जब वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2023 को लोकसभा में पेश किया गया था उसके साथ ही वन अधिकार कार्यकर्ताओं और पर्यावरणविदों ने चिंताओं की घंटी बजा दी थी.
अब फिर से वन अधिकार कार्यकर्ताओं ने वन संरक्षण (संशोधन) विधेयक 2023 (Forest Conservation (Amendment) Bill 2023) की कड़ी आलोचना की है. उन्होंने इस बात पर जोर दिया है कि यह सरकारी और निजी क्षेत्रों को भूमि हस्तांतरण की अनुमति देकर जनजातीय लोगों के अधिकारों को छीन लेता है.
मंगलवार को दिल्ली में एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए भूमि अधिकार आंदोलन (Bhoomi Adhikar Andolan) के संगठनों ने कहा कि मौजूदा अधिनियम की परिभाषा और दायरे को कॉर्पोरेट क्षेत्र के हितों के अनुरूप बदल दिया गया है.
भूमि अधिकार आंदलोन देश के अलग अलग इलाकों में भूमि अधिकारों के सवाल पर काम करने वाले व्यक्तियों, समूहों और यूनियनों का एक मंच है. यह संगठन भूमि अधिग्रहण अधिनियम पर संघर्ष के बाद अस्तित्व में आया.
बीएए की मांग है कि प्रस्तावित वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2023 को तत्काल वापस लिया जाए या फिर से इस पर विचार किया जाए.
इस अधिनियम को वन अधिकार अधिनियम (Forest Rights Act) के प्रावधानों के अनुरूप बनाया जाना चाहिए ताकि ग्राम सभा के प्राथमिक अधिकार को संरक्षित करने और वन अधिकारों को सुनिश्चित करने के कानूनी जनादेश की पूर्ति के अनुपालन के लिए एक अधिक मजबूत कानूनी तंत्र सुनिश्चित किया जा सके.
इसके साथ ही वन भूमि के किसी भी डायवर्जन से पहले ग्राम सभाओं के पास निर्णय लेने का अधिकार हो. उन्होंने भूमि अधिकारों की मांगों को मजबूत करने के लिए ब्लॉक और जिला स्तर पर राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन के साथ 30 जून 2023 को “ब्लैक डे” का भी आह्वान किया है.
अखिल भारतीय किसान सभा (All India Kisan Sabha) के उपाध्यक्ष हन्नान मोल्लाह ने कहा कि एनडीए सरकार ने पिछले नौ वर्षों में लगातार ऐसे फैसले लिए हैं जो आम जनता के खिलाफ हैं, चाहे कृषि कानून हों या अन्य कानूनी बदलाव.
उन्होंने कहा कि प्रस्तावित परिवर्तन एफआरए की भावना के खिलाफ हैं, जिसने औपनिवेशिक और बाद की स्वतंत्र सरकारों द्वारा जनजातीय लोगों पर ऐतिहासिक गलतियों को उलट दिया.
उन्होंने कहा कि प्रस्तावित संशोधन पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम (पेसा) 1996, राष्ट्रीय वन नीति 1988 और एफआरए 2006 के तहत ग्राम सभाओं के अधिकारों को छीनते हैं.
बिल की धारा 1ए (2) की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि इसमें वन भूमि की श्रेणियों की एक विस्तृत श्रृंखला को छूट दी गई है जो एफआरए का उल्लंघन करती है. ये ग्राम सभा की शक्ति को कम करती है जो सभी वन भूमि पर शासन करती है. वन भूमि को हटाने से पहले ग्राम सभा की सहमति की आवश्यकता होती है.
उन्होंने कहा, “वर्तमान केंद्र सरकार एफआरए की अवहेलना करते हुए वन और वन भूमि के डायवर्जन को निजी एजेंसियों को रैखिक परियोजनाओं, खनिज पूर्वेक्षण, खनन पट्टों का ग्रांट, भूमि बैंकों के निर्माण और “सैद्धांतिक रूप से” स्टेज 1 की मंजूरी को पूरी तरह से आसान बनाती है.”
