पश्चिमी घाट की ख़ूबसूरत पहाड़ियों में दबे पांव एक क्रांति हो रही है. जंगलों के इकोलॉजिकल संतुलन को बनाए रखने के लिए आदिवासियों को ट्रेनिंग दी जा रही है. फ़ॉरेस्ट-प्लस 2.0 नाम की एक योजना के तहत आदिवासियों को जंगल का संतुलन बिगाड़े बिना वनोपज इकट्ठा करने, और उसे बेचने की ट्रेनिंग दी जा रही है.
इसी योजना के तहत इस पहाड़ी श्रृंखला की अगस्त्यमलाई पहाड़ियों की काणी आदिवासी बस्तियों के निवासी मधुमक्खी पालन के बेहतर तरीकों के बारे में सीख भी रहे हैं और जागरुकता भी पैदा कर रहे हैं.
Forest-Plus 2.0: Forest for Water and Prosperity परियोजना यूएस एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (USAID) और केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय द्वारा शुरू की गई है.
फ़ॉरेस्ट-प्लस 2.0 का उद्देश्य जंगल के लैंडस्केप में सुधार करना, और आस-पास की बस्तियों में रहने वाले आदिवासी लोगों के लिए आर्थिक अवसर बढ़ाना है. परियोजना आदिवासियों को जंगल के ईकोसिस्टम को मज़बूत करने के लिए मशीन और तकनीक विकसित करने में मदद करती है.
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पांच साल का यह कार्यक्रम फ़िलहाल तीन इलाकों – केरल, बिहार और तेलंगाना में जंगलों पर केंद्रित है. परियोजना की टीम ने काणी आदिवासी समुदाय के लोगों के लिए केरल वन विभाग के सहयोग से वर्कशॉप्स का आयोजन किया.
इन वर्कशॉप्स का नतीजा यह है कि यहां के काणी आदिवासी समुदाय के लगभग 70 परिवार अब मधुमक्खी पालन में लगे हैं. कार्यक्रम में महिलाओं की हिस्सेदारी भी बढ़ी है. कई आदिवासी वनोपज की कटाई के लिए अब सस्टेनेबल तरीक़ों का इस्तेमाल कर रहे हैं.
अगस्त्यमलई अलग-अलग तरह की वनस्पतियों का घर है जैसे कि काला डैमर का पेड़, जो एक रेसिन पैदा करता है जिसका इस्तेमाल प्राकृतिक अगरबत्ती और इंसेक्ट रिपेलेंट्स में होता है. इस रेसिन को त्वचा रोगों के इलाज के लिए भी किया जाता है.
परियोजना से जुड़े अधिकारियों के मुताबिक़ परियोजना पेड़ों के फ़ायदों के बारे में जागरुकता पैदा करती है और आदिवासियों को अपने उत्पादों की बिक्री के लिए आधुनिक तरीक़े बताती है.
परियोजना का मक़सद भले ही पर्यावरण के लिए अच्छा हो, लेकिन यह बी सच है कि आदिवासी समुदाय सदियों से प्रकृति के बीच और उसके अनुरूप रहते आए हैं. जंगलों के ईकोसिस्टम को संतुलित रखने का ज़िम्मा सिर्फ़ उनका नहीं हो सकता.
हां, अपनी सदियों पुरानी तकनीक़ों से आगे बढ़कर नए, आधुनिक तौर-तरीक़े अपनाने के लिए उनकी तारीफ़ ज़रूर की जानी चाहिए.