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बस्तर में मौतों का ज़िम्मेदार कौन – अज्ञात बीमारी, अंधविश्वास या फिर सरकार

आदिवासी इलाकों में मल्टीपरपस वर्कर्स की 49 प्रतिशत कमी है, प्राथमिक केंद्रों पर डॉक्टरों की कमी 33 प्रतिशत है और स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की बात करें तो यह कमी 98 प्रतिशत है.

पिछले हफ़्ते छत्तीसगढ़ के बस्तर में अज्ञात बीमारी से मौतों की ख़बर आई. यहाँ के कई गाँवों में दहशत का माहौल बन गया. यहां के सुकमा और नारयणपुर ज़िले की कई ग्राम पंचायतों में किसी अज्ञात बीमारी से एक के बाद एक मौत की ख़बरें आईं.

अगस्त महीने में भी ख़बर मिली कि सुकमा ज़िले में ही रेगड़ागट्टा गाँव में 6 महीने के भीतर कम से कम 61 लोगों की मौत किसी अज्ञात बीमारी से हो गई. इन ख़बरों पर कोई बवाल नहीं हुआ. क्योंकि बवाल तो तब होगा जब ये ख़बरें बाहर आएँगी.

ये ख़बरें देश की राजधानी दिल्ली तो छोड़िए इन ख़बरों को ज़िला मुख्यालय तक पहुँचने में ही कई बार कई कई सप्ताह लग जाते हैं.  बहरहाल बस्तर के अलग अलग इलाक़ों में हुई इन मौतों के बारे में बात करते हुए लोगों ने बताया कि मरने वालों में से ज़्यादातर के पैरों में सूजन, पेट दर्द और सिर दर्द जैसी शिकायतें थीं.

हमने आपके सामने जिन ख़बरों का ज़िक्र किया है ये वे ख़बरें हैं जिनकी पुष्टि प्रशासन ने की है. ये ख़बरें कुछ स्थानीय पत्रकारों की मेहनत और लगन से बाहर आ सकीं. उसके बाद प्रशासन ने इन इलाक़ों में स्वास्थ्य टीमें भेजीं. 

सुकमा के मुख्य चिकित्सा अधिकारी यशवंत ध्रुव के अनुसार आदिवासी इलाक़ों में जो मौतें हुई हैं वो किसी अज्ञात बीमारी से नहीं हुई हैं. बल्कि इलाज के प्रति उदासीनता, अज्ञानता और अंधविश्वास की वजह से हुई हैं.

उनकी यह बात बेहद दुखदायी और ग़ैर ज़िम्मेदाराना है. यह बात सही है कि आदिवासी आज भी बीमार पड़ने पर स्वस्थ होने के लिए अपने देवी देवताओं की प्रार्थना करता है. इसके अलावा वो परंपरागत इलाज करने वाले समुदाय के ओझा या वैद्य पर निर्भर करते हैं.

उन्होंने जो कहा है वह झूठ नहीं है, आदिवासी इलाकों में आज भी जंगली जड़ी बूटी और झाड़ फूंक के भरोसे इलाज होता है. लेकिन इसकी वजह क्या है? वजह है कि आज भी आदिवासी इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाओं में गैप बहुत ज़्यादा है.

इस गैप को जब तक नहीं भरा जाता आदिवासी जड़ी बूटी और झाड़ फूंक पर ज्यादा निर्भर करेगा अपने इलाज के लिए. स्वास्थ्य सेवाओं में गैप का मतलब है कि ग़ैर आदिवासी इलाकों की तुलना में आदिवासी इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाएं कम हैं.

यह बात मेरी कल्पना नहीं है. बल्कि यह हमने ज़मीन पर देखा है. लेकिन हमारे अनुभव को छोड़िए, सरकार के पास मौजूद आंकड़ों की बात करते हैं. 2013 में सरकार ने आदिवासी भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के हाल को समझने और सुधारने के उपायों के लिए एक एक्सपर्ट कमेटी का गठन किया.

