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आदिवासी हक़ों की कटौती की आशंका और नए वन नियमों की होगी समीक्षा

आदिवासियों को भूमि और अन्य पारंपरिक अधिकार प्रदान करने वाले ऐतिहासिक कानून के रूप में, एफआरए यह निर्धारित करता है कि किसी परियोजना या अन्य कारण से वन भूमि के डायवर्जन से पहले क़ानून में मान्यता प्राप्त अधिकारों का निपटारा किया जाएगा और 'ग्राम सभा' की सहमति ली जाएगी.

इस विवाद के जवाब में कि क्या वन संरक्षण अधिनियम के तहत अधिसूचित नए नियम वनवासियों के अधिकारों को कमजोर करते हैं, राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (National Commission for Scheduled Tribes) ने इस विषय का अध्ययन करने के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया है, जिसमें वन अधिकार प्रदान करने वाले प्रमुख कानून और अनुसूचित जनजाति से संबंधित अन्य मुद्दे शामिल हैं.

“कार्य समूह” एफआरए, 2006 और “वन और अनुसूचित जनजाति से संबंधित अन्य मुद्दों” की जांच करेगा. हालांकि इसके संदर्भ की शर्तों को अभी अंतिम रूप दिया जाना बाकी है. छह व्यक्तियों वाले इस पैनल की अध्यक्षता एनसीएसटी के सदस्य अनंत नायक करेंगे.

अनुसूचित जनजाति आयोग को यह फीडबैक मिला था कि नए नियम यानि पर्यावरण नियम, 2022 से यह संदेश गया है कि अब ग्राम सभाओं की जगह नौकरशाही हावी होगी. आयोग को यह भी महसूस हुआ है कि इन नियमों के बाद यह माना जा रहा है कि वन काटने के लिए ग्राम सभाओं की मंज़ूरी की शर्त को कमज़ोर कर दिया गया है.

आदिवासियों को भूमि और अन्य पारंपरिक अधिकार प्रदान करने वाले ऐतिहासिक कानून के रूप में, एफआरए यह निर्धारित करता है कि किसी परियोजना या अन्य कारण से वन भूमि के डायवर्जन से पहले क़ानून में मान्यता प्राप्त अधिकारों का निपटारा किया जाएगा और ‘ग्राम सभा’ की सहमति ली जाएगी.

कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि केंद्र सरकार द्वारा वन मंजूरी के लिए “अंतिम मंजूरी” दिए जाने के बाद वन अधिकारों के निपटारे की अनुमति देकर नए नियम इस वैधानिक प्रावधान का उल्लंघन करते हैं.

राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने एनसीएसटी के अध्यक्ष हर्ष चौहान को पत्र लिखकर वन डायवर्जन की मंजूरी से पहले एफआरए का अनुपालन सुनिश्चित करने का आग्रह किया.

हालांकि, केंद्र ने आरोपों का खंडन किया है, वन मंत्री भूपेंद्र यादव ने कहा, “नियम 2022 सिर्फ एफसीए के प्रावधानों को लागू करने के लिए प्रख्यापित किया गया है. किसी भी नियम या किसी अधिनियम के प्रावधानों को कमजोर नहीं किया जा रहा है. अंतिम निर्णय पर पहुंचने के लिए समय सीमा को कम करने के लिए प्रक्रिया को सुव्यवस्थित किया गया है… नियम, 2022 में परिकल्पित प्रक्रियाएं और प्रावधान, एफआरए सहित अन्य वैधानिक कानूनों के साथ असंगत नहीं हैं, जिनका अनुपालन उनकी संबंधित नोडल कार्यान्वयन एजेंसियों द्वारा समय अंतराल और शामिल लागत को कम करने के लिए एक साथ सुनिश्चित किया जा सकता है.”

वन संरक्षण नियम, 2022 को लेकर विवाद क्यों?

28 जून 2022 को केंद्र सरकार ने वन संरक्षण कानून 1980 के अंतर्गत, वन संरक्षण नियम, 2022 की अधिसूचना सार्वजनिक रूप से जारी की. वन संरक्षण कानून, 2022 के तहत केंद्र सरकार किसी भी निजी कंपनी या संस्था/ठेकेदार को बिना आदिवासियों की अनुमति लिए जंगल काटने की अनुमति दे सकती है.

केंद्र सरकार से अनुमति मिल जाने के बाद यह राज्य सरकार की जिम्मेदारी होगी कि वो उस जंगल में या उसके आसपास रह रहे लोगों से या जिन लोगों के उस वन भूमि पर वन अधिकार कानून, 2006 के तहत दावे है उनसे अनुमति हासिल करें.

लेकिन अगर केंद्र सरकार पहले अनुमति दे देती है तो उसके बाद राज्य सरकार के द्वारा लोगों की अनुमति हासिल करना एक तरह का मजाक नहीं होगा? उनके पास ज़बरदस्ती आदिवासियों से अनुमति लेने के अलावा और कोई रास्ता नहीं होगा.

इस नियम के अंतर्गत जब केंद्र सरकार निजी कंपनी या ठेकेदार को जंगल काटने की अनुमति देती है उसी समय वह उनसे प्रतिपूरक वनीकरण (Compensatory afforestation) के लिए पूंजी भी ले लेगी जिसका उपयोग बाद में वन विभाग के द्वारा पेड़ लगाने और वनीकरण के लिए किया जाएगा. ऐसा कहा जा रहा है हालांकि ऐसा वास्तव में होगा ये तो बाद की बात है.

वन अधिकार कानून, 2006 के तहत किसी भी आदिवासी क्षेत्र में बिना ग्राम सभा की अनुमति लिए कोई भी प्रोजेक्ट शुरू नहीं हो सकता था, जिसमें वनोन्मूलन (वनों की कटाई) भी शामिल थी. लेकिन आदिवासी इलाकों में रहने वाले या वहां काम करने वाले लोग जानते है कि यह कानून होने के बावजूद हकीकत में अक्सर इसका पालन ठीक से नहीं होता है.

कई बार उस इलाके में रहने वाले आदिवासियों को पता ही नहीं चलता कि कोई प्रोजेक्ट उनके क्षेत्र में आने वाला है और फर्जी हस्ताक्षर लेकर ग्राम सभा से झूठी अनुमति मिल जाती है.

ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जहां किसी परियोजना को अनुमति कागज पर मिल गई है पर स्थानीय लोगों को इसके बारे में पता ही नहीं है और जब असल में वो काम शुरू करके जंगल काटने लगते है तब आदिवासियों को उस परियोजना या प्रोजेक्ट के बारे में पता चलता है.

ऐसे में जब वन अधिकार कानून, 2006 के अंतर्गत आदिवासियों से पूर्व अनुमति लेना अनिवार्य था तब तो लोगों की अनुमति वास्तविक और प्रभावी तरीके से हमेशा नहीं ली जा रही थी. अब जब यह नियम अनुमति लेने की जरूरत को ही समाप्त कर दे रहा है तब आदिवासियों के जंगल पर अधिकार, उनकी जंगल आधारित जिंदगी और जंगलों का क्या होगा?

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