वहीं ऑल इंडिया यूनियन फ़ॉर फ़ॉरेस्ट वर्किंग पीपल की रोमा मलिक ने कहा कि बिल, एक सामान्य अधिनियम के रूप में पेश किया गया जबकि वन अधिकार अधिनियम, एक विशेष अधिनियम का उल्लंघन करता है.
उन्होंने कहा, “वन अधिकार अधिनियम औपनिवेशिक काल में आदिवासी आबादी के साथ किए गए अन्याय को दोहरा रहा है. वन विभाग भूमि का सबसे बड़ा मालिक बना हुआ है और लाखों आदिवासी परिवारों को शक्तिहीन बना रहा है.”
उन्होंने आगे कहा कि संशोधन से बड़े पैमाने पर वनों की कटाई और पर्यावरण का क्षरण होगा, जैव विविधता में गड़बड़ी होगी और वन-निर्भर समुदायों की आजीविका प्रभावित होगी. प्रस्तावित संशोधन कॉर्पोरेट-समर्थक, उद्योग-समर्थक, निजीकरण-समर्थक और नौकरशाही-समर्थक नियंत्रित है. जो स्पष्ट रूप से ग्राम सभाओं से वनों के लोकतांत्रिक शासन को स्थानांतरित कर रहे हैं.
केंद्र सरकार के मुताबिक बिल की 5 बड़ी बातें
- सरकार के मुताबिक, विधेयक विभिन्न भूमि पर वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 के प्रावधानों के दायरे को स्पष्ट करना चाहता है. यह कानून के दायरे को और व्यापक बनाना चाहता है. 2030 तक भारत वन क्षेत्र को इतना बढ़ाना चाहता है कि 2.5-3.0 बिलियन अतिरिक्त टन कार्बन पेड़ों के रूप में जमा हो जाए.
- यह बिल अंतरराष्ट्रीय सीमाओं या नियंत्रण रेखा (एलओसी) से लगे 100 किमी के भीतर सहित कुछ वन भूमि को छूट प्रदान करता है. यह प्रावधान राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित राष्ट्रीय महत्व की सामरिक परियोजनाओं को तैयार करने में लचीलापन लाने में मददगार होगा.
- नए कानून के दायरे में रेल लाइन और सड़कों के दोनों तरफ मौजूद पेड़-पौधे और निजी भूमि पर वृक्षारोपण आते हैं जिन्हें वन के रूप में परिभाषित नहीं किया जाता है.
- बिल कानून में एक प्रस्तावना का भी प्रावधान है जिसमें कहा गया है कि देश में वनों के पारंपरिक संरक्षण, उनकी जैव विविधता और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने की देश की समृद्ध परंपरा सम्मिलित हो.
- कानून के तहत प्रस्तावित छूटों का जहां तक सवाल है, यह पेड़ों की कटाई के एवज में वृक्षरोपन की शर्त सहित पूरा नियम दर्शाता है.
लेकिन जहां एक तरफ केंद्र सरकार इस बिल के फायदों को गिना रहा है वहीं विपक्ष वन अधिकार कार्यकर्ता और पर्यावरणविद इसकी खामियां बता रहे हैं.
वन संरक्षण (संशोधन) विधेयक 2023 की खामियां
बिल के लिए पहली और सबसे महत्वपूर्ण आपत्ति यह है कि विधेयक को छानबीन के लिए संसद की स्थायी समिति की बजाय, संयुक्त (चयन) समिति के पास भेजा गया.
दरअसल, वन संरक्षण अधिनियम 1980 में संशोधन वाले विधेयक को संसद के पटल पर रखने के बाद आश्चर्यजनक रूप से सरकार ने विधेयक को दोनों सदनों के सदस्यों वाली एक संयुक्त समिति को भेज दिया.
जब पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MOEFCC) से जुड़े सभी मुद्दों के लिए संसद की एक स्थायी समिति है तो सरकार ने इसे दरकिनार क्यों किया?
