मामला आदिवासियों के ही खिलाफ खड़ा करने में कामयाबी पा ली है. इस मामले में एक नागरिक जांच दल ने पूरे मामले की पड़ताल करते हुए एक रिपोर्ट तैयार की है.

इस जांच दल में जागृत आदिवासी दलित संगठन की माधुरी एवं नितिन, राष्ट्रीय आदिवासी क्रांतिकारी संघ के सुनील कुमार आदिवासी, नर्मदा बचाओ आंदोलन की चित्तरूपा पालित एवं प्रमिला और स्वतंत्र पत्रकार रोहित शामिल थे.

चैनसिंह भील का परिवार

इस जांचदल ने पाया है कि वनकर्मियों के दावे पूरी तरह से गलत हैं और आदिवासियों पर गोली चलाने को किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता है. 

इस जांच दल में शामिल जागृत आदिवासी दलित संगठन माधुरी ने MBB से बात करते हुए कहा, “प्रशासन जिस तरह से आदिवासियों को ही दोषी और तस्कर ठहराने की कोशिश कर रहा है वह बेहद शर्मनाक है. उन्होंने कहा कि जांच दल की पड़ताल में कोई ऐसा सबूत सामने नहीं आया जिससे वन विभाग के दावों को सही माना जा सकता है. “

उन्होंने इस बारे में बात करते हुए आगे कहा, “इस पूरे मामले को अब ठंडे बस्ते में डालने की कोशिश नज़र आती है. कितने अफ़सोस की बात है कि मध्य प्रदेश के खंडवा में आदिवासी जंगल काटने का विरोध कर रहे हैं, लेकिन प्रशासन उनकी नहीं सुन रहा है. इधर विदिशा में आदिवासी को ही तस्कर साबित करने की कोशिश की जा रही है.”

जांच रिपोर्ट साझा करते हुए माधुरी ने बताया कि पीड़ितों और प्रशासनिक अधिकारियों से मिलने के बाद यह निष्कर्ष सामने आया कि वन कर्मियों द्वारा फ़ायरिंग पूरी तरह से गलत और आदिवासियों पर अत्याचार था. 

वनकर्मियों का दावा है कि उन पर पथराव हुआ था, लेकिन इसका कोई भी सबूत नहीं है और न कोई भी वनकर्मी घायल हुआ. यदि पथराव की परिस्थिति होती, तो भी उन्हें चेतावनी दे कर हवाई फ़ायरिंग करनी थी, लेकिन उन्होंने चैन सिंह के मुंह पर टॉर्च की रोशनी मार कर सीधा फ़ायरिंग किया. 

चैन सिंह के फेफड़े और पेट में गोली लगने से मौके पर ही मौत हो गई. इसके बाद भी वनकर्मियों ने फिर से कई बार फ़ायरिंग किया, जिससे चैन सिंह के भाई गंभीर रूप से घायल हो कर बेहोश हो गए. उनके अलावा भी पीछे से आ रहे कई आदिवासी भी घायल हो गए.

जाँचदल को कलेक्टर, एसडीओ (वन) और ग्रामीणों ने बताया कि मध्यप्रदेश के गुना, राजगढ़ और इनसे सटे राजस्थान के जिलों से लकड़ी की तस्करी हो रही है. लेकिन वनकर्मियों द्वारा पीड़ितों को आदतन अपराधी बता कर हत्या और हत्या के प्रयास एवं अत्याचार के मामले में कार्यवाही शिथिल करवाना चाह रहे हैं. 

जाँचदल ने पाया है कि पीड़ितों के आपरधिक रिकॉर्ड नहीं हैं. सिर्फ चैन सिंह पर पिछले साल का एक ही मामला है, जिसमें अभी विवेचना जारी है.  उस मामले के बारे में परिवार का कहना है कि वनकर्मी उनकी मोटरसाइकल घर से उठा कर ले गए और अभी उसे तस्करी कार्यवाही मे ज़ब्त बता रहे हैं. 

ज़िला कलेक्टर उमा शंकर भार्गव ने भी स्पष्ट तौर पर बताया कि संबंधित आदिवासी समूह आदतन अपराधी या क्रिमिनल प्रवृत्ति के नहीं हैं . उन्होंने यह माना कि इस मामले के पीड़ितों के तस्करी में भागीदारी संबंधित कोई भी जानकारी उनके पास नहीं है. 

इससे यह स्पष्ट है कि वन विभाग असली वन तस्करी माफिया पर अंकुश लगाने के बजाए आदिवासियों को बलि का बकरा बना रहा है। माधुरी ने यह आरोप लगाया कि वन विभाग द्वारा जिस पैमाने पर लकड़ी तस्करी बताया जा रहा है, वह वनकर्मियों के मिलीभगत से ही संभव है.

 माधुरी कहती हैं कि न्यायिक जांच के बहाने मध्यप्रदेश शासन द्वारा हत्या, हत्या के प्रयास और अत्याचार के लिए दोषी वनकर्मियों पर कार्यवाही को ठंडे बस्ते में डालने की मंशा दिख रही है. न्यायिक जांच पुलिस अनुसंधान का हिस्सा या पूरक हो सकता है, लेकिन, उसका विकल्प नहीं. 

एक साल पहले खरगोन में बिस्टान थाने के पुलिस कर्मियों द्वारा मार पीट के कारण 7 सितंबर 21 को बिशन भील की मौत पर न्यायिक जांच के बहाने दोषी पुलिसकर्मियों पर कार्यवाही रोकी गई थी. बाद में न्यायिक जांच में मृत्यु का कारण पुलिस प्रताड़ना बताए जाने के बाद भी आज तक कोई भी पुलिस कर्मी गिरफ्तार नहीं हुआ है. 

बिशन भील की हत्या के एक सप्ताह बाद खंडवा के ओंकारेश्वर थाना में एक और आदिवासी किशन निहाल की हत्या का भी यही हश्र हुआ है.

उन्होंने बताया कि मध्यप्रदेश सरकार द्लगातार आदिवासी हितैषी होने का दावा तो कर रही है लेकिन पूरे प्रदेश में आदिवासियों पर अत्याचार के मामले थम नहीं रहे. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार 2021 में मध्यप्रदेश में आदिवासी उत्पीड़न के 2,627 केस दर्ज किए गए हैं, जो कि पूरे भारत में सबसे ज्यादा हैं. 

जाँचदल में शामिल संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने मांग की कि विदिशा के इस मामले में सरकार अपने वायदे के अनुसार उस दिन गश्त पर गए सभी वनकर्मियों पर एफ.आई.आर दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार करे और चैन सिंह के परिवार के आश्रित को जल्द शासकीय नौकरी दे.

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