HomeColumnsआदिवासी अधिकारों की रक्षा की ज़िम्मेदारी गवर्नर क्यों नहीं निभाते हैं

आदिवासी अधिकारों की रक्षा की ज़िम्मेदारी गवर्नर क्यों नहीं निभाते हैं

जंगल, वन्य जीव या फिर पर्यावरण से जुड़े कई ऐसे क़ानून हैं जो आदिवासी हितों से टकराते हैं. ये कानून आदिवासी संसाधनों, जीविका, संस्कृति और जीवन शैली की रक्षा के लिए संविधान में दिए गए कई प्रावधानों का उल्लंघन करते हैं. लेकिन ऐसा शायद ही कभी हुआ है जब किसी राजभवन ने इस तरह के क़ानूनों पर राज्यपालों से कभी चुनौती मिली हो. संविधान लागू होने के बाद एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता है जब किसी राज्य राज्यपाल ने इस तरह के क़ानूनों पर अपना दिमाग़ लगाया हो.

19 दिसंबर को नई दिल्ली में देश के आदिवासी इलाक़ों में पेसा क़ानून से जुड़ा एक राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ. इस सम्मेलन में देश के अलग अलग राज्यों से आए प्रतिनिधियों ने अपने अपने राज्यों में पेसा क़ानून को लागू होने के अनुभवों को साँझा किया. 

इस सम्मेलन में हुई चर्चा के बाद यही निष्कर्ष निकलता है कि देश के आदिवासी बहुल इलाक़ों में इस क़ानून को लागू करने में ईमानदारी से काम नहीं किया गया है. देश के जिन दस राज्यों में संविधान की पाँचवीं अनुसूची लागू है, उनमें से आठ राज्यों ने ही इस क़ानून से जुड़े नियम बनाए हैं.

आदिवासी आबादी के नज़रिये से दो बड़े राज्यों ओडिशा और झारखंड ने अभी तक इस क़ानून के नियम नहीं बनाए हैं. इस सम्मेलन में शामिल ज़्यादातर कार्यकर्ताओं और सामाजिक चिंतकों ने यही कहा कि जिन राज्यों में इस क़ानून से जुड़े नियम बने भी हैं, उनमें बेईमानी की गई है.

इस क़ानून में ग्राम सभाओं को अधिकार दे कर आदिवासी स्वशासन प्रणाली को मज़बूत बनाने और आम आदिवासी की अपने संसाधनों के प्रबंधन में भागीदारी की जो मंशा थी, किसी भी राज़्य सरकार ने उस मंशा से काम नहीं किया है. 

इस सम्मेलन में पाँचवीं अनुसूची के राज्यों में राज्यपाल की संविधान में तय भूमिका और असलियत पर भी चर्चा हुई. 

पाँचवीं अनुसूची के इलाक़ों में राज्यपाल की भूमिका

संविधान के दसवें भाग में पाँचवीं और छठी अनुसूची के प्रावधान रखे गए हैं. इस भाग में अनुच्छेद 244 (1) में पाँचवीं अनुसूची के प्रावधानों को रखा गया है और 244(2) छठी अनुसूची के प्रावधान आते हैं.

पाँचवीं अनुसूची में अनुसूचित जनजाति क्षेत्रों के प्रशासन और नियंत्रण के लिए प्रावधान किये गए हैं. लेकिन असम, मेघालय और त्रिपुरा राज्यों के आदिवासी बहुल इलाक़ों में संविधान की छठी अनुसूची के प्रावधान लागू होते हैं. 

आंध्र प्रदेश का बँटवारा होने के बाद अब तेलंगाना सहित दस राज्य हैं जहां पर संविधान की 5 अनुसूची लागू होती है. ये राज्य हैं आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, ओडिशा, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र.

संविधान की पाँचवीं अनुसूची के अनुसार आदिवासी इलाक़ों के प्रशासन और नियंत्रण के लिए राज्य के राज्यपाल को विशेष अधिकार दिए गए हैं. इन अधिकारों के तहत राज्यपाल को अनुसूचित इलाक़ों में प्रशासन से जुड़ी तीन महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी दी गई हैं. 

