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‘पेसा’ (PESA) ने आदिवासियों को दिलाई बड़ी जीत, 245 गाँव को चैन मिला

जब नागरिकों को क़ानूनी अधिकार दिए जाते हैं तो यह एक तरह के उसके हक़ों की रक्षा की गारंटी होती है. 'पेसा' क़ानून का मतलब आदिवासी इलाक़ों में उनके संसाधनों और प्रशासनिक व्यवस्था पर नियंत्रण है. यह क़ानून कितना असरदार हो सकता है झारखंड से एक बेहतरीन उदाहरण सामने आया है.

बरदोनी काला गाँव के प्रधान कर्नेलियस मिंज ने MBB से बात करते हुए कहा, “हम लोगों को यह समझ आया कि यह अनुसूची 5 (Schedule 5) क्षेत्र है और हमें पेसा कानून में दिए अधिकारों का इस्तेमाल कर अपनी ज़मीन बचानी चाहिए. उसके बाद हमने ग्रामसभाओं में प्रस्ताव पारित किया और सरकार को इस बारे में सूचित किया.”

वो आगे कहते हैं, “फ़ायरिंग रेंज में आने वाले सभी गाँवों की पंचायतों ने साथ आ कर इस मसले से निपटने का फ़ैसला किया. हम पिछले 30 साल से इस मसले पर आंदोलन कर रहे थे. लेकिन उसका कोई असर नहीं हो रहा था. हमें कहीं से ठोस आश्वासन नहीं मिल रहा था. लेकिन पेसा के तहत ग्राम सभाओं के प्रस्ताव का असर हुआ है.”

उनसे हमारी ये बातें नेतरहाट फील्ड फ़ायरिंग रेंज (Netarhat Field Firing Range) के सिलसिले में हो रही थीं. पिछले बुधवार झारखंड सरकार ने नेतरहाट फील्ड फ़ायरिंग रेंज (Netarhat Field Firing Range) को फिर से सेना को देने से मना कर दिया है. 

यह फ़ायरिंग रेंज झारखंड के दो ज़िलों में क़रीब 1470 वर्ग किलोमीटर में फैली है. इस फ़ायरिंग रेंज के दायरे में कम से कम 245 गाँव आते हैं. लातेहार और गुमला जिले के इन गाँवों के आदिवासी कई सालों से यह माँग कर रहे थे कि यहाँ की ज़मीन फ़ायरिंग रेंज के लिए फिर से ना दी जाए. 

साल 1964 में बनाई गई नेतरहाट फ़ायरिंग रेंज में 1994 तक यानि क़रीब 30 साल तक सेना अभ्यास करती रही थी. लेकिन उसके बाद आदिवासियों ने इस फ़ायरिंग रेंज का विरोध शुरू कर दिया. 

आदिवासियों के विरोध की वजह से सेना यहाँ पर पिछले 3 दशक से फ़ायरिंग का अभ्यास नहीं कर पाई है. लेकिन इस रेंज में पड़ने वाले गाँवों को कोई ठोस आश्वासन भी सरकार से नहीं मिल रहा था.

आदिवासी लगातार इस आशंका के साथ जी रहे थे कि सरकार यह ज़मीन पूरी तरह से सेना को दे सकती है. इस तरह की ख़बरें जब भी आती तो आदिवासी आंदोलन और तेज़ करते थे.

लेकिन 30 साल बाद 1996 में बने पेसा क़ानून के तहत दिए गए अपने अधिकारों का इस्तेमाल करके ग्राम सभाओं ने इस डर से मुक्ति पा ली है. 39 ग्राम सभाओं के ज्ञापन के बाद झारखंड सरकार ने फ़ैसला लिया है कि अब नेतरहाट फ़ायरिंग रेंज के लिए ज़मीन को नहीं दिया जाएगा.

सरकार की तरफ़ से जारी एक प्रैस विज्ञप्ति में कहा गया है, “हज़ारों आदिवासियों का 30 साल का संघर्ष अब समाप्त होगा. मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने नेतरहाट फ़ायरिंग रेंज को फिर से नोटीफाइ ना करने का फ़ैसला किया है. यह फ़ायरिंग रेंज 1964 में शुरू हुई थी.”

आदिवासियों के 30 साल के संघर्ष के बारे में MBB से बात करते हुए केंद्रीय जन संघर्ष समिति के महासचिव जेरोम कुजुर ने कहा, “1994 में हमें पता चला कि सरकार आदिवासी गाँवों को विस्थापित कर इस ज़मीन को सेना के हवाले करने की योजना पर काम कर रही है. इसके विरोध में हमने नेतरहाट से राँची तक 200 किलोमीटर की पदयात्रा की थी.”

वो कहते। हैं, “अंततः क़ानून में आदिवासी क्षेत्रों के लिए बने विशेष क़ानून पेसा ने हमारी मदद की है. यह अनुसूची 5 का क्षेत्र है और यहाँ पर पेसा लागू होता है. इस इलाक़े की ग्राम सभाओं ने फ़ायरिंग रेंज के लिए अपनी ज़मीन नहीं देने के प्रस्ताव पास किये. इसके बाद इसका ज्ञापन गवर्नर और सेना दोनों को भेजा गया.”

इस पूरे मसले को समझाते हुए उन्होंने हमें बताया कि 1954 में पहले 7 राजस्व गाँवों (revenue village) की ज़मीन पर फ़ायरिंग रेंज बनाई गई थी. उस समय इस रेंज का दायरा मात्र 8 किलोमीटर था.

साल 1992 में सेना को यहाँ पर 2002 तक फ़ायरिंग अभ्यास करने की अनुमति दे दी गई. इसके साथ ही रेंज का क्षेत्र 245 गाँवों की ज़मीनों तक बढ़ा दिया गया. 

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