सुशीला समद ऐसी पहली आदिवासी महिला थी, जिन्होंने महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया.
उन्होंने सत्याग्रह के शुरूआती दौर में झारखंड के आदिवासी महिलाओं का नृतत्व किया था.
इसके अलावा वे देश की पहली महिला आदिवासी संपादक भी रही है.
आज सिर्फ वरिष्ठ आदिवासी नेता ही नहीं, बल्कि मुख्यधारा समाज के लोग भी अपने भाषणों में इनकी मिसाल देते है.
मसलन कुछ महीने पहले हुए ‘ हमारा झारखंड हमारा गौरव ’ कार्यक्रम में वरिष्ठ साहित्यकार महादेव टोप्पों ने अपने भाषण में इनका उल्लेख किया था.
मुंडा आदिवासी महिला से संपादक तक की कहानी
सुशीला झारखंड के पश्चिमी सिंहभूभ के चक्रधरपुर इलाके की रहने वाली थी. उनका जन्म 1906 में मुंडा आदिवासी परिवार में हुआ था. वे बचपन से ही पढ़ाई में उत्तीर्ण थी. उन्होंने प्रयाग महिला विश्वविद्यालय से हिंदी में डिग्री हासिल की.
उनकी हमेशा से हिंदी साहित्य में रूचि रही थी. उन्होंने सिर्फ हिंदी में ही नहीं बल्कि अपनी मातृभाषा में भी कई कविताएं लिखी है. जिनमें 1935 की प्रलाप और 1948 की सपनो का संसार शामिल है.
वे कवयित्री के साथ-साथ पत्रकार, संपादक और प्रकाशक भी रही है. उन्होंने 1925 से 1930 तक चांदनी की संपादन और प्रकाशन के रूप में काम किया. इसके अलावा उन्होंने विधान परिषद के रूप में काम किया है.
नमक सत्याग्रह में निभाई अहम भूमिका
12 मार्च 1930 को महात्मा गांधी ने नमक सत्याग्रह की शुरूआत की थी. सत्याग्रह की शुरूआती दौर से ही सुशीला झारखंड क्षेत्र के आदिवासी महिलाओं का नेतृत्व कर रही थी.
वे नमक सत्याग्रह में भाग लेने वाली पहली आदिवासी महिला रही है.
स्वतंत्रता संग्राम में अपने अतुल भागीदारी के लिए उन्होंने अपने डेढ़ साल के बच्चे को छोड़ा था.
इसके अलावा खरसावां में हुए 1 जनवरी 1948 के संघंर्ष में भी इनकी अहम भूमिका रही. इस संघंर्ष में सैकड़ों लोग घयाल हुए थे और इनमे से कई लोगों मृत्यु हुई थी
उस समय सुशीला घायलों की मदद करने में सबसे आगे रही.
स्वतंत्रता संग्राम के समय के बड़े-बडे पत्रकार और संपादक सुशीला का उल्लेख करते थे.
1934 में सरस्वती पत्रिका के संपादक देवीदत्त शुक्ल ने सुशीला समद के बारे में लिखा ‘सरल शब्दों में भावों को कविता का रूप देने में सुशीला ने कमाल हासिल किया है.’
10 दिंसबर 1960 को सुशीला समद का निधन हो गया.