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मध्य प्रदेश: पर्यावरण को बचाने के लिए 25 हज़ार आदिवासी हलमा के लिए जुटेंगे

परंपरा के अनुसार, हजारों लोग बिना किसी मौद्रिक अपेक्षा के स्वयं भाग लेंगे और मानसून के दौरान पानी बचाने में मदद करने के लिए हाथीपावा पहाड़ी के चारों ओर कंटूर टेंचेंस (contour trenches) खोदेंगे. कंटूर टेंचेंस पहाड़ी के ढलान वाले हिस्सें में बनाए गए एक तालाबनुमा गड्डे को कहते हैं. जिससे बारिश के दौरान पहाड़ का पानी इधर उधर ना जाकर उस गड्ढे में जमा हो जाता है और भूजल स्तर बढ़ाने में सहयोग करता है.

मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल जिला झाबुआ की सदियों पुरानी परंपरा ‘हलमा’ संकट में मदद करने और पर्यावरण को बचाने के अभियान का आयोजन इस महीने के आखिरी हफ्ते में होगा.

वार्षिक दो दिवसीय आयोजन में मानसून में पानी के संरक्षण के लिए हाथीपावा पहाड़ी के चारों ओर खाइयों को खोदने के लिए तीन राज्यों के भील जनजाति के लगभग 25 हज़ार लोगों की भागीदारी देखी जा सकती है. इस परंपरा को करीब से जानने के लिए भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के आने की भी संभावना है.

‘हलमा’ को भील जनजातियों की एक पुरानी परंपरा कहा जाता है. लेकिन ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन की समस्याओं से लड़ने के लिए लगभग डेढ़ दशक पहले इसे पुनर्जीवित किया गया और बड़े पैमाने पर इसका विस्तार किया गया.

‘शिवगंगा अभियान’ के राजाराम कटारा ने कहा कि इस साल यह कार्यक्रम 25 से 26 फरवरी को आयोजित किया जाएगा. जिसमें झाबुआ, अलीराजपुर और पड़ोसी राज्य गुजरात और राजस्थान के आदिवासी बहुल क्षेत्रों के लगभग 25 हज़ार लोगों के शामिल होने की संभावना है.

परंपरा के अनुसार, हजारों लोग बिना पैसे की उम्मीद के स्वयं भाग लेंगे और मानसून के दौरान पानी बचाने में मदद करने के लिए हाथीपावा पहाड़ी के चारों ओर कंटूर टेंचेंस (contour trenches)/ खाई खोदेंगे. कंटूर टेंचेंस पहाड़ी के ढलान वाले हिस्सें में बनाए गए एक तालाबनुमा गड्डे को कहते हैं. जिससे बारिश के दौरान पहाड़ का पानी इधर उधर ना जाकर उस गड्ढे में जमा हो जाता है और भूजल स्तर बढ़ाने में सहयोग करता है.

राजाराम ने कहा कि अब तक, ‘हलमा’ ने सैकड़ों तालाबों को खोदने और दर्जनों ‘माता नू वन’ (जंगल क्षेत्र को एक माँ की तरह देखभाल और संरक्षित करना) विकसित करने में मदद की है.

उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी पिछले साल अप्रैल में अपने मासिक रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ में ‘हलमा’ का जिक्र करते हुए कहा था कि मध्य प्रदेश की भील जनजाति की जल संरक्षण का अद्भुत संदेश देने वाली यह ऐतिहासिक परंपरा सराहनीय है और यह सभी को प्रेरित करेगा.

उन्होंने आगे कहा कि हर साल IIT और IIM के कई छात्र इस कार्यक्रम का अध्ययन करने के लिए झाबुआ और अलीराजपुर जिले में पहुंचते हैं. जबकि इस साल भारत के राष्ट्रपति के दौरे के साथ-साथ राज्य सरकार के वरिष्ठ राजनेताओं और मंत्रियों द्वारा हलमा नामक नेक काम के लिए अपना समर्थन देने की उम्मीद है. इसके अलावा, जी-20 शिखर सम्मेलन के प्रतिनिधियों के भी आयोजनों में आने की उम्मीद है.

हलमा क्या है

हलमा भील समाज में मदद की एक परंपरा है. जब कोई व्यक्ति या परिवार अपनी सभी कोशिशों के बाद भी अपने पर आए संकट से उबर नहीं पाता है तब उसकी मदद के लिए सभी ग्रामीण भाई-बंधु जुटते हैं और अपने नि:स्वार्थ कोशिशों से उसे मुश्किल से बाहर ले आते हैं.

हलमा आदिवासी किसानों के लिए बेहद मुश्किल परिस्थितियों में अपने आदिवासी भाइयों को आमंत्रित करने की परंपरा है. यह आदिवासी समुदायों की एक सदियों पुरानी परंपरा है जो मध्य प्रदेश के मालवा और निमाड़ क्षेत्रों, और राजस्थान के मेवाड़ के कुछ क्षेत्रों के मूल निवासी मानते हैं.