स्थायी समितियां किसी विधेयक की जांच तभी करती हैं जब उसे विशेष रूप से जांच या अनुमोदन के लिए उनके पास भेजा जाता है. स्थाई समिति के बजाय संयुक्त समिति को वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक 2023 भेजने पर विपक्ष का तर्क है कि केंद्र सरकार जानबूझकर स्थायी समिति को दरकिनार कर रही है. अगर स्थाई समिति इसकी जांच करती तब इस कानून को लेकर सभी हितधारकों की पूर्ण भागीदारी के साथ विस्तृत जांच की जाती.
स्थायी समिति के अध्यक्ष और कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने प्रक्रिया को अभूतपूर्व और स्थायी समिति के जनादेश का उल्लंघन बताते हुए कड़ी आपत्ति व्यक्त की थी. उन्होंने कहा था कि यह जानबूझकर चयन समिति को भेजा गया क्योंकि प्रधानमंत्री द्वारा चुने गए एक सांसद द्वारा इसकी अध्यक्षता की जाएगी.
यह वन संरक्षण कानून के नियम 2003 में संशोधन के मद्देनजर आता है, जिसे पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा आगे बढ़ाया गया है, जिसमें अत्यधिक आपत्तिजनक कई धाराओं के बीच उनके क्षेत्रों में किसी भी परियोजना के लिए सहमति देने या रोकने के लिए ग्राम सभाओं के संवैधानिक और कानूनी अधिकारों को समाप्त कर दिया गया है.
वन भूमि के डायवर्जन के लिए उदार मानदंड अपनाए गए हैं. वन भूमि के संरक्षण के नाम पर वनों के निजीकरण को बढ़ावा दिया गया है और वनों पर राज्य सरकारों के अधिकारों को शिथिल करते हुए केंद्र को अधिक अधिकार दिए गए हैं. इसके साथ ही संशोधित नियम वनों के वाणिज्यिक उपयोग सहित वनीकरण के नाम पर निजी वृक्षारोपण की योजनाओं को बढ़ावा देने का कार्य भी करते हैं.
विधेयक की प्रस्तावना में ‘आर्थिक आवश्यकताएं’ शब्द शामिल है. यह कहता है कि “वनों के संरक्षण, प्रबंधन और बहाली, पारिस्थितिक सुरक्षा को बनाए रखने, वनों के सांस्कृतिक और पारंपरिक मूल्यों को बनाए रखने और आर्थिक आवश्यकताओं और कार्बन तटस्थता को सुविधाजनक बनाने से संबंधित प्रावधान प्रदान करना आवश्यक है.
लेकिन आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के नाम पर सरकार प्रस्तावित संशोधनों के माध्यम से वन संरक्षण अधिनियम के नियामक ढांचे के तहत छूट प्राप्त करने वाली परियोजनाओं और भूमि की सूची का विस्तार कर रही है.
राज्यसभा में दिए गए एक जवाब के मुताबिक साल 2008-2019 के बीच 2.53 लाख हेक्टेयर वन भूमि विभिन्न परियोजनाओं के लिए डायवर्ट की गई है. इस विधेयक का उद्देश्य कानूनी रूप से इस तरह के डायवर्जन को सुविधाजनक बनाना है.
विधेयक के तहत छूट
प्रस्तावित संशोधन कहता है: ‘1 ए। (1) निम्नलिखित भूमि इस अधिनियम के प्रावधानों के तहत कवर की जाएगी, मतलब..
(ए) वह भूमि जिसे भारतीय वन अधिनियम, 1927 के प्रावधानों के अनुसार या तत्कालीन किसी अन्य कानून के तहत वन के रूप में घोषित या अधिसूचित किया गया है.
(बी) भूमि जो धारा (ए) के तहत कवर नहीं होती हैं, लेकिन 25 अक्टूबर, 1980 को या उसके बाद सरकारी रिकॉर्ड में ‘वन’ के रूप में दर्ज हो चुकी है.
