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मिर्जापुर में आदिवासियों ने लगाया उत्पीड़न का आरोप, विरोध प्रदर्शन कर वन अधिकार कानून लागू करने की मांग

महात्मा गांधी की पुण्यतिथि के अवसर पर लगभग 300 आदिवासी पुरुष और महिलाएं लंबे समय से लंबित मांगों को उठाने के लिए सीपीआई (एम) के बैनर तले इकट्ठे हुए. जंगल की भूमि सामंती भू-माफियाओं और तथाकथित धार्मिक बाबाओं के नियंत्रण में है. इस तरह के माफिया फर्जी दस्तावेज बनाकर और पुलिस और सरकार का समर्थन जीतकर आदिवासियों की जमीन हड़प रहे थे.

उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के मरिहान तहसील के राजापुर ग्राम पंचायत के ढेकवाह गांव के घने वन क्षेत्रों में सोमवार को सैकड़ों आदिवासी एकत्रित हुए और स्वाधीनता, स्वतंत्रता और अधिकारों के नारों के साथ रैली निकाली.

आदिवासियों ने वन अधिकार अधिनियम (Forest Rights Act) को लागू करने और उनके खिलाफ दर्ज सभी मामले वापस लेने की मांग की.

झरीनगरी नाला के किनारे ‘पत्थर की चट्टानों’ तक मार्च करने वाले प्रदर्शनकारियों ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) जॉब कार्ड और 600 रुपये प्रति दिन मजदूरी पर एक साल में मजदूरों के लिए न्यूनतम 200 दिन काम की मांग की.

मरिहान तहसील के कम से कम सात गांवों के लोगों ने विरोध में भाग लिया. विरोध प्रदर्शन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के बैनर तले हुआ है.

2006 में वन अधिकार क़ानून संसद में पास हुआ था. इस क़ानून को पास करते समय यह स्वीकार किया गया था कि देश भर के कई राज्यों में लोग अपनी आजीविका के लिए वन भूमि पर निर्भर हैं.

इसके साथ ही यह भी माना गया था कि वन संरक्षण संबंधी कानूनों और उचित वन और राजस्व बंदोबस्त प्रक्रिया की कमी ने लोगों को वन भूमि पर उनके अधिकारों से वंचित करने का काम किया है.

एफआरए उन आदिवासियों और वनवासियों को भूमि अधिकार प्रदान करता है जो वर्षों से भूमि की जुताई कर रहे हैं.

सीपीआई (एम) के जिलाध्यक्ष राजनाथ यादव जिन्होंने विरोध का नेतृत्व किया है उन्होंने कहा,  “महात्मा गांधी की पुण्यतिथि के अवसर पर लगभग 300 आदिवासी पुरुष और महिलाएं लंबे समय से लंबित मांगों को उठाने के लिए सीपीआई (एम) के बैनर तले इकट्ठे हुए.

जंगल की भूमि सामंती भू-माफियाओं और तथाकथित धार्मिक बाबाओं के नियंत्रण में है. इस तरह के माफिया फर्जी दस्तावेज बनाकर और पुलिस और सरकार का समर्थन जीतकर आदिवासियों की जमीन हड़प रहे थे. हम वन विभाग द्वारा एफआरए का उचित कार्यान्वयन चाहते हैं.”

उन्होंने बताया कि उपजाऊ भूमि से अवैध कब्जे को हटा दिया जाना चाहिए और इसे भूमिहीन आदिवासियों के बीच वितरित किया जाना चाहिए.

स्थानीय पुलिस पर आदिवासियों को वन भूमि से दूर रखने के कई अवैध तरीकों में कथित रूप से शामिल होने का आरोप लगाते हुए, राजनाथ यादव ने कहा, “वन अधिकारी उन्हें अपनी जमीन जोतने से रोक रहे हैं. जब वे इन कृत्यों पर आपत्ति जताते हैं और अपना दावा पेश करते हैं तो उन्हें झूठे मामलों और गिरफ्तारी की धमकी दी जाती है. जबकि धार्मिक बाबा जय गुरुदेव ने लगभग 650 बीघा जमीन पर अवैध रूप से कब्जा कर लिया और चार महीने पहले उन्हें नोटिस दिए जाने के बावजूद कुछ नहीं हुआ.”

