कोरोना काल में ऑनलाइन क्लास ही छात्रों का एकमात्र सहारा रही है. कोरोना महामारी के चलते स्कूल बंद होने से मोबाइल पर ऑनलाइन पढ़ाई का ट्रेंड तेजी से बढ़ा. लेकिन अभी भी देश के कई इलाके ऐसे हैं जहां मोबाइल पर ऑनलाइन पढ़ाई करना किसी चुनौती से कम नहीं है.
खासकर गरीब आदिवासी परिवारों के छात्रों को ऑनलाइन कक्षाएं करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि उनमें से कई के पास स्मार्टफोन नहीं हैं. अगर किसी के पास फोन है तो इंटरनेट नेटवर्क की समस्या है.
लेकिन केरल के वायनाड जिले के आदिवासी बस्तियों के निवासियों के लिए मोबाइल फोन और इंटरनेट नेटवर्क से इत्तर भी एक और समस्या है और वो है बिजली आपूर्ति की कमी. क्योंकि यहां जिन लोगों के पास मोबाइल फोन उपलब्ध है वो बिजली नहीं होने से फोन की बैटरी खत्म होने पर उसे चार्ज नहीं कर पाते हैं.
अश्वती की 11वीं कक्षा की परीक्षा 6 सितंबर से शुरू होगी लेकिन उन्होंने अभी तक ये तय नहीं किया है कि इसमें शामिल होना है या नहीं. अश्वती ने कहा, “मैं परीक्षा में क्यों बैठूं? क्योंकि मैंने पिछले एक साल में कुछ नहीं सीखा है. अगर मैं इसमें शामिल होती हूं तो मैं निश्चित रूप से फ़ेल हो जाऊंगी.”
अश्वती की सहेली अंजना भी परीक्षा को लेकर चिंतित है. वो कहती हैं, “हम इसके लिए तैयार नहीं हैं. हम ‘पावरलेस’ छात्र हैं.”
छात्रों ने जो साफ तौर पर कहने की कोशिश की वो ये है कि सिर्फ उनकी गरीबी ही नहीं बल्कि बिजली की आपूर्ति की कमी भी है जो वायनाड जिले के माडमकुन्नू आदिवासी बस्ती में 31 छात्रों की पढ़ाई को तब से प्रभावित कर रही है जब से स्कूल कोरोना महामारी के चलते बंद है और उसके बाद शिक्षा ऑनलाइन और डिजिटल मोड में बदला है.
यहां सभी छात्रों के पास मोबाइल फोन या डिजिटल लर्निंग डिवाइस नहीं हैं. हालांकि जिन लोगों के पास हैं उनके पास उसे चार्ज करने की सुविधा नहीं है. जब फोन की बैटरी खत्म हो जाती है तो वो अपनी कॉलोनी से बाहर निकल जाते हैं और चार्ज करने के लिए करीब डेढ़ किलोमीटर दूर किराने की दुकान पर जाते हैं. लेकिन उन्हें ये सुविधा मुफ्त में नहीं मिलती बल्कि हर बार इसके लिए तीन रुपये देने पड़ते हैं.
बैटरी जल्दी खत्म हो जाती है क्योंकि कई लोग अलग-अलग कामों के लिए फोन का इस्तेमाल करते हैं.
मुट्टिल ग्राम पंचायत में कारप्पुझा जलाशय के तट पर स्थित माडमकुन्नू आदिवासी बस्ती कलपेट्टा के वायनाड जिला मुख्यालय से 15 किलोमीटर पूर्व में है.
कारप्पुझा बांध का काम 1978 में शुरू हुआ था और इसे 2005 में चालू किया गया था. इस परियोजना ने 168 परिवारों को विस्थापित किया लेकिन उनमें से सिर्फ आधे को अब तक स्थानांतरित किया गया है. बाकी परिवार अभी भी बांध के जलग्रहण क्षेत्र में रहते हैं.
सरकार माडमकुन्नू में उन्हें जमीन आवंटित करने के लिए सैद्धांतिक रूप से सहमत हो गई है लेकिन ये प्रक्रिया धीमी गति से आगे बढ़ रही है. वहीं सिंचाई विभाग यहां के निवासियों को अनाधिकृत निवासी मानता है और इससे कॉलोनी को बिजली उपलब्ध कराने में बाधा आती है.
कॉलोनी के सभी छोटे घर मिट्टी के बने हैं और तिरपाल की चादरों से ढके हुए हैं. तीन साल पहले आदिवासी विभाग ने सिर्फ एक लैंप जलाने के लिए तिरपाल की चादरों के ऊपर सोलर पैनल लगाए थे. लेकिन वो पैनल अब काम ही नहीं करते.
