HomeAdivasi Dailyअनुसूचित जनजाति आयोग क्यों काग़ज़ का शेर बन गया?

अनुसूचित जनजाति आयोग क्यों काग़ज़ का शेर बन गया?

जो आयोग अपने चेयरपर्सन, सदस्यों और कर्मचारियों के वेतन तक के लिए मंत्रालय का मुंह ताकता है, वह भला कैसे स्वतंत्र हो सकता है. इसलिए अनुसूचित जनजाति आयोग आदिवासी मंत्रालय के मातहत किसी विभाग की तरह ही देखा जाता है.

अनुसूचित जनजाति आयोग ने पिछले कुछ दो महीने में ऐसे काम किये हैं जिन्होंने लोगों को हैरानी में डाल दिया. इनमें पहला काम आयोग ने किया नए वन संरक्षण नियम 2022 (Forest Conservation Rules, 2022) पर सरकार को चेतावनी देना.

वन अधिकार अधिनियम, 2006 (Forest Rights Act, 2006) को संभावित रूप से कमजोर करने वाले नए वन संरक्षण नियम 2022 (Forest Conservation Rules, 2022) के बारे में आयोग के अध्यक्ष हर्ष चौहान ने पर्यावरण मंत्रालय को पत्र लिख डाला. उन्होंने इस पत्र में सरकार से स्पष्ट कहा है कि ये नियम आदिवासियों के अधिकारों के लिए घातक हैं. 

इसके बाद राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (National Commission for Scheduled Tribes) ने सुप्रीम कोर्ट से सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की FRA यानि फॉरेस्ट राइट एक्ट को लागू करने से संबंधित रिपोर्ट प्राप्त कर ली है.

इन दस्तावेजों को राज्य सरकारों ने सीलबंद लिफ़ाफ़े में सुप्रीम कोर्ट को सौंपा था. इस सिलसिले में मिली ख़बरों के अनुसार इसमें अघोषित कागजात के 30 से अधिक सेट शामिल हैं. अनुसूचित जनजाति आयोग ने अपनी विशेष शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए सुप्रीम कोर्ट से वन अधिकार अधिनियम 2006 के लागू किये जाने से जुड़े ये ज़रूरी दस्तावेज़ हासिल किए हैं.

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 338ए, खंड 8 (डी) के माध्यम से दी गई विशेष शक्तियाँ आयोग को “किसी भी अदालत या कार्यालय से किसी भी सार्वजनिक रिकॉर्ड या उसकी कॉपी की मांग करने का अधिकार देती हैं. अब राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग देश भर में वन अधिकार कानून 2006 को लागू करने के बारे में एक ठोस समीक्षा कर सकता है. 

इन दोनों ही मामलों में राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग सरकार को फैसले लेने से रोक पाएगा…या फिर उन्हें बदल पाएगा, ऐसी उम्मीद बेमानी होगी. लेकिन आयोग के इस बयान से उन लोगों या संगठनों को बल मिलता है जो ज़मीन पर इन मुद्दों पर लड़ रहे हैं. 

ये दोनों ही घटनाएं इस संविधानिक संस्थान के बारे में आम धारणा या छवि को भी तोड़ती हैं. आमतौर पर यह माना जाता है कि national commission for Scheduled triebes तो कागजी शेर है…लेकिन NCST के ये दो कदम बताते हैं कि ये दो घटनाएं तमाम बंधनों, मजबूरियों और सीमाओं के बावजूद अगर संस्थान का नेतृत्व थोड़ी बहुत भी दूरदृष्टि से काम ले, अपने कर्तव्य को पूरा करने की उसकी कुछ नीयत हो….तो दंतविहीन माने जाने वाली संस्थाएं भी असरदार हो सकती हैं…..

लेकिन जब National Commission For Scheduled Tribes के बारे में तथ्यों और सरकार के रवैये की जांच करते हैं तो यह उम्मीद टूट जाती है कि ये संस्थान वह काम कर सकते हैं जो काम करने के लिए उनकी स्थापना हुई है. साल 2004 में राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग की स्थापना हुई थी तो संविधान के आर्टिकल 338 (A) के तहत आयोग को यह ज़िम्मेदारी दी गई थी कि वह देश में आदिवासी हितों की रक्षा करेगा, उनको अत्याचार बचाएगा और सरकार को आदिवासियों से जुड़ी नीतियों के बाले में सलाह देगा. 

इसके अलावा राष्ट्रीय जनजाति आयोग को यह ज़िम्मेदारी भी दी गई थी कि वह आदिवासियों से जुड़े महत्वपूर्ण शोध कार्य भी कराए. 

