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सुप्रीम कोर्ट 70 लाख से ज़्यादा आदिवासियों और वन निवासियों के भविष्य का फैसला करेगा

16 लाख से अधिक आदिवासी और वन निवासी परिवारों पर एक बार फिर से बेदखली का खतरा मंडरा रहा है क्योंकि वन भूमि पर उनके दावों को राज्य सरकारों द्वारा खारिज कर दिया गया है. अब यह मामला फ़ाइनल सुनवाई की स्टेज पर है. उम्मीद की जा रही है कि सुप्रीम कोर्ट अब कभी भी इस मामले में फ़ैसला सुना सकता है.

वनाधिकार कानून (FRA) आदिवासी और वन-निवासी समुदायों के व्यक्तिगत अधिकारों, सामुदायिक अधिकारों और अन्य वन अधिकारों को मान्यता देता है, जिनका 13 दिसंबर 2005 को या उससे पहले वन भूमि का कब्जा था.

इस मामले में, 13 फरवरी, 2019 को शीर्ष अदालत ने राज्यों को निर्देश दिया था कि जिनका दावा खारिज हो गया है उन्हें वह बेदखल कर सकता हैं.

लेकिन उस समय तक लाखों की संख्या में वन-भूमि अधिकारों के दावे दायर होने बाकी थे. इसके साथ ही कोर्ट ने राज्यों को अस्वीकृत किए दावों की समीक्षा करने और 4 महीने के भीतर रिपोर्ट या हलफनामे प्रस्तुत करने का भी निर्देश दिया था.

हालांकि जनजातीय मामलों के मंत्रालय (Ministry of Tribal Affairs) के हस्तक्षेप के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फ़ैसले पर रोक लगा दी थी. जनजातीय मंत्रालय वन अधिकार कानून को लागू करने के लिए नोडल मंत्रालय भी है.

सुप्रीम कोर्ट ने 28 फरवरी 2019 को इस फैसले पर रोक लगा दी गई थी. आदिवासी मंत्रालय ने राज्य सरकारों द्वारा खारिज किए गए दावों में कमियों को उजागर करते हुए आदेश का विरोध किया था.

जनजातीय मामलों के मंत्रालय के नए डेटा के अनुसार, जून 2022 तक दायर किए गए 42.76 लाख व्यक्तिगत दावों में से लगभग 38 प्रतिशत यानी 16.33 लाख दावों को खारिज कर दिया गया था. इसी तरह दायर किए गए 1.69 लाख सामुदायिक दावों में से 40 हज़ार 422 दावों को खारिज कर दिया गया था.

वहीं, 2019 के बेदखली आदेश और जून 2022 के बीच के तीन वर्षों में, राज्यों में व्यक्तिगत दावों की संख्या में 1.92 लाख और सामुदायिक अधिकारों में 20 हज़ार 752 की वृद्धि हुई है. विभिन्न स्तरों पर अस्वीकृत आदेशों की समीक्षा के आदिवासियों के पक्ष में काम करने की उम्मीद थी.

2019 में सुप्रीम कोर्ट ने बेदखली का जो आदेश दिया था वह लगभग 17.1 लाख व्यक्तिगत परिवारों को विस्थापित करने वाला था. अगर सुप्रीम कोर्ट अपने पिछले आदेश को बरकरार रखता है तो 16.3 लाख से अधिक परिवारों पर अभी भी बेदखली की तलवार लटकी हुई है.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक भारतीय परिवार का औसत आकार 4.8 है. अगर परिवार की संख्या के इस औसत को आधार बनाया जाए तो करीब 78 लाख व्यक्तियों को उनकी (स्थानीय) भूमि से बेदखल कर दिया जाएगा.

हालांकि उस समय की गई समीक्षा प्रक्रिया के बाद, खारिज किए गए व्यक्तिगत दावों की संख्या में मामूली कमी आई हैं. यह घटकर 17.10 लाख से 16.33 लाख और सामुदायिक दावों की संख्या 45,045 से 40,422 हो गई हैं.

जब सुप्रीम कोर्ट ने मामले में बेदखली का आदेश दिया था, तो जनजातीय संगठनों के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन किये थे. इन प्रदर्शनों के दबाव में केंद्र सरकार को अदालत से आदेश को वापस लेने का आग्रह करना पड़ा.

वन अधिकार क़ानून कैसे काम करता है

दावों की प्रक्रिया जांच के तीन स्तरों से गुजरती है. पहले वन भूमि अधिकारों का दावा करने वाले व्यक्तियों और समुदायों को अपने संबंधित गांवों की ग्राम सभाओं में आवेदन दाखिल करना होता है.

पहले स्तर पर वन अधिकार समिति ग्राम सभा सदस्यों और ग्रामीणों से मिलकर आवेदनों की जांच करती हैं और आगे की जांच के लिए उप-मंडल (तहसील) स्तर की समिति (एसडीएलसी) अगले स्तर पर वैध दावों की सिफारिश करती हैं.