  1. राज्यपाल की ज़िम्मेदारी है कि अनुसूचित इलाक़े में प्रशासन से जुड़ी एक रिपोर्ट हर साल राष्ट्रपति को भेजें. इस रिपोर्ट के आधार पर राष्ट्रपति से उम्मीद की जाती है कि वो अनुसूचित इलाक़ों में प्रशासन से जुड़े निर्देश राज्य सरकार को दें.
  2. राज्यपाल को यह अधिकार है कि वह आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए संसद या विधान सभा से पास किसी क़ानून को अनुसूचित इलाक़ों में भी लागू करने से रोक दें. राज्यपाल को यह अधिकार भी होता है कि अगर उन्हें लगता है कि आदिवासी हितों की रक्षा के लिए किसी क़ानून को कुछ परिवर्तन के साथ लागू किया जाना चाहिए तो वे ऐसा कर सकते हैं.
  3. राज्यपाल अनुसूचित इलाक़ों में शांति और अच्छे प्रशासन के लिए नियम बना सकते हैं. 

यानि संविधान में आदिवासी हितों की रक्षा करने के साथ साथ उनके संसाधनों के नियंत्रण और प्रशासन में भागीदारी को सुनिश्चित करने के उपाय रखे गए हैं. लेकिन अफ़सोस की बात ये है कि शायद ही कभी अनुसूचित इलाक़ों वाले किसी राज्य के राज्यपाल ने अपनी ज़िम्मेदारियों का पालन किया है. 

पाँचवीं अनुसूची क्षेत्रों में आदिवासियों के मुद्दे

देश के जिन 10 राज्यों में संविधान की पाँचवीं अनुसूची लागू है उनमें से ज़्यादातर में आदिवासियों के लिए सबसे बड़ा मुद्दा विस्थापन और उससे पैदा हुई चुनौतियाँ हैं.

देश के आदिवासी इलाक़ों में विकास परियोजनाओं मसलन खनिजों के लिए खदान, बांध, सिंचाई परियोजनाएँ, फ़ैक्टरियाँ  और अब इनमें पर्यटन के लिए आदिवासी विस्थापित होते रहे हैं. 

देश के विकास के लिए शायद विस्थापन को टालना शायद असंभव है. लेकिन अफ़सोस की बात ये है कि अभी तक आदिवासी को बिना किसी पुख़्ता पुनर्वास या मुआवज़ा नीति के विस्थापित होने के लिए मजबूर किया जाता रहा है. 

EPW (Economic & Political Weekly, Vol No 44) में प्रकाशित प्रोफ़ेसर वर्जिनियस ख़ाखा के एक लेख में यह दावा किया गया है कि 1951 से 1990 के बीच आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान और ओडिशा में ही कम से कम 2 करोड़ 10 लाख लोग विस्थापित हुए हैं. इनमें से 40 प्रतिशत आदिवासी हैं. 

इन विस्थापित आदिवासियों में से सिर्फ़ 24.8 प्रतिशत आदिवासियों का ही ढंग से पुनर्वास हो पाया है. 

विस्थापन के अलावा आदिवासियों के भूमि हड़पा जाने के मामले भी अनुसूचित क्षेत्रों में एक बड़ा मसला है. आदिवासियों की ज़मीन को ग़ैर आदिवासियों के हाथों हड़पे जाने से बचाने के कई प्रावधान मौजूद हैं. लेकिन इसके बावजूद आदिवासियों की ज़मीन हड़पे जाने की घटनाओं बहुत बड़ी संख्या में होती हैं.

ग्रामीण विकास मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, राजस्थान, त्रिपुरा और कर्नाटक जैसे राज्यों में आदिवासियों की 465000 एकड़ ज़मीन ग़ैर आदिवासियों ने हड़प ली थी. 

विकास के क्षेत्र की खाई

अगर ग़ैर आदिवासी इलाक़ों से आदिवासी इलाक़ों की तुलना की जाए तो विकास के मामले में एक गहरी और चौड़ी खाई नज़र आती है. मसलन स्कूलों और शिक्षा की अन्य सुविधाओं के मामले में आदिवासी इलाक़े काफ़ी पिछड़े हुए हैं. 

हिमाचल प्रदेश को छोड़ दें तो देश के ज़्यादातर आदिवासी इलाक़ों में राष्ट्रीय साक्षरता की औसत 73 प्रतिशत से काफ़ी कम है. कई राज्यों में तो आदिवासी साक्षरता दर 59 प्रतिशत से भी कम है. 

शिक्षा के अलावा स्वास्थ्य और पोषण के मामले में भी आदिवासी इलाक़े काफ़ी पिछड़े हुए हैं. 

