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ओडिशा: एक बच्चे की मौत ने आदिवासी बस्तियों में खाद्य संकट को उजागर कर दिया

अगर आदिवासी भारत में कुपोषण को मिटाना है तो सबसे पहला काम कुपोषण से होने वाली मौतों को खारिज करने की बजाए इन्हें स्वीकार करना होगा. जब भी इस तरह ख़बर आए तो उसकी जवाबदेही तय करनी होगी.

इस साल मार्च में ओडिशा के जाजपुर जिले के घाटिसही गांव के एक आदिवासी परिवार के 11 वर्षीय लड़के अर्जुन की मृत्यु हो गई थी. स्थानीय मीडिया रिपोर्टों और उनके परिवार के मुताबिक, उन्होंने आखिरी बार अर्जुन की मौत से दो दिन पहले खाना खाया था. 

इस आदिवासी लड़के की मौत के बाद कोई पोस्टमार्टम नहीं किया गया था. लेकिन मीडिया ने अर्जुन की मौत को कुपोषण का मामला बताया और इसके बाद स्थानीय अधिकारी हरकत में आ गए.

23 मार्च तक जिला स्वास्थ्य अधिकारियों और स्थानीय कार्यकर्ताओं ने अर्जुन के दो भाई-बहनों, नौ महीने की बच्ची और 10 वर्षीय कुनी, दोनों को अत्यंत गंभीर स्थिति में कटक में SCB अस्पताल की बाल चिकित्सा यूनिट, शिशु भवन में भर्ती कराया गया था.

रेस्पिरेटरी इन्फेक्शन से पीड़ित कुनी का इलाज किया गया था. बाल चिकित्सा यूनिट के डॉक्टरों ने कहा कि 10 वर्षीय कुनी का वजन बमुश्किल 6.2 किलोग्राम था. जबकि एक स्वस्थ 10 वर्षीय बच्चे का औसत वजन लगभग 32 किलोग्राम होता है. गंभीर तीव्र कुपोषण का निदान किया गया था साथ ही कम हाइट और बहुत कम वजन का बताया गया था.

जाजपुर के मुख्य जिला चिकित्सा अधिकारी (CDMO), सिबाशीष महाराणा ने कहा था, “हमारे यहां पोषण पुनर्वास केंद्र है, जहां एक पार्षद, चिकित्सक, बाल रोग विशेषज्ञ हैं, जो अब बच्चे की देखभाल कर रहे हैं. एक अन्य बच्चे को पहले डीएचएच में भर्ती कराया गया था. लेकिन समस्या यह है कि लोग कुपोषण से अनभिज्ञ हैं और अस्पताल नहीं आना चाहते. इसलिए हम जल्द ही एक जागरूकता कार्यक्रम फैलाने की कोशिश कर रहे हैं.”

ओडिशा के जाजपुर जिले में कुपोषण से मौत कोई नई बात नहीं है. आठ साल पहले जाजपुर जिले का दूरदराज का एक गांव नगड़ा में अगस्त 2016 में तीन से चार महीनों के दौरान कुपोषण के कारण कम से कम 19 बच्चों की मौत की सूचना मिली थी.

इसके बाद ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने एक टास्क फोर्स का गठन किया था, जिसने क्षेत्र में खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच और उचित परिवहन सेवाओं की देखभाल करने का वादा किया था.

लेकिन नगड़ा से लगभग 80 किलोमीटर दूर घाटिसही में अर्जुन के माता-पिता तुलसी और बांकू हेम्ब्रम और उसके भाई-बहन कुछ समय से खाना नहीं खा रहे थे या अक्सर सिर्फ “हंडिया” पीकर सो रहे थे. हंडिया- चावल को सड़ा करके बनाया गया एक नशीला पेय है.

28 मार्च को बच्चों के अस्पताल में भर्ती होने के कुछ दिनों बाद खाद्य अधिकार और सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं और पत्रकारों वाली एक सात सदस्यीय फैक्ट फाइंडिंग टीम ने कटक के अस्पताल और परिवार के गांव का दौरा किया. टीम ने पाया कि समय के साथ परिवार के लिए भोजन और मजदूरी की असुरक्षा और बढ़ गई थी.

एक गरीब परिवार

क्षेत्र के मुंडा समुदाय के अधिकांश लोगों की तरह हेम्ब्रम परिवार के पास कोई कृषि भूमि या पशु नहीं था. वे बांकू हेम्ब्रम के पिता के नाम पर रजिस्टर एक कमरे की इमारत में रहते हैं.

