HomeIdentity & Lifeमणिपुर क्यों जल रहा है? आदिवासियों का विरोध किस बारे में है?

मणिपुर क्यों जल रहा है? आदिवासियों का विरोध किस बारे में है?

मैती समुदाय मणिपुर का एक प्रभावशाली समुदाय है जो अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल किये जाने की मांग कर रहा है. राज्य के पहाड़ी इलाकों में रहने वाले जनजातीय समुदाय इस बात से काफी असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. क्योंकि हाईकोर्ट ने भी इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए कहा था कि सरकार बिना देरी के मैती समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल करने के मुद्दे पर स्थिति स्पष्ट करे.

मणिपुर एक बार फिर से हिंसा की आग में जल रहा है. इस बीच हिंसा से बिगड़ते हालात और आगजनी की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए राज्यपाल ने उपद्रवियों को देखते ही गोली मारने के आदेश जारी किए हैं.

उन्होंने नोटिस जारी कर कहा, ‘‘सभी जिलाधिकारियों, उप-विभागीय मजिस्ट्रेटों और सभी कार्यकारी मजिस्ट्रेटों/विशेष कार्यकारी मजिस्ट्रेटों को अत्यधिक मामलों में जहां सभी प्रकार के अनुनय, चेतावनी, उचित बल आदि का प्रयोग किया गया हो को देखते ही गोली मारने के आदेश जारी किया जाता है.’’

तीन मई को मणिपुर हाई कोर्ट के एक आदेश के बाद से पूरा राज्य हिंसा की आग में समा गया है. हिंसा की वजह से अब तक 9 हज़ार लोग विस्थापित हुए हैं.

दरअसल, 3 मई को ऑल ट्राइबल स्टूडेंट यूनियन मणिपुर (ATSUM) द्वारा बुलाए गए ‘आदिवासी एकजुटता मार्च’ के दौरान चुड़ाचांदपुर जिले के तोरबंग इलाके में इंफाल घाटी में मैती बहुल वाले समुदाय को अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा देने की मांग के विरोध में हिंसा भड़क गई थी.

मणिपुर के कई जिलों में जनजातीय समूहों द्वारा रैलियां निकालने के बाद बिगड़ती कानून-व्यवस्था की स्थिति से निपटने के लिए राज्य सरकार ने राज्य में मोबाइल इंटरनेट को पांच दिनों के लिए सस्पेंड कर दिया है. इसके साथ बड़ी संख्या में लोगों के जमा होने पर प्रतिबंध और राज्य के आठ जिलों में कर्फ्यू लगा दिया गया है.

हालात को देखते हुए गैर-जनजातीय बहुल वाले इंफाल पश्चिम, काकचिंग, थाउबल, जिरीबाम और बिष्णुपुर जिलों में और जनजातीय बहुल वाले चूड़ाचंदपुर, कांगपोकपी और तेंगनोपाल में कर्फ्यू लगाया गया है.

राज्य में स्थिति को नियंत्रित करने के लिए भारतीय सेना और असम राइफल्स को तैनात किया गया है. तोरबंग में तीन घंटे से अधिक समय तक चली आगजनी में कई दुकानों और घरों में तोड़फोड़ की गई और आग लगा दी गई. स्थिति को नियंत्रण में रखने के लिए राज्य पुलिस ने सेना और असम राइफल्स के साथ फ्लैग मार्च किया.

राज्य में इस हिंसा की शुरुआत पिछले हफ्ते ही हो गई थी. पिछले सप्ताह उस स्थान पर पहली बार झड़पें हुईं थी जहां मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह एक कार्यक्रम में शामिल होने वाले थे. वहां पर काफी तोड़फोड़  हुई थी. इसके बाद अगले कुछ दिनों में आगजनी और झड़पें हुईं. आदिवासी समुदायों के साथ एकजुटता में ऑल ट्राइबल स्टूडेंट यूनियन मणिपुर द्वारा आयोजित एक विरोध मार्च के बाद इस सप्ताह यह फिर से शुरू हुआ.

विरोध और हिंसा की वजह?