कारप्पुझा सिंचाई परियोजना के एक्जीक्यूटिव इंजीनियर ने इस साल जुलाई में मुट्टिल ग्राम पंचायत के अनुरोध पर विचार करने के बाद सिर्फ ‘शिक्षा उद्देश्य के लिए’ बिजली कनेक्शन की अनुमति दी थी. विद्युतीकरण को स्वीकृत हुए दो महीने बीत चुके हैं लेकिन बिजली आपूर्ति अभी भी निवासियों के लिए एक सपना बनी हुई है.
एक्जीक्यूटिव इंजीनियर ने कहा, “हमने सिर्फ शैक्षिक उद्देश्यों के लिए कॉलोनी का विद्युतीकरण करने की अनुमति दी है. इसके बाद इसको कार्यान्वित करने की जिम्मेदारी मुट्टिल ग्राम पंचायत की है.”
माडमकुन्नू से ग्राम पंचायत परिषद के सदस्य पीवी संजीव को उम्मीद है कि केरल राज्य बिजली बोर्ड (KSEB) इस प्रक्रिया को गति देगा. उन्होंने कहा कि उन्हें नहीं पता कि इसमें देरी क्यों हो रही है.
डिजिटल शिक्षा मोड में छात्रों को शिक्षा विभाग के काइट-विक्टर्स चैनल पर प्रसारित होने वाली कक्षाएं देखनी होती हैं. जिसके बाद उन्हें व्हाट्सएप जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के माध्यम से शिक्षकों द्वारा दिए गए होमवर्क को पूरा करना होता है.
इस तरह की बुनियादी शिक्षा सुविधाओं के अभाव में छात्रों को एक स्टडी सेंटर में जाना पड़ता है जहां वो टेलीविजन पर कक्षाएं देख सकते हैं और शिक्षकों द्वारा कक्षाओं में भाग ले सकते हैं. हालांकि ज्यादातर छात्र कक्षाओं को मिस कर देते हैं क्योंकि ये सेंटर बहुत दूर है.
स्टडी सेंटर के शुरू होने से पहले आदिवासी विभाग द्वारा नियुक्त किए गए शिक्षक, जिन्हें मेंटर टीचर के रूप में जाना जाता है, वो वायनाड जिले के सभी आदिवासी बस्तियों का दौरा किया करते थे. वो छात्रों पर व्यक्तिगत तौर ध्यान देते थे. इतना ही नहीं ये शिक्षक माडमकुन्नू में छात्रों के लिए पूरी तरह से चार्ज किए गए मोबाइल फोन लाते थे.
यहां के निवासियों का कहना है कि बच्चे पहले कभी क्लास मिस नहीं करते थे जब मेंटर टीचर हमारे गाँव आते थे. वो उन्हें होमवर्क पूरा करने और उनकी शंकाओं का समाधान करने में मदद करते थे. लेकिन कोविड के तेजी से फैलने के चलते आदिवासी विभाग ने उनका कॉलोनी दौरा बंद कर दिया. जो इन आदिवासी बच्चों के लिए बहुत बड़े नुकसान की तरह सामने आया है.
निवासियों को लगता है कि अगर सरकार गांव को बिजली मुहैया कराती है तो उनका जीवन आसान और बेहतर हो जाएगा.
जीवन यापन के लिए अदरक और टैपिओका की खेती करने वाली साठ वर्षीय अम्मिणी बिजली के फायदे जानती हैं. उन्होंने कहा कि बिजली हमारे घरों में रोशनी लाएगा. छात्र अपने मोबाइल फोन को चार्ज कर सकते हैं और अगर हमें टीवी मिल जाए तो हम टीवी देख सकते हैं.
अधिकारियों का कहना है कि एकीकृत जनजातीय विकास कार्यक्रम (ITDP), जिसका उद्देश्य आदिवासियों के बीच गरीबी को कम करना और शैक्षिक स्थिति में सुधार करना है, शिक्षा के डिजिटल होने के बाद से कई मुद्दों का सामना कर रहा है.
आईटीडीपी के जिला परियोजना अधिकारी टीसी चेरियन कहते हैं कि वायनाड जिले में कक्षा 1 से 12 तक के 26,000 आदिवासी छात्र हैं. इसमें से 23,000 छात्रों के पास टैबलेट और लैपटॉप जैसे उपकरण नहीं हैं. जबकि वायनाड जिले के करीब 30 आदिवासी बस्तियों में इंटरनेट की सुविधा नहीं है.
उनका कहना है कि बिजली की कमी भी एक और बड़ा मुद्दा है लेकिन उन्हें उम्मीद है कि माडमकुन्नू के छात्रों को जल्द ही बिजली मिल जाएगी.