अर्जुन अंधेपन से पीड़ित था जबकि कुनी और एक अन्य पांच वर्षीय भाई दोनों दिव्यांग है फिर भी परिवार को कभी भी प्रति व्यक्ति प्रति माह 500 रुपये की विकलांगता पेंशन नहीं मिली, जिसकी गारंटी ओडिशा सरकार देता है.

हेम्ब्रम परिवार के अन्य बच्चों को मूल्यांकन के लिए जाजपुर के सुकिंडा शहर में पोषण पुनर्वास केंद्र ले जाया गया. जिसके बाद उन्हें पुनर्वास के लिए बाल देखभाल संस्थान में भेज दिया गया.

इस दंपति के नौ बच्चे थे. तुलसी हेम्ब्रम की सभी डिलीवरी घर पर ही हुई थी. फैक्ट फाइंडिंग टीम ने पाया कि बच्चों का नियमित टीकाकरण नहीं हुआ था. वहीं तुलसी हेम्ब्रम को गर्भावस्था से पहले और बाद में उचित प्रसव देखभाल नहीं मिली थी.

इस मामले की तरह गरीब परिवारों को संस्थागत प्रसव और टीकाकरण के लिए परिवार नियोजन परामर्श और सहायता की जरूरत होती है.

फूड इनसिक्योरिटी

परिवार के पास राशन कार्ड है लेकिन राज्य सार्वजनिक वितरण प्रणाली पोर्टल के डेटा से पता चलता है कि कार्ड कुछ समय से निष्क्रिय था. राशन बुक की एक कॉपी से पता चलता है कि परिवार को आखिरी बार जुलाई 2021 में उनका राशन मिला था.

परिवार की सबसे बड़ी बेटी बुदुनी को याद नहीं कि पिछली बार कब वे अपना राशन लेने गई थीं. लेकिन उन्होंने कहा कि राशन डीलर ने उन्हें हर बार यह कहकर लौटा दिया कि उनका कार्ड “रद्द” कर दिया गया है.

परिवार ने बताया कि उनके घर में अक्सर अनाज की कमी रहती थी. वे अक्सर भोजन की कमी के चलते खाना छोड़ देते थे और कभी-कभी उन्हें अपने पड़ोसियों से थोड़ा-बहुत चावल उधार लेने पड़ते थे. बुदुनी हेम्ब्रम ने कहा, “चावल हमारा प्राथमिक भोजन था और बाकी हमें जो कुछ भी मिलता था हम वो खाते थे.”

इस दंपति ने अपने दो बच्चों का नामांकन नीलकंठपुर प्राथमिक विद्यालय में किया था. जिसमें 105 छात्र थे, कुल मिलाकर 51 लड़के, 54 लड़कियां और एक हेडमास्टर सहित तीन शिक्षक थे.

ग्रामीणों और शिक्षकों ने कहा कि छात्रों को नियमित रूप से मिड-डे मील मिल रहा है. 

25 फरवरी तक मिड-डे मील स्टॉक रजिस्टर के आंकड़ों से पता चलता है कि स्कूल के चावल के स्टॉक में 0.47 क्विंटल की कमी थी. अर्जुन हेम्ब्रम की मृत्यु के बाद ही स्कूल को चावल का अधिक स्टॉक प्राप्त हुआ.

नौ महीने और एक तीन साल की बच्ची का पंजीकरण पास के ही मिनी आंगनबाड़ी केंद्र में कराया गया था जो दो गांवों की सेवा करता है. आंगनबाड़ी बच्चों और गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य और पोषण की देखभाल करती हैं.

इस आंगनवाड़ी केंद्र में 37 पंजीकृत लाभार्थी थे. तीन से छह साल की उम्र के 19 बच्चे, छह महीने से तीन साल की उम्र के 16 बच्चे और दो गर्भवती महिलाएं. फैक्ट फाइंडिंग टीम ने पाया कि दो बच्चों के पैरामीटर गंभीर तीव्र कुपोषण और पांच मध्यम तीव्र कुपोषण के संकेतक थे.

बेहद कम मजदूरी

तुलसी और बांकू खेतिहर मजदूरों के रूप में काम करते हैं. अगर उन्हें काम मिलता है तो वे हर दिन 250 रुपये से 500 रुपये के बीच कमाते हैं. तुलसी घर की मुख्य रूप से कमाने वाली सदस्य है.

दोनों माता-पिता के पास राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना या नरेगा के लिए उनके नाम पर जॉब कार्ड नहीं थे. 

नरेगा कार्ड का मतलब किसी भी ग्रामीण परिवार को साल में 100 दिन तक काम देना जरूरी है. पहले जॉब कार्ड के तहत दोनों को सूचीबद्ध किया गया था लेकिन ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के पोर्टल के डेटा से पता चला कि यह कार्ड भी जनवरी 2017 में हटा दिया गया था.