मणिपुर में बीजेपी की अगुआई वाली सरकार ने फ़रवरी महीने में संरक्षित इलाक़ों से अतिक्रमण हटाना शुरू किया था तभी से तनाव शुरू हो गया था. लोग सरकार के इस रुख़ का विरोध कर रहे थे लेकिन हालात बेकाबू 3 मई को मणिपुर हाई कोर्ट के एक आदेश से हुआ.

हाई कोर्ट ने सरकार को निर्देश दिया था कि वह 10 साल पुरानी सिफ़ारिश को लागू करे जिसमें गैर-जनजाति मैती समुदाय को जनजाति में शामिल करने की बात कही गई थी.

दरअसल 19 अप्रैल को मणिपुर उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को चार सप्ताह के भीतर मैती समुदाय को अनुसूचित जनजाति (एसटी) श्रेणी में शामिल करने के अनुरोध पर विचार करने के लिए कहा था.

कोर्ट ने अपने आदेश में केंद्र सरकार को भी इस पर विचार के लिए एक सिफ़ारिश भेजने को कहा था. इसी के विरोध में ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन मणिपुर ने बुधवार को राजधानी इंफ़ाल से करीब 65 किलोमीटर दूर चुराचांदपुर ज़िले के तोरबंग इलाक़े में ‘आदिवासी एकजुटता मार्च’ रैली का आयोजन किया था. 

इस रैली में हज़ारों की संख्या में लोग शामिल हुए थे. कहा जा रहा है कि इसी दौरान हिंसा भड़क गई. चुराचांदपुर ज़िले के अलावा सेनापति, उखरूल, कांगपोकपी, तमेंगलोंग, चंदेल और टेंग्नौपाल सहित सभी पहाड़ी ज़िलों में इस तरह की रैली निकाली गई थीं.

पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि तोरबंग इलाक़े में ‘आदिवासी एकजुटता मार्च’ रैली में हज़ारों आंदोलनकारियों ने हिस्सा लिया था, जिसके बाद जन-जातीय समूहों और ग़ैर-जनजातीय समूहों के बीच झड़पें शुरू हो गईं.

सबसे ज्यादा हिंसक घटनाएं विष्णुपुर और चुराचांदपुर जिले में हुईं हैं. जबकि राजधानी इंफ़ाल से भी गुरुवार सुबह हिंसा की कई घटनाएं सामने आईं हैं.

मैती समुदाय का तर्क

मैती ट्राइब यूनियन की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए मणिपुर हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को 19 अप्रैल को 10 साल पुरानी केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय की सिफ़ारिश प्रस्तुत करने के लिए कहा था. इस सिफारिश में मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा देने के लिए कहा गया है.

कोर्ट ने मई 2013 में जनजाति मंत्रालय के एक पत्र का हवाला दिया था. इस पत्र में मणिपुर की सरकार से सामाजिक और आर्थिक सर्वे के साथ जातीय रिपोर्ट के लिए कहा गया था.

शिड्यूल ट्राइब डिमांड कमिटी ऑफ मणिपुर यानी एसटीडीसीएम 2012 से ही मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा देने की मांग कर रहा था. याचिकाकर्ताओं ने हाई कोर्ट में बताया कि 1949 में मणिपुर का भारत में विलय हुआ था उससे पहले मैतेई को यहां जनजाति का दर्जा मिला हुआ था.

इनकी दलील थी कि मैतेई को जनजाति का दर्जा इस समुदाय, उसके पूर्वजों की जमीन, परंपरा, संस्कृति और भाषा की रक्षा के लिए ज़रूरी है.

एसटीडीसीएम ने यह भी कहा था कि मैतेई को बाहरियों के अतिक्रमण से बचाने के लिए संवैधानिक कवच की ज़रूरत है. इनका कहना है कि मैतेई को पहाड़ों से अलग किया जा रहा है जबकि जिन्हें जनजाति का दर्जा मिला हुआ है वो सिकुड़ते इंफाल वैली में जमीन खरीद सकते हैं.

मैती समुदाय और पहाड़ी जनजातियों के बीच का विवाद

मणिपुर के 10 प्रतिशत भूभाग पर गैर-जनजाति मैती समुदाय का दबदबा है. मणिपुर के कुल 60 विधायकों में 40 विधायक इसी समुदाय से हैं.90 प्रतिशत पहाड़ी भौगोलिक क्षेत्र में प्रदेश की 35  प्रतिशत मान्यता प्राप्त जनजातियां रहती हैं.