इन सभी सुविधाओं की कमी के अलावा आदिवासियों को रोज़मर्रा की ज़िंदगी में भेदभाव, अपमान, शोषण और हिंसा का सामना भी करना पड़ता है. जो आदिवासी इलाक़े माओवादी आंदोलन के प्रभाव में हैं वहाँ आदिवासियों की हालत बेहद ख़राब है.

क्योंकि इन इलाक़ों में ना सिर्फ़ सरकार की योजनाओं का लाभ नहीं पहुँच पाता है, बल्कि माओवादियों और सुरक्षाबलों के संघर्ष में आदिवासी पिसता है. 

गवर्नर की क्या भूमिका हो सकती है

जैसा हमने पहले ही चर्चा की है कि देश के कम से कम 10 राज्यों में अनुसूची 5 के क्षेत्र हैं और इन राज्यों के राज्यपालों को संविधान विशेष शक्तियाँ प्रदान करता है. इन शक्तियों के तहत राज्यपाल को यह अधिकार मिलता है कि वे संसद या राज्य की विधान सभा से पास किसी क़ानून को आदिवासी इलाक़ों में लागू करने से रोक दे या फिर उसके कुछ प्रावधानों को बदल दे. 

मसलन जंगल, वन्य जीव या फिर पर्यावरण से जुड़े कई ऐसे क़ानून हैं जो आदिवासी हितों से टकराते हैं. ये कानून आदिवासी संसाधनों, जीविका, संस्कृति और जीवन शैली की रक्षा के लिए संविधान में दिए गए कई प्रावधानों का उल्लंघन करते हैं.

लेकिन ऐसा शायद ही कभी हुआ है जब किसी राजभवन ने इस तरह के क़ानूनों पर राज्यपालों से कभी चुनौती मिली हो. संविधान लागू होने के बाद एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता है जब किसी राज्य राज्यपाल ने इस तरह के क़ानूनों पर अपना दिमाग़ लगाया हो.

क्या गवर्नर के हाथ बंधे हैं

यह तो सर्वविदित है कि राज्यपाल को मंत्री परिषद की सलाह पर ही काम करना पड़ता है. इस दृष्टि से क्या गवर्नर के पास आदिवासियों के हितों की रक्षा करने की भूमिका अदा करने का अवसर सीमित नहीं हो जाता है.

इस मामले में यह ध्यान में रखना होगा कि गवर्नर मंत्रि परिषद की सलाह पर काम करेगा यह प्रावधान अगर संविधान में है तो पाँचवीं अनुसूची के प्रावधान भी संविधान का ही हिस्सा है. 

जब प्रतिभा पाटिल राष्ट्रपति थीं तो राज्यपालों के सम्मेलन में इस महत्वपूर्ण सवाल पर चर्चा हुई थी. इस सवाल पर अटॉर्नी जनरल ऑफ इंडिया की सलाह ली गई थी. अटॉर्नी जनरल ऑफ़ इंडिया ने यह स्पष्ट भी किया था कि अनुसूचित इलाक़ों में राज्यपालों के विशेष अधिकार स्पष्ट हैं.

इस मामले में गवर्नर के रोल की सीमाओं से ज़्यादा उनकी इच्छाशक्ति पर ज़्यादा बड़ा सवाल है. क्योंकि उनकी शक्तियों को कितनी चुनौती मिलती है यह तो तभी तय हो सकता है जब वो इसका इस्तेमाल करें.

लेकिन अभी तक तो किसी गवर्नर ने यह इच्छाशक्ति ही नहीं दिखाई है. जबकि हाल ही में कई गवर्नर अपने पद की गरिमा को दांव पर लगा कर अपने राजनीतिक मास्टर को खुश करने के लिए बयानबाज़ी करते हुए देखे जाते हैं.

केंद्र के इशारे पर गवर्नर राज्य सरकार से टकराने में बिलकुल भी नहीं हिचकते हैं. लेकिन ऐसा साहस कोई भी गवर्नर आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए संविधान से दी गई ज़िम्मेदारी को निभाने में नहीं दिखाता है.

आज़ादी के 75 साल बाद पहली बार कोई आदिवासी राष्ट्रपति के पद पर पहुँची हैं. इस बात में कोई शक नहीं है कि उनका इस पद पर पहुँचना प्रतीकों की राजनीति का हिस्सा है. लेकिन वे कम से कम अनुसूचित क्षेत्रों वाले 10 राज्यों के राज्यपालों से हर साल एक रिपोर्ट तो माँग ही सकती हैं.

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