HomeColumnsआज़ादी के 75 साल: आदिवासी मसलों पर सर्वोच्च नेताओं से कुछ उम्मीदें...

आज़ादी के 75 साल: आदिवासी मसलों पर सर्वोच्च नेताओं से कुछ उम्मीदें हैं

भारत के आदिवसी इलाकों में विस्थापन, पलायन, मानव तस्करी जैसे मसले मौजूद हैं. कई आदिम जनजाति का वजूद ही ख़तरे में है. सरकार अगर यह दावा करती है कि आदिवासी उनकी प्राथमिकता है तो देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्रीसे आदिवासी अपेक्षा रखें तो उसमें बुरा कुछ भी नही है.

इस सोमवार यानि 15 अगस्त 2022 को देश की आज़ादी को 75 साल पूरे हुए है. यह ऐतिहासिक मौक़ा इस मायने में और ख़ास बन गया कि स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर देश को संबोधित करने वाली राष्ट्रपति द्रोपदी मूर्मु एक आदिवासी महिला हैं. एक देश के स्तर पर यह कोई मामूली उपलब्धि नहीं है. दुनिया के विकसित देश भी औरतों को प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति जैसे महत्वपूर्ण पदों पर चुनने में हिचकते रहे हैं.

इस दिन से कोई हफ़्ते भर पहले यानि 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस (nternational Day of the World’s Indigenous Peoples 2022) था. साल 1994 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने विश्व आदिवासी दिवस की घोषणा की थी. इस घोषणा का उद्देश्य दुनिया भऱ के आदिवासियों के अधिकार, संस्कृति और विविधता का सम्मान करना है. 

यह बताया जाता है कि दुनिया भर 90 देशों में क़रीब 5000 आदिवासी समुदाय रहते हैं. इनकी आबादी लगभग 37 करोड़ बताई जाती है. इसके अलावा दुनिया भर में क़रीब 7000 आदिवासी भाषाएँ हैं. ज़ाहिर है इन भाषाओं में आदिवासी समुदायों का अथाह ज्ञान मौजूद है. 

भारत के संदर्भ में बात करें तो देश के 705 आदिवासी समुदायों को क़ानूनी तौर पर मान्यता मिली है. इसमें से 75 आदिवासी समुदायों को पीवीटीजी यानि विशेष रूप से पिछड़े आदिवासी समुदाय के तौर पर वर्गीकृत किया गया है. 

यानि भारत में अभी भी कम से कम 75 आदिवासी समुदाय ऐसे हैं जो उत्पादन के आदिम औज़ार या तकनीक इस्तेमाल करते हैं. इन आदिवासी समुदायों का मुख्यधारा के समाज से संपर्क ना के बराबर या बिलकुल नहीं है. 

स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लालक़िले से देश को संबोधित किया. उसकी पहली शाम को यानि स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति द्रोपदी मूर्मु ने देश के नाम संदेश दिया.

लेकिन इन दोनों ही नेताओं के भाषण में आदिवासियों के मसलों पर चिंता या नीतिगत घोषणा ग़ायब मिली.

राष्ट्रपति के भाषण में आदिवासी की अधूरी बात

देश का राष्ट्रपति केन्द्रीय मंत्रिमंडल की सलाह पर काम करता है. इस लिहाज़ से द्रोपदी मूर्मु पर अतिरिक्त उम्मीदों का बोझ लादना सही नहीं है. राष्ट्रपति का पद एक प्रतीकात्मक पद है. लेकिन आदिवासियों के मामले में संविधान में राष्ट्रपति को कुछ गुंजाइश दी गई है. मसलन अनुसूची 5 के इलाक़ों के बारे में राज्यपालों को राष्ट्रपति को रिपोर्ट भेजनी होती है.

राष्ट्रपति कोई नीतिगत फ़ैसला नहीं ले सकती हैं. लेकिन वे अपने भाषणों के ज़रिए देश और सरकार का मार्गदर्शन कर सकती हैं. वे आदिवासी समुदाय की हैं और ज़ाहिर है कि उनके चुनाव के साथ ही आदिवासियों पर कम से कम चर्चा तो शुरू हुई है. 