लेकिन इन जनजातियों से सिर्फ 20 विधायक ही विधानसभा पहुँचते हैं.

जिन 33 समुदायों को जनजाति का दर्जा मिला है वे नगा और कुकी जनजाति के रूप में जाने जाते हैं. ये दोनों जनजातियां मुख्य रूप से ईसाई हैं. मणिपुर की आबादी लगभग 28 लाख है. इसमें मैती समुदाय के लोग लगभग 53 प्रतिशत हैं. 

ये लोग मुख्य रूप से इंफाल घाटी में बसे हुए हैं. मैती समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने का विरोध कर रही जनजातियों में कुकी एक समूह है जिसमें कई जनजातियां शामिल हैं.

मणिपुर में मुख्य रूप से पहाड़ियों में रहने वाली विभिन्न कुकी जनजातियां वर्तमान में राज्य की कुल आबादी का 30 प्रतिशत हैं.

पहाड़ी इलाकों में बसी इन जनजातियों का कहना है कि मैती समुदाय को आरक्षण देने से वे सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में दाखिले से वंचित हो जाएंगे क्योंकि उनके मुताबिक मैतेी लोग अधिकांश आरक्षण को हथिया लेंगे.

मणिपुर में हो रही इस ताजा हिंसक घटनाओं ने राज्य के मैदानी इलाकों में रहने वाले मैती समुदाय और पहाड़ी जनजातियों के बीच पुरानी जातीय दरार को फिर से खोल दिया है.

मणिपुर के मौजूदा जनजाति समूहों का कहना है कि मैती का जनसांख्यिकी और सियासी दबदबा है. इसके अलावा ये पढ़ने-लिखने के साथ अन्य मामलों में भी आगे हैं.

यहां के जनजाति समूहों को लगता है कि अगर मैती को भी जनजाति का दर्जा मिल गया तो उनके लिए नौकरियों के अवसर कम हो जाएंगे और वे पहाड़ों पर भी ज़मीन खरीदना शुरू कर देंगे. ऐसे में वे और हाशिए पर चले जाएंगे.

ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ़ मणिपुर का कहना है कि मैती समुदाय की भाषा संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल है और इनमें से कइयों को अनुसूचित जाति, पिछड़ी जाति और इकोनॉमिकली वीकर सेक्शन यानी ईडब्ल्यूएस का फायदा मिल रहा है. उनका कहना है कि मैतेई आदिवासी नहीं हैं वे एससी, ओबीसी और ब्राह्मण हैं.

मैती समुदाय को एसटी दर्जा दिए जाने का विरोध कर रहे लोगों का कहना है कि अगर मैती समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दे दिया गया तो उनकी जमीनों के लिए कोई सुरक्षा नहीं बचेगी और इसलिए वो अपने अस्तित्व के लिए छठी अनुसूची चाहते हैं.

एक संवेदनशील मुद्दा और तुष्टिकरण की नीति

किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल किया जाना एक पेचीदा प्रक्रिया बताई जाती है. लेकिन वास्तव में एक राजनीतिक फैसला है.

पिछले एक साल में केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने कई राज्यों की अनुसूचित जनजाति की सूचि में कमियों को दुरूस्त करने के लिए संसद में कई बिल पेश किये.

इसके अलावा कई ने समुदायों को भी अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने के लिए बिल लाए गए. संसद में जब भी ऐसा कोई बिल आया तो बहस के दौरान यह बात बार-बार सामने आई कि सरकार इस मामले में एक व्यापक शोध कराए और एक निश्चित प्रक्रिया तय की जाए.

संसद में कई विपक्षी दलों ने सरकार को सलाह दी थी कि देश भर में अलग अलग आदिवासी समुदयाों को अनुसूचित जनजाति की सूची मे शामिल करने की मांग होती रही है. इसलिए यह ज़रूरी है कि इस संबंध में नीतिगत फैसला किया जाए. 

लेकिन सरकार ने विपक्ष की तरफ से दिए गए महत्वपूर्ण सलाह को हर बार खारिज कर दिया. इसका परिणाम ये है कि मणिपुर ही नहीं बल्कि असम, ओडिशा और झारखंड में भी यह मसला बड़ा बन गया है. 

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