HomeAdivasi Dailyचरमपंथी जनजातीय संगठनों ने हथियार डाले, शांति कितनी स्थायी होगी?

चरमपंथी जनजातीय संगठनों ने हथियार डाले, शांति कितनी स्थायी होगी?

हाल के वर्षों में सभी सक्रिय आदिवासी उग्रवादी समूहों के साथ समझौता किया गया है. लेकिन इतिहास ने अलग हुए गुटों को देखा है और नए समूहों को किसी दिए गए समूह या समूह के नेतृत्व के एक वर्ग के साथ बातचीत के बाद नए समूह सामने आते हैं.

पिछले हफ्ते की शुरुआत में सरकार द्वारा डिमासा नेशनल लिबरेशन आर्मी (Dimasa National Liberation Army) के साथ एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह (Amit Shah) और असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा (Himanta Biswa Sarma) दोनों ने घोषणा की कि यह असम (Assam) में आदिवासी विद्रोह (Tribal insurgency) के अंत को चिह्नित करता है.

यह एक ऐसे राज्य के लिए एक महत्वपूर्ण दावा था, जो नागालैंड, मिजोरम, मेघालय और अरुणाचल प्रदेश के अलग होने के बाद भी विभिन्न जनजातीय उग्रवादी समूहों द्वारा विद्रोह देखा गया है. विशेष रूप से 1980 के दशक के बाद से विद्रोह देखा गया. इन समूहों में से ज्यादातर की मुख्य मांग अलग राज्य की मांगों के माध्यम से अधिक राजनीतिक स्वायत्तता रही है.

कार्बी आंगलोंग और उत्तरी कछार पहाड़ियों के स्वायत्त जिलों में 15 मान्यता प्राप्त जनजातियां हैं और बाकी राज्य में 14 मान्यता प्राप्त जनजातियां हैं. इनमें से प्रमुख जनजातियां बोडो (राज्य की जनजातीय आबादी का 35 प्रतिशत), मिशिंग (17.52 प्रतिशत), कार्बी (11.1 प्रतिशत), राभा (7.6 प्रतिशत), सोनोवाल कछारी (6.5 प्रतिशत), लालुंग (5.2 प्रतिशत), गारो (4.2 प्रतिशत), और दिमासा (3.2 प्रतिशत) हैं.

इनमें से स्वायत्तता के लिए सबसे ज्यादा और हिंसक आंदोलन बोडो समूहों द्वारा चलाया गया है लेकिन कार्बी और डिमासा समूह भी हैं जिन्होंने दशकों से उग्रवादी अभियान चलाए हैं. शांति प्रक्रिया लंबी रही है और आदिवासी क्षेत्रों में उग्रवाद को समाप्त करने का दावा हाल के वर्षों में विभिन्न समूहों के साथ शांति समझौते के बाद आया है.

बोडो (Bodo)

1993, 2003 और 2020 में बोडो उग्रवादी समूहों के साथ तीन समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए थे. अलग बोडो राज्य की पहली संगठित मांग 1960 के दशक में सामने आई थी लेकिन 1985 में असम समझौते पर हस्ताक्षर के बाद ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन (All Bodo Students’ Union) के माध्यम से इसे पुनर्जीवित किया गया और इसे मजबूती मिली.

1993 में ABSU के साथ पहले बोडो समझौते पर हस्ताक्षर किए गए और बोडोलैंड स्वायत्त परिषद के लिए मार्ग प्रशस्त किया. लेकिन यह समझौता तब टूट गया जब एबीएसयू ने इसे वापस ले लिया और एक अलग राज्य की मांग को पुनर्जीवित किया.

बोडो लिबरेशन टाइगर्स के साथ 2003 में दूसरा समझौता बाद में बोडो टेरिटोरियल काउंसिल (Bodo Liberation Tigers) के गठन का कारण बना, जिसका अधिकार क्षेत्र बोडो टेरिटोरियल ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट (BTAD) पर था.

2020 का तीसरा बोडो समझौता अनिवार्य रूप से उग्रवादी नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड के चार गुटों के साथ एक संघर्ष विराम था. इसने बीटीसी को अधिक विधायी, प्रशासनिक, कार्यकारी और वित्तीय शक्तियां प्रदान करके बोडो टेरिटोरियल ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट के क्षेत्र को बदलने की शक्ति और राज्य में एक सहयोगी आधिकारिक भाषा के रूप में बोडो भाषा की अधिसूचना के माध्यम से पहले से प्रभावी प्रावधानों को बढ़ाया.

कार्बी (Karbi)

2021 में कार्बी आंगलोंग के पांच उग्रवादी समूहों- कार्बी पीपुल्स लिबरेशन टाइगर, पीपुल्स डेमोक्रेटिक काउंसिल ऑफ़ कार्बी लॉन्गरी (PDCK), कार्बी लॉन्गरी एनसी हिल्स लिबरेशन फ्रंट (KLNLF), कुकी लिबरेशन फ्रंट (KLF) और यूनाइटेड पीपुल्स लिबरेशन सेना (यूपीएलए) के साथ एक समझौता हुआ था और कहा जाता है कि इसी के साथ कार्बी विद्रोह समाप्त हो गया.

कार्बी समूहों द्वारा विद्रोह भी एक स्वायत्त राज्य की मांग के इर्द-गिर्द घूमता था और 1980 के दशक में शुरू हुआ था. 2011 में कार्बी नेशनल वालंटियर्स (KNV) और कार्बी पीपुल्स फोर्स (KPF) के एक साथ आने से गठित यूनाइटेड पीपुल्स डेमोक्रेटिक सॉलिडेरिटी (UDPS) ने केंद्र और असम सरकारों के साथ एक त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किए जो कार्बी आंगलोंग स्वायत्त परिषद के लिए अधिक स्वायत्तता और विशेष पैकेज प्रदान करता है.