लेकिन उनसे उम्मीद की जाती है कि वे सिर्फ़ आदिवासियों के बारे में ही नहीं बल्कि देश के सभी वंचित तबकों के बारे में कम से कम चर्चा की छेड़ सकती हैं. लेकिन जब उन्होंने स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर अपने संदेश में आदिवासियों का ज़िक्र किया तो उनकी बात कुछ हद तक ठीक होते हुए भी एक विचारधारा की तरफ़ झुकी हुई नज़र आती है.

उन्होंने कहा कि आज़ादी की लड़ाई के आदिवासी नायक और किसान देश की सामूहिक स्मृति से लंबे समय तक ग़ायब रहे. इसके साथ ही उन्होंने बताया कि वर्तमान सरकार आदिवासी नायकों का सम्मान कर रही है.

उनकी बात आज की सत्ताधारी पार्टी की राजनीतिक लाइन की पुष्टि करती दिखाई देती है. इस बात को अगर फेसवैल्यू पर भी लिया जाए तो भी राष्ट्रपति के भाषण में वंचित तबकों या आदिवासियों पर और कोई बात सुनाई नहीं दी.

देश के आदिवासियों से जुड़े कई अहम मसले हैं. इसमें उनकी संस्कृति, भाषा और परंपरा के अलावा उनकी आजीविका और यहाँ तक कि कई आदिवासी समुदायों के अस्तित्व का सवाल शामिल है. 

लेकिन आदिवासी समुदाय के जुड़ा कोई भी मुद्दा राष्ट्रपति के संदेश में जगह नहीं बना पाया. राष्ट्रपति ने देश में डिजिटल क्रांति की खूब तारीफ़ की थी. इसके अलावा उन्होंने कोरोना महामारी से निपटने में देश के वैज्ञानिकों, डॉक्टरों और नर्सों के योगदान के लिए धन्यवाद भी किया.

लेकिन वो जिस राज्य ओडिशा से आती हैं उसी राज्य में कोविड महामारी के दौरान डिजिटल माध्यमों तक पहुँच ना होने के कारण कितने आदिवासी बच्चों का स्कूल हमेशा के लिए छूट गया यह बात उनके भाषण का हिस्सा हो सकती थी.

यह ज़रूरी नहीं है कि वे सरकार की आलोचना ही करतीं. राष्ट्रपति अपनी सरकार के सामने कुछ चुनौतियाँ या लक्ष्य रख सकती हैं. 

आदिवासी भारत में विस्थापन, मानव तस्करी, पलायन, बँधुआ मज़दूरी जैसे मसले आज भी मौजूद हैं. इसका सबसे बड़ा कारण है कि आदिवासियों के अधिकार और सुरक्षा से जुड़े क़ानून लागू नहीं किये जाते हैं. 

देश के आदिवासियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय को ख़त्म करने के लिए फ़ॉरेस्ट राइट एक्ट और पेसा क़ानून लाए गए. लेकिन इन क़ानूनों को लागू करने में ज़्यादातर राज्य कोताही करते हैं.

1996 में बने पेसा क़ानून के नियम बनाने में कई राज्यों ने बरसों का समय गँवा दिया. कई राज्य तो ऐसे हैं जिनमें अभी तक इस क़ानून के नियम ही नहीं बने हैं. फ़ॉरेस्ट राइट्स एक्ट और पेसा क़ानून को लागू करने के मामले में सबसे अधिका कोताही बीजेपी शासित राज्यों में देखी गई है.

मसलन मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में लंबे समय शासन करने के बावजूद बीजेपी सरकार ने पेसा के नियम तक नहीं बनाए. 

अब वर्तमान सरकार देश के आदिवासियों के मसलों को प्राथमिकता पर रखने का दावा कर रही है. तो फिर देश के दो सर्वोच्च नेताओं राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से कुछ उम्मीदें ज़रूर रहेंगी.

राष्ट्रपति से उम्मीद होगी कि वो कम से कम आदिवासी समुदायों के मसलों और चुनौतियों को रेखांकित करें और प्रधानमंत्री के पक्ष पर इन मुद्दों पर जवाबदेही नज़र
आए. 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Recent Comments