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अट्टपाड़ी में आदिवासियों के मेन्यू में लगभग सब कुछ है, सिवाय पोषण के

अट्टपाड़ी का खाद्य संकट बहुआयामी है. थाली में खाना तो है लेकिन उसमें पर्याप्त पोषक तत्व नहीं हैं. समय के साथ खान-पान में भी बदलाव आया है. अब आदिवासी उस पारंपरिक भोजन को नहीं खाते जो वे खाते थे.

केरल के अट्टपाड़ी के आदिवासियों के लिए स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली में एक बार फिर से शिशुओं की मौत की एक श्रृंखला ने एक बार फिर से खामोशी को उजागर कर दिया है. इस साल आदिवासी आबादी से संबंधित आठ शिशुओं की मौत हुई है, जिनमें से तीन की मौत अकेले नवंबर में हुई है.

नवंबर में हुई मौतों ने सरकारी तंत्र और राजनीतिक वर्ग को झकझोर कर रख दिया, जिससे बहस और आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया.

अट्टपाड़ी की स्वास्थ्य समस्याओं का एक कारण बताना मुश्किल है. शिशुओं ने अलग-अलग बीमारियों और स्वास्थ्य स्थितियों के कारण दम तोड़ दिया है. हालांकि, विशेषज्ञ और पर्यवेक्षक बताते हैं कि अट्टपाड़ी के स्वास्थ्य संकट के केंद्र में कुपोषण है.

पर्याप्त पोषण के लिए कई योजनाओं हैं जिसके लिए करोड़ों रुपये लुटाए गए हैं इसके बावजूद अट्टपाड़ी के मूल निवासी इससे बहुत दूर हैं.

अट्टपाड़ी का खाद्य संकट बहुआयामी है. थाली में खाना तो है लेकिन उसमें पर्याप्त पोषक तत्व नहीं हैं. समय के साथ खान-पान में भी बदलाव आया है. अब आदिवासी उस पारंपरिक भोजन को नहीं खाते जो वे खाते थे.

आदिवासी बस्तियों (‘ऊरस’) में कई लोगों द्वारा साझा किया गया एक महत्वपूर्ण तर्क यह है कि पिछले कुछ दशकों में खानपान के पारंपरिक मेन्यू में बदलाव आया है. ज्यादातर सरकारी कार्यक्रमों के हिस्से के रूप में, उन्हें बहुत नुकसान हुआ है. यहां तक कि डॉक्टर और अन्य विशेषज्ञ भी जो अट्टपाड़ी के कल्याणकारी कार्यक्रमों में शामिल थे, इस विचार को बहुत अधिक मानते हैं.

डॉक्टर आर प्रभुदास, जिन्हें हाल ही में सरकारी जनजातीय विशेषता अस्पताल से ट्रांसफर किया गया है, ने ओनमानोरमा को बताया, “अट्टपाड़ी के आदिवासियों को भोजन तो मिल रहा है लेकिन पोषक तत्व नहीं मिल रहे हैं. यहां मरने वाले ज्यादातर शिशुओं का वजन कम था. ऐसे कम वजन के बच्चों की मदद के लिए कार्यक्रम हैं. हालांकि यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि ‘ऊरस’ में सभी को पर्याप्त पोषक तत्व मिले.”

डॉक्टर आर प्रभुदास का सुझाव है कि आदिवासी बस्तियों को अपने खुद के डेयरी फार्म और मछली तालाब बनाने के लिए सुसज्जित किया जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि इस तरह के कार्यक्रम आदिवासियों को भोजन के लिए सरकारी परियोजनाओं पर निर्भर रहने के बजाय आत्मनिर्भर बनाएंगे.

हाल ही में विपक्षी प्रतिनिधिमंडल के साथ एक बैठक के दौरान डॉ प्रभूदास ने कहा कि कई गर्भवती आदिवासी महिलाओं ने उनसे कहा था कि पर्याप्त आपूर्ति होने पर वे दूध और अंडा लेने के लिए तैयार हैं.

मुथिक्कुलम ‘ऊरु’ के प्रमुख राघवन, जो राजनीतिक वर्ग के अत्यधिक आलोचक हैं, वो मानते हैं कि उन्होंने अपने लोगों को अपना गुलाम बना लिया है. उन्होंने अच्छे पुराने दिनों को याद किया जब अट्टपाड़ी में गरीबी थी.

आदिवासी नेता ने अपने सत्तर के दशक को यादकर कहा, “बचपन में हमारे ‘ऊरु’ में गरीबी नहीं थी. हम रागी, चोलम और थाने जैसी फसलों की खेती करते थे, जो हमारा मुख्य भोजन था. जंगल से हमें कंद, फल और पत्ते मिलते थे. हमें दुकानों से सिर्फ नमक और खाना पकाने का तेल खरीदना था. लेकिन यह सब बदल गया है. अब एक आदिवासी के लिए भी दिन की शुरुआत चाय की दुकान की एक चाय से होती है.”

वह सरकार द्वारा प्रायोजित सामुदायिक रसोई परियोजना के भी आलोचक थे. उन्होंने कहा कि यह हमारे लोगों को आलसी बनाता है.

