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बसनिया बांध: कानून और जागरूकता से लैस आदिवासी विस्थापन से लड़ने को तैयार हैं

नर्मदा घाटी के MP वाले हिस्से में कुल 29 बांध प्रस्तावित हैं. इसमें से 10 बांध बन चुके हैं. इसके अलावा 6 में काम चल रहा है. बाकी 13 में से बांधों को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने साल 2016 में निरस्त कर दिया. इसलिए लोग आश्वस्त थे. लेकिन अब सुनने में आ रहा है कि प्रशासनिक अनुमति के साथ मुंबई की कंपनी को इसका ठेका भी दिया जा चुका है

मध्य प्रदेश में मंडला ज़िले के ओढ़ारी गांव में देवस्थान के बाहर लगातार लोग जमा हो रहे थे. यहाँ प्रस्तावित बसनिया बांध से प्रभावित होने से चिंतित आस-पास के गांवों के लोग भी पहुंचे हैं.

ये लोग आज यहां पर अपने आंदोलन को आगे ले जाने की रणीनीति पर विचार विमर्श कर रहे थे.

अभी तक गांव के लोग आश्वस्त थे कि यह परियोजना निरस्त हो चुकी है. लेकिन जब उन्हें इस बात की भनक लगी की सरकार इस परियोजना को पुनर्जीवित कर रही है तो उनका बेचैन होना लाज़मी था. इस सिलसिले में जब गांव के लोगों से बातचीत हुए तो पता चला कि उन्होंने सबसे पहला काम किया कि औपचारिक तौर पर सरकार दस्तावेज़ जमा करने शुरू कर दिये.

ओढारी के ही रहने वाले तितरा सिंह मरावी ने कहा, “हमें पत्राचार के माध्यम से जानकारी हुआ. हल्का-फुल्का जानकारी पहले से भी था कि यह बांध निरस्त हो चुका है. 16-17 में वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने लिखित में इस परियोजना को निरस्त करने की घोषणा की है. जिसकी कॉफी हमने सूचना के अधिकार के तहत हमने प्राप्त की है.”

ओढ़ारी गांव के लोगों ने कुछ महीने पहले अपने गांव के पास नर्मदा नदी पर कुछ ऐसी गतिविधियां देखी जिसने उनके मन में आशंका पैदा कर दी.

इसके अलावा उन्हें सामाचार पत्रों से भी कुछ ऐसी ख़बरें मिलीं कि बसनिया बांध परियोजना पर सरकार ने फिर से काम शुरू करने का फैसला कर लिया है.

लेकिन गांव वालों को इस बारे में कोई ठोस जानकारी नहीं मिल रही थी. एक बार फिर गांव के लोगों ने सूचना के अधिकार का इस्तेमाल किया. 

तितरा मरावी कहते हैं, “2021-22 में प्रशासनिक अनुमति करके इसका ठेका फिर से संपादित किया गया है. फिर हमने सूचना के अधिकार के तहत आवेदन दिया और जानकारी मांगी. तब हमें पता चला कि यह परियोजना पुनर्जीवित कर दी गई है और मुंबई की कंपनी को ठेका दिया गया है.”

नर्मदा पर बन रहे बांधों और जबरन विस्थापन के खिलाफ लंबे समय से का कर रहे नर्मदा आंदोलन के नेता और कार्यकर्ता भी आदिवासियों के इस आंदोलन में शामिल हैं.

NBA के नेता और कार्यकर्ता आंदोलन के लंबे अनुभव को आदिवासियों के साथ साझा कर रहे हैं. यह अनुभव आदिवासियों को संगठित होने और कानून के दायरे में रह कर आंदोलन करने में मदद कर रहा है. 

नर्मदा बचाओ आंदोलन के नेता राजकुमार सिन्हा कहते हैं, “नर्मदा घाटी के MP वाले हिस्से में कुल 29 बांध प्रस्तावित हैं. इसमें से 10 बांध बन चुके हैं. इसके अलावा 6 में काम चल रहा है. बाकी 13 में से बांधों को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने साल 2016 में निरस्त कर दिया. इसलिए लोग आश्वस्त थे. लेकिन अब सुनने में आ रहा है कि प्रशासनिक अनुमति के साथ मुंबई की कंपनी को इसका ठेका भी दिया जा चुका है.”

1975 -88 के बीच नर्मदा नदी पर बरगी बांध का निर्माण हुआ था. जबलपुर स्थित इस बांध के प्रभावित में मंडला के आदिवासियों की बड़ी तादाद है.

इस बांध परियोजना के लिए विस्थापित लोगों की कहानियां, ओढ़ारी और आस-पास के गांव के लोगों को डराती हैं. क्योंकि बरगी बांध के विस्थापित अभी भी आजीविका और पुनर्वास के लिए संघर्ष ही कर रहे हैं. 

