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दागना प्रथा – आदिवासी बच्चों को ख़तरे में डालती है

लोगों का मानना है कि 'शॉक ट्रीटमेंट' बच्चे के बीमार होने पर उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में मदद करता है. बच्चे के माथे, छाती या पेट पर छोटे-छोटे जलने के निशान बनाने के लिए दाई गर्म टूटी चूड़ियों या लोहे की दरांती का उपयोग करती हैं.

हाल ही में मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल शहडोल जिले से 45 दिन के एक मासूम बच्चे की टूटी हुई चूड़ियों को जला कर दागने का मामला सामने आया था. इसके बाद इलाज के दौरान मासूम ने दम तोड़ दिया.

दरअसल, राज्य के उमरिया जिले के बंधवा खुर्द गांव के दंपत्ति को अपने 45 दिन के बेटे राजन को खोए 20 दिन से ऊपर हो गए हैं. गांव से करीब 15 किलोमीटर दूर शहडोल जिला अस्पताल में नवंबर में जन्मे शिशु को निमोनिया था और उसे सांस लेने में तकलीफ हो रही थी. ऐसे में बीमारी को ‘ठीक’ करने के लिए बच्चे के पेट पर टूटी हुई चूड़ियों को जला कर दाग दिया गया.

इस घटना के बारे में बच्चे की मां के हवाले से बताया गया है कि बच्चे को सांस लेने में मुश्किल हो रही थी. उसके बच्चे के इलाज के लिए पड़ोसी और एक दाई ने बच्चे को चूड़ी से दागने का सुझाव दिया.

इसके साथ ही मां ने यह भी बताया कि उस समय बच्चे का पिता काम पर गया था. इसके अलावा गांव में ना तो कोई डॉक्टर है और ना ही ऐंबुलेंस की कोई व्यवस्था हो सकती थी.

इस घटना के बाद 21 दिसंबर को बच्चे को उस अस्पताल में ले जाया गया जहां उसका जन्म हुआ था. लगभग एक हफ्ते बाद उसकी मृत्यु हो गई.

बच्चे की मृत्यु की पहली घटना नहीं

यह इस तरह की पहली घटना नहीं है. दागना मध्य प्रदेश के कुछ आदिवासी समुदायों के बीच एक प्रथा है. जो राज्य के शहडोल संभाग के तीन जिलों शहडोल, उमरिया और अनुपपुर में बैगा, कोल और गोंड जनजातियों में सबसे ज्यादा प्रचलित है.

लोगों का मानना है कि ‘शॉक ट्रीटमेंट’ बच्चे के बीमार होने पर उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में मदद करता है. बच्चे के माथे, छाती या पेट पर छोटे-छोटे जलने के निशान बनाने के लिए दाई गर्म टूटी चूड़ियों या लोहे की दरांती का उपयोग करती हैं.

इस इलाके में निमोनिया, सांस संबंधी समस्याएं, पेट सूज गया हो, बच्चा रोता नहीं हो, यहां तक कि माँ का पर्याप्त दूध लेने में कठिनाई हो, सभी को एक ही उपचार मिलता है और वो है ‘दागना’.

इस तरह के अनुष्ठानों के मुताबिक बच्चों को एक निश्चित संख्या में दागा जाता है. कई परिवारों में बच्चे के जन्म के बाद महीने में एक बार उसे गोद में लेने की भी परंपरा है.

पिछले एक महीने में ही जन्म से लेकर 4 महीने तक के चार शिशुओं की बीमार होने पर दागना करने से मृत्यु हो गई है. पहली मौत 19 दिसंबर को हुई थी.

यह मामला शहडोल जिले के पतासी गांव का था. यहां पर 3 महीने की रागिनी बैगा की निमोनिया का इलाज करने की कोशिश में कई बार दागे जाने के बाद उसकी जान चली गई थी.

वहीं 1 जनवरी को अनुपपुर जिले की 3 महीने की दुर्गेश्वरी सिंह और 9 जनवरी को उमरिया जिले की अहाना बैगा की सरकारी मेडिकल कॉलेज, शहडोल में इलाज के दौरान जान चली गई.

साल 2023 की पहली मौत फरवरी में दर्ज की गई थी. अधिकारियों का दावा है कि पिछले साल छह से आठ मौतें हुई थीं. लेकिन सटीक संख्या के लिए कोई सरकारी आंकड़ा नहीं है क्योंकि डॉक्यूमेंट्स कहते हैं कि शिशुओं की मृत्यु दागना के आघात से नहीं बल्कि बीमारी की वजह से हुई थी. राजन के मृत्यु प्रमाण पत्र पर भी मौत का कारण निमोनिया है.

MBB से बात करते हुए हिंदी दैनिक पत्रिका (शहडोल संस्करण) के स्थानीय संपादक और पत्रकार शुभम सिंह बघेल, जिन्होंने 2016 से इस प्रथा के खिलाफ व्यापक अभियान चलाया है और रिपोर्ट किया है. उनका कहना है कि अखबार की रिपोर्टों के मुताबिक, पिछले साल लगभग 50 शिशुओं का दागना किया गया था.