2018 में इस कमेटी के सामने दो सवाल रखे गए थे, पहला सवाल था – 7 दशक बाद भी क्या आदिवासी इलाकों में इलाज या स्वास्थ्य की वो सुविधाएं मौजूद नहीं हैं जो देश के बाकी इलाकों में मौजूद हैं. दूसरा सवाल था अगर पहले सवाल का जवाब हां है तो फिर इस फ़र्क को कैसे ख़त्म किया जा सकता है. 

इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट आदिवासी इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं की हालत समझने के लिए दो ज़रूरी तथ्यों पर ध्यान दिया, पहली ग़रीबी और दूसरी शिक्षा. इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में कुल आदिवासी आबादी का 40.6 प्रतिशत ग़रीबी रेखा के नीचे जीता है जबकि ग़ैर आदिवासी आबादी में गरीबी रेखा के नीचे जीने वाले लोग 20 प्रतिशत हैं.

यानि यह गैप बहुत बड़ा है, दोगुना है. इसके बाद शिक्षा से जुड़े आंकडों को देखें तो आज भी भारत की आदिवासी जनसंख्या का 41 प्रतिशत हिस्सा अनपढ़ है. इन समुदाय के मात्र 2 प्रतिशत लोग ही उच्च शिक्षा तक पहुंच पाते हैं. आदिवासी जनसंख्य़ा में 35 प्रतिशत प्राइमरी स्तर पर ही ड्रापआउट हो जाता है. 

इस कमेटी ने यह पाया कि आदिवासी इलाकों में जन्म से लेकर 5 साल के भीतर बच्चों की मौत की संख्या में काफी कमी आई है. यानि गर्भवती महिलाओं और बच्चों के लिए चलाई जा रही योजनाओं का कुछ असर ज़मीन पर ज़रूर हुआ है.

लेकिन इस क्षेत्र में भी एक गैप यानि फर्क दिखाई देता है. यह फर्क बढ़ा है, पहले यह फ़र्क 21 प्रतिशत का था अब बढ़ कर 48 प्रतिशत हो गया है. यानि ग़ैर आदिवासी आबादी में शिशु मृत्युदर ज़्यादा तेज़ी से कम हुई है.

लेकिन आदिवासी आबादी में यह शिशु मृत्यु दर अभी भी काफ़ी ज्यादा है. 2011 की जनगणना में बताया गया है कि आदिवासी बच्चों में जन्म से 5 साल के भीतर हर साल लगभग 1 लाख 46 हज़ार बच्चों की मौत हो जाती है. 

इस कमेटी ने आदिवासी आबादी में स्वास्थ्य हालत पर शोध करते हुए यह पाया कि इस मोर्चे पर आदिवासी तिहरी मार झेल रहा है. रिपोर्ट में बताया गया है कि आदिवासियों में कुपोषण, मलेरिया और टीबी जैसी बीमारी तो हैं ही, इसके अलावा पर्यावरण पर बढ़ते दबाव और शहरीकरण के साथ ही कैंसर जैसी बीमारी भी आदिवासी को मार रही हैं.

इस रिपोर्ट में एक बेहद ज़रूरी तथ्य की तरफ ध्यान दिलाया गया है वह है आदिवासी इलाकों में मानसिक बीमारियों और नशे की लत का बढ़ना. सुकमा के मुख्य चिकित्सा अधिकारी साहब से माफ़ी के साथ विनम्रता से कुछ आंकड़े और पेश करते हैं फिर इस कहानी को ख़त्म करेंगे.

किसी भी इलाके में स्वास्थ्य सेवाओं के लिए तीन ज़रूरी चीजें होती हैं. पहली है इंफ्रास्ट्रक्चर दूसरी ज़रूरत होती है human resource और तीसरा है governance. अब इस मोर्चें पर आदिवासी इलाकों में हाल पर नज़र डालते हैं.

Expert committee की रिपोर्ट बताती है कि आदिवासी इलाकों में मल्टीपरपस वर्कर्स की 49 प्रतिशत कमी है, प्राथमिक केंद्रों पर डॉक्टरों की कमी 33 प्रतिशत है और स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की बात करें तो यह कमी 98 प्रतिशत है.

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