HomeAdivasi Dailyकेरल: कोविड ने 15,000 आदिवासी छात्रों को किया पढ़ाई छोड़ने पर मजबूर

केरल: कोविड ने 15,000 आदिवासी छात्रों को किया पढ़ाई छोड़ने पर मजबूर

एक तरफ़ जहां आदिवासी होस्टल और मॉडल रेज़िडेंशियल स्कूलों में पढ़ने वाले छात्र अपनी पढ़ाई को गंभीरता से लेते हैं, क्योंकि उन्हें भोजन और आवास के बारे में चिंता नहीं करनी पड़ती. तो दूसरी तरफ़ बच्चे अपने परिवार से दूर रहने का तनाव भी महसूस करते हैं.

केरल में बारहवीं कक्षा में पढ़ने वाले क़रीब 30% आदिवासी छात्रों ने पिछले एक साल में पढ़ाई छोड़ दी है. आदिवासियों के बीच काम करने वाले कार्यकर्ताओं का कहना है कि कोविड लॉकडाउन की वजह से शिक्षा के ऑनलाइन शिफ़्ट होने के चलते ऐसा हुआ है.

राज्य में लगभग 70,000 आदिवासी छात्र हैं, जिनमें से 15,000 ट्राइबल होस्टल और मॉडल रेज़िडेंशियल स्कूलों में रहते थे.

इन छात्रों को होस्टल में भोजन, आवास और विशेष ट्यूशन दी जाती थी. बच्चे अपने माता-पिता के साथ सिर्फ़ गर्मी की छुट्टियों और ओणम, नवरात्री और क्रिसमस जैसे त्यौहारों के समय ही रहते थे.

इसके अलावा, आदिवासी बस्तियों में ही एकल शिक्षक स्कूल और सामुदायिक अध्ययन केंद्र हैं जहाँ शिक्षित युवा छात्रों को उनकी पढ़ाई में मदद करते थे.

लेकिन शिक्षा के ऑनलाइन शिफ़्ट होने के बाद, ज़्यादातर आदिवासी इलाक़ों, जो जंगलों में हैं, में इंटरनेट कनेक्टिविटी और टीवी नेटवर्क की अनुपलब्धता के चलते बच्चे क्लास में शामिल नहीं हो पा रहे हैं.

एर्णाकुलम ज़िले के कुट्टमपुझा में ऑनलाइन क्लास में हिस्सा लेते आदिवासी बच्चे

कुछ इलाक़ों में शिक्षकों और स्वयंसेवकों ने टीवी सेट और कक्षाओं को रिकॉर्ड कर पेन ड्राइव में डालकर बच्चों तक पहुंचाए. हालाँकि, आदिवासी बच्चों को भाषा की दिक्कत और व्यावहारिक कठिनाइयों की वजह से ऑनलाइन क्लास फ़ॉलो करने में मुश्किल हो रही है.

जब से बच्चे होस्टल छोड़कर घर पर बैठे हैं, तब से वो रोज़ वनोपज इकट्ठा करने अपने माता-पिता के साथ जंगल जाते हैं क्योंकि घर पर उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं होता. दूसरी वजह है कि आदिवासी बस्तियों में ज़्यादातर माता-पिता अशिक्षित हैं, और बच्चों को प्रेरित करने वाला कोई नहीं है.

अकेले निलंबूर इलाक़े में लगभग 15,000 आदिवासी छात्र हैं, जिनमें से 14,000 ने पढ़ाई छोड़ दी है. पिछले साल कार्यकर्ताओं द्वारा विरोध प्रदर्शन किए जाने के बाद आदिवासी होस्टल को चार महीने के लिए खोल दिया गया था.

लेकिन यह एक दोधारी तलवार है.

एक तरफ़ जहां आदिवासी होस्टल और मॉडल रेज़िडेंशियल स्कूलों में पढ़ने वाले छात्र अपनी पढ़ाई को गंभीरता से लेते हैं, क्योंकि उन्हें भोजन और आवास के बारे में चिंता नहीं करनी पड़ती. तो दूसरी तरफ़ बच्चे अपने परिवार से दूर रहने का तनाव भी महसूस करते हैं.

ज्यादातर आदिवासी बच्चों को शहरों में रहना अच्छा नहीं लगता. ऊपर से सेंट्रलाइज़्ड अलॉटमेंट की वजह से छात्रों को अक्सर अपने गांवों से दूर के होस्टल में प्रवेश मिलता है, जिससे उनका अपने माता-पिता से मिलना मुश्किल हो जाता है. हॉस्टल में रहने वाले बच्चे अपनी ज़मीन और जंगल से भी दूर हो जाते हैं.

पिछले एक साल में उन्हें घर पर अपने परिवार के साथ रहने की आदत हो गई है, तो उनकी पढ़ाई को लेकर चिंता कम हो गई है.

वन और आदिवासी कल्याण विभागों ने कई आदिवासी बस्तियों में टीवी सेट और मोबाइल फ़ोन उपलब्ध कराए हैं, लेकिन बच्चों में प्रेरणा की कमी है. कक्षाएं इंटरैक्टिव नहीं हैं और बच्चों को व्यस्त रखने की कोई व्यवस्था नहीं है. इसके अलावा ख़राब इंटरनेट और बार-बार बिजली चले जाना उनकी पढ़ाई में एक बड़ी अड़चन हैं.

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