मतलब ये है कि इस आयोग की ज़िम्मेदारियों का दायरा काफी व्यापक है. लेकिन इतिहास यह बताता है कि आयोग ने इन ज़िम्मेदारियों को निभाना तो दूर की बात है कभी इस तरफ कदम भी नहीं उठाया है.आख़िर समस्या क्या है..क्यों आयोग अपना काम नहीं कर पाता है…इसके कई कारण हो सकते हैं लेकिन इसे समझने के क्रम में तीन बड़ी बातों को ज़िम्मेदार माना जा सकता है

  1. आयोग के अध्यक्ष और सदस्य अक्सर सत्ताधारी दल के होते हैं. इसलिए वो कोई ऐसा काम नहीं करना चाहते जिससे तत्कालीन सरकार नाराज़ हो या फिर उसे किसी तरह की परेशानी हो.
  2. आयोग अपने ख़र्च के लिए आदिवासी मंत्रालय पर निर्भर है, इसलिए मंत्रालय उसे अपने मातहत विभाग की तरह से देखता है.
  3. आयोग के क्षेत्रिय कार्यालयों में पर्याप्त स्टाफ या संसाधन मौजूद नहीं है.

अब उदहारण के साथ इन तीनों बातों को समझने की कोशिश करते हैं. राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग में एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष और तीन अन्य सदस्यों की नियुक्ति का प्रावधान है. लेकिन फिलहाल अनुसूचित जनजाति आयोग में बीजेपी के सांसद हर्ष चौहान अध्यक्ष हैं और अनंत नायक आयोग के सदस्य हैं. बाकी के सभी पद खाली हैं. कर्मचारियों की नियुक्ति के मामले में भी सरकार ने संसद में जानकारी दी है कि आयोग में जितने कर्मचारी होने चाहिएं, उससे आधे ही नियुक्त हुए हैं. 

आयोग के दोनों ही सदस्य हर्ष चौहान और अनंत नायक बीजेपी के सदस्य हैं. यह आयोग में उनकी भूमिका को कैसे प्रभावित करता है उसका उदाहरण देखिए….अनंत नायक हाल ही में ओडिशा के दौर पर गए. वहां उनके सामने कई समुदायों को जनजाति का दर्जा देने की मांग का मसला आया, तो उन्होंने ओडिशा सरकार को सलाह दी कि वह इन सभी समुदायों के बारे में गहन शोध कराए….लेकिन क्या वे ऐसी कोई सलाह केंद्र सरकार को दे सकते हैं…जबकि किसी समुदाय को जनजाति की सूची में रखा जाएगा या नहीं…यह तय करने का अधिकार अंतत केंद्र सरकार के हाथ में है. 

अनुसूचित जनजाति आयोग की स्थापना के समय यह परिकल्पना की गयी थी कि यह एक स्वतंत्र संस्था होगी जो सरकार को आदिवासियों से जुड़े नीतिगत मसलों पर सलाह देगी. लेकिन पिछले दो साल में आदिवासी मामलों के मंत्रालय के काम काज की समीक्षा करने वाली संसदीय समिति की रिपोर्ट इस जुड़ी कुछ कड़वी सच्चाई पेश करती हैं. ये रिपोर्ट बताती हैं कि national commission for schedeuled tribe नियुक्तियों, वेतन और शोध के लिए पैसे को पूरी तरह से मंत्रालय के रहमो करम पर है. 

देश के अनुसूचित जनजाति के लोगों आसानी से आयोग तक पहुंच सकें इसके लिए देश के अलग अलग राज्यों में अनुसूचित जनजाति आयोग के 6 क्षेत्रिय कार्यालय स्थापित किये गए हैं. लेकिन इन क्षेत्रिय कार्यालयों के हालात भी  बेहद ख़राब हैं, यहां पर स्टाफ और संसाधनों की भारी कमी है.

National commission for Scheduled tribes से जुड़ी एक स्टडी में centre for policy research ने एक बात कही थी कि अक्सर आयोग के अध्यक्ष और सदस्य का काम ये है कि वे देश भर के उन इलाकों में घूमें जहां आदिवासी रहते हैं….उनके मसलों को समझें…उन्हें सुलझाएं….लेकिन इस स्टडी में पाया गया कि अक्सर आयोग के अध्यक्ष और सदस्य अपन गृह राज्य में ज़्यादा दौरे करते हैं…..

क्या अभी भी ऐसा ही हो रहा है…क्या हर्ष चौहान बार-बार मध्य प्रदेश और अनंत नायक ओडिशा जाते रहते हैं…..पता नहीं….आप थोड़ा आयोग की वेबसाइट पर चेक कीजिए ना……

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