उन्होंने आगे कहा, “मरिहान के पूर्व विधायक ललितेश पति त्रिपाठी ने भी कलवारी के पास 6500 बीघा जमीन पर कब्जा कर लिया था, जो क्षेत्र के आदिवासियों की है. उन्हें भी नोटिस दिया गया था. एक और बाबा स्वामी अग्रानंद महाराज सक्तेशगढ़ में जमीन हड़पने को लेकर चर्चा में हैं. डराने-धमकाने, बेदखली के नोटिस और फर्जी मामले सिर्फ गरीब आदिवासियों के लिए हैं लेकिन ये सब इन भू-माफियाओं पर लागू नहीं होते हैं.”

माकपा नेता ने आरोप लगाया कि ढेकवाह, दरीराम, राजापुर, मरिहान, अटारी, पटेरी और पटेहरा गांवों के आदिवासी कांटेदार पौधे लगाकर उन्हें खेती करने से रोक रहे हैं ताकि वे अपने अस्तित्व के लिए फसल नहीं उगा सकें.

राज्य में एफआरए को लागू करने की सक्रिय रूप से वकालत करने वाले राजनाथ यादव कहते हैं, “जनजातीय क्षेत्रों में आदिवासियों को मनरेगा और एफएसए के तहत वर्षों से उनके अधिकारों से वंचित रखा गया है. हम कई वर्षों से अधिकारों की मांग कर रहे हैं लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ.”

इस बीच, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के स्थलों पर काम करने वाले मजदूरों ने काम के दिनों को वर्तमान के 100 से बढ़ाकर 200 करने और दैनिक मजदूरी में संशोधन कर 600 रुपये करने की मांग की है.

ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के राज्य महासचिव दिनकर कपूर, जो एफआरए में एक याचिकाकर्ता भी हैं, उन्होंने कहा, “93,430 भूमि शीर्षक दावे एफआरए के तहत दायर किए गए थे और 74,538 को 2011 में तत्कालीन बहुजन समाजवादी पार्टी की अगुवाई वाली मायावती सरकार ने खारिज कर दिया था.

हमने आदिवासी वनवासी महासभा के बैनर तले 2013 में इलाहाबाद हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और अदालत ने समीक्षा का आदेश दिया लेकिन पिछली अखिलेश सरकार ने ऐसा नहीं किया.

2017 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सत्ता में आई और समीक्षा करने के बजाय, योगी आदित्यनाथ सरकार ने तुरंत वन भूमि खाली करने के लिए बेदखली नोटिस देना शुरू कर दिया. बेदखली के नोटिस न सिर्फ मिर्जापुर में जारी किए गए बल्कि आदिवासियों को परेशान करने के लिए सोनभद्र, चंदौली और बुंदेलखंड में भी जारी हुए.

आदिवासियों के अधिकारों के लिए काम कर रहे सोनभद्र में रहने वाले कपूर ने आरोप लगाया, “2017 में हमने इलाहाबाद हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर की और अदालत ने बेदखली पर रोक लगा दी और 11 अक्टूबर, 2018 को 18 हफ्ते में समीक्षा का आदेश दिया. समीक्षा प्रक्रिया शुरू हुई लेकिन कोविड-19 महामारी ने सब कुछ रोक दिया. महामारी के बाद यह फिर से शुरू हो गया, लेकिन उत्पीड़न जारी रहा.”

15 नवंबर, 2022 को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सोनभद्र का दौरा किया और आदिवासियों को जमीन का टाइटल देने का वादा किया लेकिन जमीनी स्तर पर कुछ भी होता नजर नहीं आया.

ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट भूमि अधिकार अभियान शुरू करेगा, जिसके तहत वे सोनभद्र, मिर्जापुर क्षेत्र में घर-घर जाकर एफआरए लागू करने के लिए प्रचार करेंगे.

बुंदेलखंड के चित्रकूट जिले के मानिकपुर ब्लॉक के राजहौआ जंगल में 22 पंचायतों में फैले कम से कम 52 गांवों के लगभग 45 हज़ार आदिवासियों को बेदखली का नोटिस दिया गया है, क्योंकि उनके गांव रानीपुर वन्यजीव अभयारण्य (बिहार में कैमूर वन्यजीव अभयारण्य का एक उप-मंडल) में स्थित हैं, जो 1980 में अस्तित्व में आया था.

सोनभद्र के आदिवासी भी बेदखली के डर में जी रहे

ये तो रही मिर्जापुर की बात लेकिन वन विभाग की बेदखली की कार्रवाई से सोनभद्र के आदिवासियों की भी नींद उड़ गई है. राबर्ट्सगंज तहसील के करीब 5 हज़ार आदिवासी परिवारों के मन में यह खौफ समाता दिख रहा है कि अब उनके सारे वनाधिकार छीन लिए जाएंगे तो वो जिंदा कैसे रहेंगे?