हलमा की खास बात यह है कि जो लोग अपने आदिवासी भाइयों की मदद करने के लिए उनके निमंत्रण पर आते हैं, वो अपने साथ भोजन और पानी के अलावा जरूरत का दूसरा सामान भी लाते हैं ताकि प्रभावित किसानों को उनकी मदद के बदले कोई दूसरा खर्च न उठाना पड़े.

आदिवासियों की इस सदियों पुरानी परम्परा में पानी और प्रकृति से सम्बन्धित कामों के लिए श्रमदान किया जाता है. इसके लिए परिवार-के-परिवार हजारों लोग एक साथ जुटते हैं और कुछ ही घंटों में काम पूरा कर देते हैं. इसमें कोई किसी से एक पैसा तक नहीं लेता है. बस इतनी सी शर्त होती है कि जब उन्हें कोई काम होगा तो वे भी इसी तरह श्रमदान कर मदद करेंगे.

भील जनजाति

भील जनजाति को भारत की सबसे प्राचीन और अपने परंपराओं को जीवित रखने वाली जनजाति माना जाता है. भील भारत का तीसरा सबसे बड़ा जनजातीय समाज है. आज़ादी से पहले हुए अंतिम जनगणना 1941 के अनुसार देश में भीलों की आबादी लगभग 20 लाख थी जो अब 1 करोड़ 70 लाख हो चुकी है.

भील समुदाय मध्य प्रदेश के अलावा राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र सहित देश के अन्य राज्यों में भी है. मध्य प्रदेश का भील समुदाय अन्य भील समुदाय के जैसे ही अपने परंपरा को जीवित रखे हुए है. आज भी मध्‍य प्रदेश के भीलों ने सांस्‍कृतिक परंपरा, धार्मिक कृत्‍यों, उनके गानों, नृत्‍यों, उनके सामुदायिक देवी-देवताओं और गोदना को जीवित रखा है. इसी भील जनजाति की ऐतिहासिक परंपरा है हलमा.

कहानी झाबुआ और हलमा परंपरा की

झाबुआ को प्रदेश के सर्वाधिक पिछड़े इलाकों में गिना जाता है. कभी यह इलाका दुर्गमता की वजह से काला पानी माना जाता था. जिन सरकारी अधिकारियों की यहां तैनाती होती, वे इसे काला पानी की सजा की तरह मानते थे. करीब 3, 782 वर्ग किमी में फैले इस जिले की ढालू जमीन होने से बारिश का ज्यादातर पानी नदी नालों में बह जाता है. जिससे धरती प्यासी ही रह जाया करती थी. यहां की औसत बारिश 800 मिलीमीटर है. पानी के वैकल्पिक संसाधन नहीं होने से धरती का उजाड़ होना नियति बन चुका था.

ऐसे में झाबुआ के आदिवासियों ने हलमा को ही इस समस्या से जूझने का साधन बनाया. साल 2005 में गोपालपुरा गांव में 16 गांव के लोगों ने मिलकर एक तालाब का निर्माण किया. इस सफलता से लोगों का ध्यान आया कि हलमा से पूरे झाबुआ की तस्वीर बदली जा सकती है. इससे उत्साहित और प्रभावित होकर जन-जागरण और हलमा के संदेश को गांव-गांव तक पहुंचाने के लिए झाबुआ की हाथीपावा पहाड़ी पर हलमा का आयोजन शुरू हुआ.

हलमा को फिर से पुर्नजीवित किया गया 2009 में, जब मध्य प्रदेश के झाबुआ में ‘शिवजी का हलमा’ हुआ. इसकी तैयारी के लिए लोग अपने घरों से बाहर निकले और 15 दिनों तक यात्राएं की. करीब 500 गांवों तक पहुंचे और लोगों को हलमा के बारे में बताया और एक साथ फिर से आने को कहा. मेहनत रंग लाई. इसके बाद शुरू हुआ एक अभियान झाबुआ के तस्वीर बदलने का..

2009 के हलमा कार्यक्रम में करीब 1000 लोग पहुंचे. 2010 में 1600, 2011 में पहुंचे 10,000 लोग. 2012, 2013, 2014 और अब 2020 में यह संख्या काफी ज्यादा हो गई है. लोगों का यह जनसमूह हर साल हाथीपावा की पहाड़ी पर जुटता है और ग्लोबल वार्मिग के खतरे से निपटने की तैयारी करता है.

2020 में जब ‘शिवजी का हलमा’ आयोजित हुआ तो झाबुआ में हजारों की संख्या में आदिवासियों का समूह अपना काम छोड़ हाथीपावा पहाड़ी पर पहुंचा और अपने फावड़े और गैंती की मदद से पर चालीस हजार जल संरचनाओं का निर्माण कर दिया है. यह जल संरचनाएं साल भर पानी से भरी रहेंगी और इस क्षेत्र में हरियाली छाई रहेगी.

झाबुआ में हलमा की पानी बचाने की परंपरा से ही आज तक 50 से भी ज्यादा छोटे-बड़े तालाबों का निर्माण किया जा चुका है. कुएं, हैंडपंप रिचार्जिंग, चेक डैम रिपेयरिंग आदि लेकर झाबुआ में 4500 से ज्यादा जल संरचनाओं पर काम हुआ है.

(Photo Credit: Shivganga)

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