शुभम फरवरी में साल की पहली मौत की सूचना के बाद कलेक्टर वंदना वैद्य की अध्यक्षता में शहडोल जिला प्रशासन द्वारा गठित सात सदस्यीय टास्क फोर्स के एकमात्र गैर-सरकारी सदस्य भी हैं. उनका कहना है कि अक्सर मीडिया ही ऐसे मामलों को सामने लाता है.

राजन की मौत की पहली सूचना रिपोर्ट घटना के लगभग तीन हफ्ते बाद 19 जनवरी को दर्ज की गई थी. एफआईआर दर्ज होने से पहले उमरिया की पुलिस अधीक्षक, निवेदिता नायडू ने कहा था, “हम परिवार की परेशानियों को बढ़ाना नहीं चाहते हैं क्योंकि वे सिर्फ अपने बच्चे को बचाने की कोशिश कर रहे थे.

उन्होंने आगे कहा था कि जब लोग अपने बच्चों को अस्पताल ले जाते हैं तब भी वे कभी-कभी उपचार को तेज करने के लिए एक प्रकार के सहायक ‘उपचार’ के रूप में इस प्रथा को जारी रखते हैं.

ऐसा नहीं है कि प्रशासन ने लोगों में जागरुकता और इस प्रथा को रोकने के प्रयास बिलकुल भी नहीं किये हैं. यहां के गांवों में दीवारों पर लिख कर इस प्रथा के बीच जागरुकता के साथ साथ यह भी बताया गया है कि यह अपराध है.

इसके अलावा मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा) और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता भी लोगों को समझाने की कोशिश करती हैं.

लेकिन इसके बावजूद पिछले साल नवंबर की शुरुआत में 2 महीने के प्रदीप बैगा को उसकी गर्दन, पेट और अन्य हिस्सों पर लगभग 50 बार गर्म चूड़ियों से दागा गया था. क्योंकि उसकी माँ उसे एक दाई के पास ले गई थी. उसकी मां को लगा की बच्चा बीमार है क्योंकि वह रो नहीं रहा था.

इसके बाद उन्हें बच्चे को जिला अस्पताल ले जाना पड़ा और बाद में वहां से मेडिकल कॉलेज रेफर कर दिया गया. यह बच्चा किसी तरह से इलाज से बच गया. लेकिन बच्चे को डेढ़ महीने तक भारी दर्द झेलना पड़ा.

पुलिस ने बच्चे की मां, दादा और दाई के खिलाफ मामला दर्ज कर जांच शुरू कर दी है. शहडोल के पुलिस अधीक्षक, कुमार प्रतीक का कहना है कि दागना से संबंधित मामलों में एफआईआर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 324 (जानबूझकर खतरनाक हथियारों और साधनों से चोट पहुंचाना), किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 और मध्य प्रदेश औषधि और जादुई उपचार अधिनियम, 2012 की धारा 75 (बच्चे के प्रति क्रूरता के लिए सजा) के तहत दर्ज की जाती है.

प्रदीप को दागने वाली दाई बूटी बाई का कहना है कि उसने इस प्रथा का पालन करना 15-20 साल पहले बंद कर दिया था .जब लोगों ने अपने बच्चों को अस्पतालों में ले जाना शुरू कर दिया था और केवल प्रदीप को उसकी मां के आग्रह पर दागना किया था.

दाई कहती है कि वह सिर्फ बच्चे के भले की कामना करती है. उन्होंने कहा, “उस रात लड़के की माँ खुद मुझे इलाज के लिए ले जाने आई. उसने खुद ही देवताओं को चूड़ी अर्पित की थी.”

वह इस बारे में दावे से नहीं कह सकती हैं कि दागना बीमारियों को ठीक करने में कैसे मदद कर सकती है. लेकिन कहती हैं कि पहले के दिनों में इस इलाके में अस्पताल तो थे नहीं इसलिए लोग पारंपरिक इलाज का इस्तेमाल करते थे.

उनका कहना है कि हमें हमारे बुजुर्गों ने बताया था कि इससे बीमारियां ठीक हो जाती हैं इसलिए हमने भी इसका पालन किया.

शुभम बघेल का कहना है कि जहां हरदी-77 जिला मुख्यालय के करीब है. वहीं खराब कनेक्टिविटी, कम प्रशासनिक कार्यबल और दूरदराज के गांवों में स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी भी लोगों को ऐसी प्रथाओं का सहारा लेने के लिए मजबूर करती है.

शहडोल प्रशसान यह दावा करता है कि वह पूरी कोशिश कर रहा है कि आदिवासियों में यह प्रथा पूरी तरह से ख़त्म हो जाए. लेकिन सच ये है कि प्रशासन ने इस प्रथा से निपटने के लिए जो टास्क फोर्स बनाई है उसकी कई महीने से मीटिंग नहीं हुई है.

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