रागी कली नामक एक व्यंजन, जो रागी और चावल का मिश्रण है, अट्टपाड़ी की जनजातियों का एक प्रमुख भोजन है. रागी को सप्ताह में कम से कम तीन दिन कुदुम्बश्री मिशन के अट्टपाड़ी विशेष परियोजना द्वारा संचालित सामुदायिक रसोई में उपलब्ध कराया जाता है.

सामुदायिक रसोई प्रयोग

सामाजिक न्याय विभाग ने बच्चों, गर्भवती महिलाओं, स्तनपान कराने वाली माताओं, किशोर लड़कियों, वरिष्ठ नागरिकों और गरीब लोगों के बीच कुपोषण को दूर करने के लिए 2013-2014 में सामुदायिक रसोई, पोषण वृद्धि कार्यक्रम शुरू किया.

जिसे आदिवासी महिला पड़ोस समूहों (NHG) द्वारा चलाया जाता है. सामुदायिक रसोई में शाम को भोजन परोसा जाता है. इसके सामान्य मेनू में सफेद उबले चावल, रागी पाउडर, विभिन्न प्रकार की दालें जैसे हरे चना, चना और काबुली चना शामिल हैं. प्रत्येक ‘ऊरु’ में एक सामुदायिक रसोई है और कुछ में एक से अधिक हैं. ओनमानोरमा द्वारा प्राप्त नवीनतम आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, पिछले सप्ताह 182 रसोई में से सिर्फ 123 काम कर रही थीं.

बाकी बारिश से संबंधित मुद्दों, शेड को नुकसान और धन की कमी जैसे विभिन्न कारणों से बंद हैं. कुछ ‘ऊरस’ ने यह कहते हुए परियोजना से बाहर होने का विकल्प चुना है कि उन्हें सुविधा की आवश्यकता नहीं है क्योंकि उनके पास घर पर पर्याप्त भोजन है.

सामुदायिक रसोई चलाने के लिए महिला एवं बाल विभाग तथा आदिवासी विभाग द्वारा 40:60 के अनुपात में राशि उपलब्ध कराई जाती है. कुछ रसोईयों को बंद कर दिया गया है क्योंकि उन्हें चलाने वाले स्वयं सहायता समूहों के पास धन की कमी हो गई है.

सरकार एक लाभार्थी को भोजन के लिए 20 रुपये आवंटित करती है. इसमें रसोइया का वेतन और जलाऊ लकड़ी की कीमत भी शामिल है.

सामुदायिक रसोई कार्यक्रम के अलावा, एकीकृत जनजातीय विकास परियोजना (ITDP) मानसून के दौरान आदिवासियों को भोजन किट वितरित करती है.

इसके अलावा, राज्य में हर जगह की तरह अट्टापडी में भी एकीकृत बाल विकास सेवा की पूरक खाद्य योजना लागू है. योजना के तहत आंगनबाड़ियों के माध्यम से बच्चों को 500 कैलोरी और 12-15 ग्राम प्रोटीन प्रदान करने वाला पूरक आहार दिया जाता है.

गंभीर रूप से कम वजन वाले बच्चों के लिए इसमें 800 कैलोरी और 20-22 ग्राम प्रोटीन होता है. गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं को 600 कैलोरी और 15-20 ग्राम प्रोटीन वाला भोजन दिया जाता है.

इसी प्रकार 14-18 आयु वर्ग की किशोरियों को भी पूरक आहार प्रदान किया जाता है. अट्टपाड़ी क्षेत्र की तीन पंचायतों – अगली, पुथुर और शोलयूर ने चालू वित्त वर्ष के लिए पूरक खाद्य योजना के लिए 1.52 करोड़ रुपये निर्धारित किए हैं. इसमें से करीब 95 लाख रुपये खर्च किए जा चुके हैं. क्षेत्र में 175 आंगनबाड़ियों के माध्यम से खाद्य सामग्री वितरित की जाती है.

कार्यक्रम में शामिल एक अधिकारी ने कहा, “अट्टापडी में हम वितरित किए जाने वाले खाद्य पदार्थों का निर्णय लेते समय आदिवासियों के हितों पर ध्यान देते हैं. अगर वे कहते हैं कि उन्हें सूची में कुछ चीजें पसंद नहीं हैं, तो हम कैलोरी और प्रोटीन सामग्री के बारे में दिशानिर्देशों का सख्ती से पालन करके उन्हें किसी और चीज़ से बदल देते हैं.”

अधिकारियों का दावा है कि वे खाद्य आपूर्ति और आजीविका के लिए विभिन्न परियोजनाओं के माध्यम से आदिवासियों के स्वास्थ्य के मुद्दों को दूर करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं. लेकिन शिशु मृत्यु दर और निरंतर दरिद्रता की आवर्ती घटनाओं से पता चलता है कि परियोजनाओं में मौलिक रूप से कुछ गड़बड़ है.

राज्य के स्वास्थ्य विभाग से सेवानिवृत्त एक आदिवासी कार्यकर्ता टी आर चंद्रन ने कहा कि सरकार पिछले आठ वर्षों से सामुदायिक रसोई चला रही है. लेकिन इसके बावजूद अट्टपाड़ी में गरीबी अभी भी एक मुद्दा है.

(Photo courtesy Kudumbashree.org)

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