आधिकारिक डेटा के मुताबिक रानागुंडी ग्राम पंचायत, जिसके अंतर्गत घाटिसही गांव आता है. यहां के आधे निवासियों को ही जॉब कार्ड मिला है यानि 747 में से 378 को जॉब कार्ड जारी किए गए हैं जो कि 18 अप्रैल तक सक्रिय थे.

इसका मतलब है कि पिछले तीन वित्तीय वर्षों में किए गए काम के रूप में सिर्फ 378 परिवारों ने कम से कम एक दिन का पंजीकरण कराया है. प्रति परिवार प्रदान किए गए रोज़गार के औसत दिन 35.42 थे और सिर्फ सात परिवारों ने योजना के तहत 100 दिनों का रोजगार पूरा किया था.

गांव के सरपंच ने कहा कि इस साल नेशनल मोबाइल मॉनिटरिंग सिस्टम एप्लीकेशन की वजह से पंचायत में काफी काम प्रभावित हुआ है. जनवरी से रोजगार गारंटी योजना के तहत श्रमिकों की उपस्थिति मोबाईल एप्लीकेशन के माध्यम से अनिवार्य रूप से दर्ज की जानी है.

सुपरवाइजर को उन लोगों की सुबह और शाम ली गई दो तस्वीरें अपलोड करनी होंगी जो मजदूर काम करने के लिए आए थे. लेकिन वर्कस और कार्यकर्ताओं का कहना है कि नए नियम से कई ग्रामीण क्षेत्रों में खराब कनेक्टिविटी के चलते काम प्रभावित हुआ है.

स्थिति में सुधार के उपाय

अभी के लिए ग्राम पंचायत ने 29 मार्च को हेम्ब्रम परिवार के लिए राहत के रूप में 50 किलो चावल दिए हैं. उन्हें एक नया राशन कार्ड भी दिया गया जिसमें उनके घर के सभी सदस्यों के नाम शामिल हैं.

कुपोषण के मामलों की जांच के लिए राज्य सरकार को हर महीने आंगनवाड़ी केंद्रों में बच्चों का वजन और कुपोषण माप शुरू करने के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए.

खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में कई खामियां हैं जिन्हें तत्काल दूर किया जाना चाहिए. एक घर के सभी सदस्यों को राशन कार्ड में जोड़ने के लिए उचित मैकेनिज्म के साथ एक निर्बाध पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम सुनिश्चित करने के प्रयास किए जाने चाहिए.

आंगनवाड़ी केंद्रों और स्कूलों को सरप्लस अनाज उपलब्ध कराया जाना चाहिए. जबकि लाभार्थियों को उनके मिड-डे मील और समय पर घर ले जाने के लिए राशन सुनिश्चित करने के लिए ऑडिट सिस्टम को मजबूत किया जाना चाहिए.

राज्य को सभी ग्रामीण परिवारों के लिए ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत काम के साथ-साथ कई अलग-अलग कार्ड और बैंक खातों को जोड़ने और लिंक करने की परेशानी के बिना नौकरी सुरक्षा उपायों को भी आगे बढ़ाने की जरूरत है.

कुपोषण के आंकड़े

हालांकि, कुपोषण से जाजपुर जिला ही नहीं जूझ रहा है. राज्य के 12 जिलों में छह से 59 माह के बच्चों के बीच कुपोषण दर राष्ट्रीय दर से अधिक है. राष्ट्रीय स्तर पर इस श्रेणी के बच्चों की कुपोषण दर 67.1 प्रतिशत है, जबकि ओडिशा के 12 जिले में कुपोषण दर 70 प्रतिशत से अधिक है.

अनुगुल जिले में 75.3 प्रतिशत, बलांगीर में 74.9 प्रतिशत, बौद्ध में 68.7 प्रतिशत, कालाहांडी में 68.8 प्रतिशत, कोरापुट में 69.7 प्रतिशत, मालकानगिरी में 78.7 प्रतिशत, मयूरभंज में 71.7 प्रतिशत, नबरंगपुर में 70.8 प्रतिशत, नुआपाड़ा में 73.5 प्रतिशत, रायगडा में 73.5 प्रतिशत, सोनपुर 73.8 प्रतिशत और सुन्दरगड़ जिले में 77.1 प्रतिशत कुपोषण दर है.

बालेश्वर जिले में कुपोषण की दर सबसे कम 43.2 प्रतिशत है. वहीं पूरे ओडिशा में कुपोषण की दर 64.2 प्रतिशत है. इसी तरह से राज्य में पांच साल से कम उम्र के 29.7 प्रतिशत बच्चे कम वजन के हैं जबकि राष्ट्रीय औसत 32.1 प्रतिशत है.

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