FRA का भी उल्लंघन
वन अधिकार समूहों ने भी विधेयक का विरोध किया. “ये सभी प्रस्तावित छूटें सीधे तौर पर वन अधिकार अधिनियम 2006 का उल्लंघन करती हैं. ये कई अन्य ऐसी छूटों की निरंतरता में हैं जो MoEFCC (पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय) ने सरकारी और निजी एजेंसियों के लिए वन विचलन को आसान बनाने के लिए अवैध रूप से दी हैं.
एमओईएफसीसी ने वन विचलन में एफआरए के अनुपालन को अवैध रूप से छूट दी, उदाहरण के लिए, i) रैखिक परियोजनाओं, ii) खनिज पूर्वेक्षण, iii) “आदिवासी आबादी” के बिना क्षेत्रों में वन विचलन, iv) खनन पट्टों का अनुदान, v) निर्माण दूसरों के बीच भूमि बैंक.
इसके अलावा, जबकि पहले की छूटें वन संरक्षण अधिनियम (एफसीए) और वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) दोनों के उल्लंघन में प्रभावी थीं, एफसीए के तहत प्रस्तावित छूट अभी भी एफआरए के उल्लंघन में होंगी.
ऐसे में उपर्युक्त प्रावधानों से स्पष्ट है कि सरकार ने आसानी से सभी प्रकार की भूमि को छूट दी है जिसे भी उपयोग के लिए उपयुक्त पाया गया है और वन मंजूरी की आवश्यकता है.
गोदावर्मन केस संदर्भ
बिल के उद्देश्य और निहितार्थ के बारे में सुप्रीम कोर्ट के टीएन गोदावर्मन थिरुमुलपाद बनाम भारत संघ और अन्य (दिसंबर 12, 1996) मामले में दिए निर्णय का संदर्भ देंखे जिसमें अधिनियम को लेकर कुछ अस्पष्टाएं (गलत व्याख्याएं) थी जिन्हें दूर करने के लिए, यह संशोधन किया गया है.
विधेयक, गोदावर्मन मामले में वर्णित ‘डीम्ड फॉरेस्ट’ के प्रावधानों को व्यवस्थित तौर से संकीर्ण (कमजोर) करता है, जहां सरकार के रिकॉर्ड में जंगल के रूप में दर्ज की गई किसी भी भूमि के लिए ‘फोरेस्ट क्लीयरेंस’ की जरूरत होती थी.
विधेयक के मुताबक, सर्फ उन भूमि के लिए जो 25 अक्टूबर, 1980 को या उसके बाद वनों (जंगलों) के रूप में दर्ज की गई थी, को ही वन मंजूरी की आवश्यकता के रूप में माना जाएगा. इस मामले में उन सभी क्षेत्रों, जिन्हें स्वामित्व, मान्यता और वर्गीकरण से इतर, जंगल के रूप में दर्ज किया गया था, को ‘वन’ के रूप में परिभाषित किया गया था.
मतलब… उक्त निर्णय के बाद बिल में कहा गया है कि वन संरक्षण अधिनियम के प्रावधानों को दर्ज ‘वन’ क्षेत्रों में लागू किया गया था, जिसमें ऐसे दर्ज ‘वन’ भी शामिल हैं, जो पहले से ही विभिन्न प्रकार के गैर-वानिकी उपयोग के लिए रखे गए थे, जिससे अधिकारियों को कोई भी परिवर्तन करने से रोका जा सके.
भूमि उपयोग में और किसी भी विकास या उपयोगिता संबंधी कार्य की अनुमति देने के साथ निजी और सरकारी गैर-वन भूमि में लगाए गए वृक्षारोपण में अधिनियम की प्रयोज्यता पर भी आशंकाएं थीं.
भारत में फॉरेस्ट कवर की स्थिति
1951-52 से 1979 -80 की अवधि के दौरान भारत में वन क्षेत्र में से, 4.3 मिलियन हेक्टेयर वन भूमि, आधिकारिक तौर पर गैर-वन उद्देश्यों के लिए अलग हो गई थी. 1975-82 के सात सालों में लगभग नौ मिलियन हेक्टेयर जंगल खत्म हो गए थे. ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच के अनुसार, भारत ने 2021 में 127 किलो हेक्टेयर भूमि खोई है.