यूएसडीपी नेता होरेन सिंह बे वर्तमान में स्वायत्त जिला, असम निर्वाचन क्षेत्र से भाजपा के लोकसभा सांसद हैं. वहीं 2021 के समझौते ने और अधिक स्वायत्तता प्रदान की और पांच वर्षों में 1 हज़ार करोड़ रुपये का विशेष विकास पैकेज प्रदान किया.

दिमासा (Dimasa)

दिमासा नेशनल लिबरेशन आर्मी (DNLA) जिसके साथ इस हफ्ते की शुरुआत में एक त्रिपक्षीय समझौता हुआ है. वो दीमा हसाओ जिले में हथियार उठाने वाला सबसे नया समूह था. DNLA का गठन केवल 1991 में हुआ था.

इस क्षेत्र में पहले दिमासा राष्ट्रीय सुरक्षा बल (DNSF), दीमा हलम दाओगाह (DHD) जैसे संगठनों को देखा गया था, जो डीएनएसएफ से अलग हुआ समूह था और दीमा हलम दाओगाह – जो डीएचडी से अलग हुआ समूह था. DNSF ने 2005 में आत्मसमर्पण कर दिया, वहीं DHD के दोनों गुटों ने संघ और असम सरकारों के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए.

DNLA के साथ हुए समझौते में अभी दो साल पहले पाँच कार्बी आंगलोंग समूहों के साथ हुए समझौते की तर्ज पर समान प्रावधान हैं. दशकों से इन बस्तियों के कई पूर्व उग्रवादी जैसे कि बीएलटी से हगरामा मोहिलरी, यूएसडीपी से होरेन सिंह बे और डीएचडी (जे) से ज्वेल गारलोसा, देबोलाल गोरलोसा और निरंजन होजई ने मुख्यधारा की राजनीति की ओर रुख किया.

हाल के वर्षों में सभी सक्रिय आदिवासी उग्रवादी समूहों के साथ समझौता किया गया है. लेकिन इतिहास ने अलग हुए गुटों को देखा है और नए समूहों को किसी दिए गए समूह या समूह के नेतृत्व के एक वर्ग के साथ बातचीत के बाद नए समूह सामने आते हैं.

कॉन्फ्लिक्ट एनलिस्ट, जयदीप सैकिया, जो पूर्वोत्तर में सुरक्षा स्थिति के पर्यवेक्षक हैं. उन्होंने कहा कि हालांकि DNLA के साथ समझौता असम में शांति की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है लेकिन सावधानी बरती जानी चाहिए क्योंकि अन्य समूहों के सामने आने की संभावना खुली रहती है. उन्होंने कहा कि कोई भी निश्चित रूप से राज्य में उग्रवाद के अंत की घोषणा नहीं कर सकता है.

उन्होंने कहा कि नई दिल्ली की दरियादिली संभावित जुझारू लोगों को उग्रवाद के रास्ते पर स्थापित करने का कारण बन सकती है. यानि केंद्र सरकार के फैसले फिर से उग्रवाद को उजागर कर सकता है. क्योंकि यहां से लिए गए फैसलों के खिलाफ आवाज उठाने के लिए हथियारों का इस्तेमाल किया जा सकता है और इसके परिणामस्वरूप भविष्य में जो संगठन अभी शांति की ओर बढ़े हैं उनका लाभ उठाया जा सकता है. ऐसे मे नई दिल्ली को इस क्षेत्र को समग्र रूप से समझने और प्रशासित करने के लिए उत्तर पूर्व सुरक्षा परिषद की स्थापना करनी चाहिए.

इस बीच, जब इन आदिवासी उग्रवादी समूहों के साथ बातचीत की जा चुकी है, सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती परेश बरुआ के नेतृत्व वाले उल्फा (आई) बनी हुई है, जो संप्रभुता की मांग पर अड़े हुए हैं.

हालांकि, पिछले हफ्ते सरकार और उल्फा (वार्ता समर्थक धड़ा) के बीच शांति समझौते पर हस्ताक्षर की संभावना का स्वागत करते हुए इसके नेता अनूप चेतिया ने कहा था कि समझौते पर हस्ताक्षर किया जा सकता है अगर केंद्र सरकार मूल असमिया लोगों के लिए भूमि अधिकार जैसी मांगों को स्वीकार करती है.

उल्फा के महासचिव चेतिया ने कहा कि उन्हें हाल ही में समझौते का मसौदा मिला है लेकिन इस मामले पर संगठन के विभिन्न मंचों पर अभी चर्चा होनी बाकी है.

चेतिया का यह बयान मुख्यमंत्री हिमंत बिश्वा सरमा द्वारा नई दिल्ली में यह घोषणा करने के कुछ घंटों बाद आया था कि मई में समूह के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर होने की संभावना है.

चेतिया ने कहा, “वार्ता समर्थक उल्फा के साथ समझौते के लिए मुख्यमंत्री ने पहल की है और हम इसका स्वागत करते हैं… लेकिन सारा मामला केंद्र सरकार के हाथ में है. अगर केंद्र हमारी विभिन्न मांगों को स्वीकार करता है तो समझौते पर हस्ताक्षर किए जा सकते हैं. हमारी मांगों में मूल असमिया आबादी के लिए संवैधानिक, राजनीतिक और भूमि अधिकार शामिल हैं.”

(File photo, PTI)

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