दरअसल, वन विभाग ने जंगलों पर निगरानी बढ़ा दी है और उसने अपनी लापता जमीनों को ढूंढने के नाम पर आदिवासियों की खेती की जमीन कब्जाना शुरू कर दिया है.

सोनभद्र में वन विभाग के अधिकारी इसलिए आदिवासियों की जमीनों को घेर रहे हैं क्योंकि उनका एक बड़ा वनक्षेत्र लापता हो गया है. केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने 14 जनवरी 2022 को भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) की एक चौकाने वाली रिपोर्ट पेश की, जिसमें इस बात का खुलासा हुआ है कि सोनभद्र, चंदौली और मिर्जापुर में बड़े पैमाने पर जंगल साफ हो गए हैं।

भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) की द्विवार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2019 तक सोनभद्र का वन क्षेत्रफल 2540.29 वर्ग किमी था, जो साल 2021 में घटकर 2436.75 वर्ग किमी हो गया है. सिर्फ दो सालों में ही सोनभद्र के जंगली क्षेत्र का दायरा 103.54 वर्ग किमी घट गया. मौजूदा समय में यहां सघन वन क्षेत्र 138.32, कम सघन वन क्षेत्र 940.62 वर्ग किमी और खुला वन क्षेत्र 1357.81 वर्ग किमी है.

देश के 112 अति पिछड़े ज़िलों में शामिल उत्तर प्रदेश के आठ ज़िलों में सोनभद्र और चंदौली भी शामिल हैं. मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक सोनभद्र का जंगल 103.54 वर्ग किमी और चंदौली का 1.79 वर्ग किमी कम हुआ है.

यूपी में सिर्फ सोनभद्र, चंदौली और मिर्जापुर ही नहीं, आजमगढ़, खीरी, बिजनौर, महाराजगंज, मुजफ्फरनगर, पीलीभीत और सुल्तानपुर जिले का वन क्षेत्र भी घट गया है. यह स्थिति तब है जब चंदौली, सोनभद्र और मिर्जापुर जनपद के वनाधिकारी पौधरोपण के मामले में हर साल नया रिकार्ड बनाने का दावा करते रहे हैं.

उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक जंगल सोनभद्र और चंदौली के चकिया व नौगढ़ प्रखंड में हैं. वन क्षेत्र घटने के मामले में मिर्जापुर दूसरे स्थान पर है. 

केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने साल 2019 से 2021 के बीच यूपी के जंगलों का सर्वे किया तो सरकार और उनके नुमाइंदों के पौधरोपण के तमाम दावे धरे के धरे रह गए. चंदौली का नौगढ़ इलाका सोनभद्र से सटा है, जहां दो दशक पहले कुबराडीह और शाहपुर में भूख से कई आदिवासियों की मौत हो गई थी. भाजपा शासनकाल में जंगलों के लापता होने से आदिवासियों के जीवन पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है.

सोनभद्र, मिर्जापुर और चंदौली समेत समूचे उत्तर प्रदेश में 11 लाख आदिवासी अदृश्य और सीमांत अल्पसंख्यक हैं. इनमें से ज्यादातर घने जंगलों, खनिज संपन्न इलाकों में एक दयनीय अस्तित्व बनाए हुए हैं. तीन पीढ़ियों से वन भूमि पर रहने वाले इन आदिवासियों को रहने और खेती करने का कानूनी अधिकार है, लेकिन सिर्फ कागजों पर.

उत्तर प्रदेश के जनजाति कल्याण निदेशालय का आंकड़ों को सच माना जाए तो साल 2019 तक अनुसूचित जनजाति और वनाश्रितों के 93 हजार 430 दावों में से 74 हजार 538 दावे निरस्त कर दिए गए. नतीजा, सोनभद्र, मिर्जापुर, चंदौली, ललितपुर, चित्रकूट, बहराइच, बलरामपुर, लखीमपुर खीरी, गोरखपुर, महाराजगंज, गोंडा, बिजनौर, सहानपुर के 80 फीसदी आदिवासी भीषण संकट के दौर से गुजर रहे हैं.

अफ़सोस की बात ये है कि जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आदिवासियों को सम्मान देने के बात कर रहे हैं, उसी समय में उनकी पार्टी शासित राज्य में आदिवासियों को संसद से पास ऐतिहासिक बताए जाने वाले क़ानून में दिया अधिकार नहीं मिल रहा है.

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