एसडीएलसी का नेतृत्व एक उप-मंडल अधिकारी करता है और सदस्यों के रूप में वन और पंचायत अधिकारी शामिल होते है. यह जिला स्तरीय समिति (डीएलसी) के अंतिम स्तर पर विचार के लिए दावों की सिफारिश करता है.

डीएलसी का नेतृत्व जिला कलेक्टर करता है, जिसके सदस्यों में से एक के रूप में संभागीय वन अधिकारी या उप वन संरक्षक होता है. अगर डीएलसी एक दावे को मंजूरी देता है तो सरकार भूमि का मालिकाना हक देती है. अगर कोई दावा खारिज कर दिया जाता है तो दावेदार ग्राम सभा में अपील कर सकते हैं.

आदिवासी मामलों के मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, जून 2022 तक कम से कम 10 लाख व्यक्तिगत दावों को खारिज कर दिया गया था या SDLC और DLC स्तरों पर लंबित थे.

27 फरवरी, 2019 से 30 अगस्त, 2022 तक मामले की अंतिम सुनवाई के दिन तक सिर्फ नौ राज्य (झारखंड, गोवा, नागालैंड, गुजरात, मणिपुर, बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल) और दो केंद्र शासित प्रदेश (पुडुचेरी और अंडमान और निकोबार) ने ही अपना हलफनामा दाखिल किया था.

मध्य प्रदेश में क्या हुआ?

फरवरी 2019 के अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों से यह भी ब्योरा देने को कहा था कि क्या “आदिवासियों को सबूत पेश करने का अवसर दिया गया था” जब उनके दावे खारिज कर दिए गए थे.

लगभग पांच महीने बाद 8 जुलाई, 2019 को, मध्य प्रदेश आदिवासी कल्याण विभाग ने एक परिपत्र जारी कर डीएलसी को अस्वीकृत दावों की समीक्षा के लिए एक प्रस्ताव पारित करने का निर्देश दिया. (मध्य प्रदेश में छत्तीसगढ़ और ओडिशा के बाद तीसरे सबसे अधिक दावे प्राप्त हुए.)

2 अक्टूबर 2019 में मध्यप्रदेश सरकार ने ने ‘वनमित्र’ नामक एक वेब पोर्टल की शुरूआतें की थी. इस पोर्टल पर जिन आवेदकों के दावे खारिज कर दिए गए हैं वे अपने दावे अपलोड कर सकते हैं.

सरकार ने वन अधिकार समितियों (FRCs) का गठन किया और ग्राम पंचायतों के साथ पंचायत और ग्रामीण विकास विभाग में सहायकों को दावा दायर करने में आवेदकों की सहायता करने का निर्देश दिया.

एफआरसी, एसडीएलसी और डीएलसी को बाद में ‘वनमित्र’ पोर्टल पर ही आवेदनों की समीक्षा करने का काम सौंपा गया था. (मध्य प्रदेश एकमात्र ऐसा राज्य है जिसने समीक्षा प्रक्रिया को डिजिटल रूप से संचालित किया.

वन अधिकारों पर कानूनी शोधकर्ता शिवांक झांजी ने सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत एक आवेदन दायर किया और कुछ जानकारी प्राप्त की. जिसके अनुसार, समीक्षा प्रक्रिया शुरू होने से पहले राज्य में लगभग 3.49 लाख व्यक्तिगत दावों को खारिज कर दिया गया था.

उनमें से लगभग 2.69 लाख आदिवासी व्यक्तियों और वन निवासियों ने ‘वनमित्र’ पर अपने दावों की समीक्षा के लिए फिर से आवेदन किया. उनमें से कम से कम 2.36 लाख दावे यानी 87 प्रतिशत एक बार फिर खारिज कर दिए गए या लंबित रखे गए.

लगभग 80 हज़ार दावेदार जिनके दावे पहले खारिज कर दिए गए थे उन्होंने समीक्षा के लिए आवेदन नहीं किया. अक्टूबर 2019 से जून 2021 के बीच ‘वनमित्र’ पर 4.19 लाख दावे अपलोड किए गए. उनमें से एफआरसी ने 2.69 लाख को पहले खारिज किए दावों के रूप में और शेष को उस समय नए या असत्यापित दावों के रूप में पहचाना.

इसके बाद एफआरसी ने 59 हज़ार 460 दावों को मंजूरी दी, एसडीएलसी ने 39 हज़ार 137 को मंजूरी दी और डीएलसी ने 32 हज़ार 935 को मंजूरी दी. जून 2022 तक राज्य में 5.85 लाख व्यक्तिगत दावे दायर किए गए थे और आधे से अधिक यानी 3.10 लाख दावों को खारिज कर दिया गया था.

यह खारिज किए गए दावों की समीक्षा करने के बाद था. जबकि कई राज्यों ने अभी तक अस्वीकृत दावों की समीक्षा की स्थिति पर हलफनामा भी प्रस्तुत नहीं किया है.

वहीं, मध्य प्रदेश सरकार ने अधिकांश दावे अस्वीकृति के कारणों के बारे में सूचित नहीं किया और समीक्षा प्रक्रिया में अपनाई गई प्रक्रिया की बाबत भी सवालों के जवाब नहीं मिले हैं.

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