तितरा सिंह मरावी बात करते हुए कहते हैं, “मेरी उम्र 41-42 साल की है. हमारे समुदाय के लोग बरगी क्षेत्र में भी रहते हैं. जब हम उनकी कहानी सुनते हैं, उनकी दशा देखते हैं तो पता चलता है कि उनकी दो-तीन पीढ़ी बर्बाद हो चुकी हैं.”

इस पंचायत में एक साधु जैसी वेशभूषा वाले सुबेसा बाबा भी मौजूद हैं. जब उनसे बातचीत हुई तो पता चला कि वे घर-परिवार वाले व्यक्ति हैं और खेती किसानी करते हैं.

वे बातचीत में कहते हैं कि सरकार पहले बरगी बांध विस्थपितों को तो बसा दे. जब वो कहते हैं, ” बरगी के विस्थापित त्राह त्राह कर रहे हैं, उन्हें सरकार ने उस समय यानि 1975 में 600 रूपया मुआवजा दिया गया था. उस पैसे से ना तो वे ज़मीन खरीद पाए और ना ही कोई धंधा कर पाए. सब पैसा ख़र्च हो गया.”

यहां के आदिवासियों. संगठनों  और सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि बरगी बांध परियोजना से इस इलाके का पर्यावरण और आदिवासियों की जीविका बुरी तरह से प्रभावित होगी.

इस परियोजना के लिए खेती बाड़ी के अलावा कम से कम 2017 हेक्टेयर जंगल की ज़मीन भी डूब जाएगी. इसके अलावा विस्थापन की वजह से यहां के आदिवासियों की संस्कृति और भाई-चारा भी ख़तरे में पड़ता है. 

ओढ़ारी गांव के करीब प्रस्तावित बसनिया बांध परियोजना से जैव विविधता के अलावा जो सबसे बड़ा ख़तरा बताया जाता है वो आदिवासियों की जीविका का है.

यहां के आदिवासी कहते हैं कि उन्हें खेती किसानी के अलावा कोई और खास काम आता नहीं है. उनका कहना है कि उनके पूर्वजों ने बहुत कष्ट के साथ जंगलों और पहाड़ों को साफ कर खेत तैयार किये थे.

अगर उनकी खेती छीन ली जाती है तो फिर उनका जीना मुश्किल हो जाएगा.

इस इलाके में आदिवासी खेती-बाड़ी के अलावा जंगल से कई तरह के उत्पाद भी जमा करते हैं. जंगल से मिलने वाले फल-फूल-पत्ते और लकड़ी से आदिवासियों की कुल आय का एक बड़ा हिस्सा आता है. 

अगर यहां पर प्रस्तावित बाध परियोजना लागू होती है तो बड़ी संख्या में आदिवासियों का विस्थापन होगा. ज़ाहिर है यहां से विस्थापित आदिवासी अपनी जीविका के परंपरागत साधन की तलाश में जंगल की तरफ बढ़ेगा.

ऐसी सूरत में इन इलाकों में आदिवासियों के बीच ही संघर्ष भी बढ़ सकता है. इसके अलावा ऐसे कितने ही उदाहरण है जब विस्थापितों और वन विभाग के बीच भूमि का जानलेवा संघर्ष हुआ है.

सरकार का दावा है कि इस परियोजना से बिजली उत्पादन के अलावा इस इलाके में सिंचाई के लिए पानी दिया जा सकेगा. लेकिन आदिवासी सरकार के किसी वादे पर भरोसा करने को तैयार नहीं है.

क्योंकि अपने आस-पास उसने देखा है कि विस्थापित होने के बाद आदिवासी को कोई पूछता नहीं है. 

सरकार चुपचाप बसनिया बांध परियोजना को पुनर्जीवित करने में जुटी है. ऐसा लगता है कि सत्ताधारी दल फिलहाल कोई ऐसा मुद्दा नहीं चाहता है जो आदिवासियों को भड़का दे.

क्योकि इसका उसे चुनाव में भारी नुकसान हो सकता है. लेकिन आदिवासियों को सरकार की अंदरखाने की गतिविधियों का अहसास हो चुका है.

अब वह सूचना के अधिकार से हासिल दस्तावेजों से लैस है. उसे अपने संवैंधानिक और कानूनी हकों की जानकारी भी है. 

मंडला के ओढ़ारी और आस-पास के गांवों के आदिवासियों से मिलने के बाद यह अफ़सोस तो ज़रूर हुआ कि विकास के लिए आदिवासी का विस्थापन जारी है.

लेकिन एक बड़ी उम्मीद भी नज़र आई की सूचना का अधिकार, फोरेस्ट राइट्स एक्ट या पेसा जैसे कानूनों ने उनके संघर्ष को मजबूत किया है.

इसके अलावा लुटते-पीटते हुए भी आदिवासी लड़ रहा है और इस क्रम में वह पहले से ज्यादा चौकन्ना भी नज़र आता है. 

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