HomeColumnsसावित्री ठाकुर का मज़ाक उड़ाना संसद में आदिवासी आवाज़ को कमज़ोर करेगा

सावित्री ठाकुर का मज़ाक उड़ाना संसद में आदिवासी आवाज़ को कमज़ोर करेगा

एक आदिवासी महिला मंत्री का भाषा के सवाल पर मज़ाक़ बनाना संसद और विधान सभाओं में आदिवासी आवाज़ को कमज़ोर करेगा. इसके साथ ही आदिवासी नेताओं में मीडिया के प्रति अविश्वास भी बढ़ेगा.

महिला और बाल विकास मंत्री सावित्री ठाकुर (Women & Child Development Minister) का मीडिया और सोशल मीडिया में मज़ाक उड़ाया जाना बेहद शर्मनाक और दुखद है. इसके साथ ही सावित्री ठाकुर का मज़ाक बनाया जाना एक ख़ास किस्म की मानसिकता है जो देश की मेहनतकश जनता के प्रतिनिधियों के प्रति तिरस्कार का भाव रखती है. 

मंगलवार 18 जून को मध्य प्रदेश के सरकारी स्कूलों में प्रवेशोत्सव का आयोजन किया गया था. इसे लेकर प्रदेश के अलग-अलग जिलों में कार्यक्रम का आयोजन किया गया था. भोपाल में मुख्यमंत्री एक सरकारी स्कूल में पहुंचे थे तो अन्य जगहों पर मंत्री और स्थानीय प्रतिनिधि पहुंचे थे. 

धार जिले के एक स्कूल में केंद्रीय महिला एवं बाल विकास राज्य मंत्री सावित्री ठाकुर पहुंची थीं. स्कूल चलें हम अभियान के तहत वह सरकारी स्कूल के बोर्ड पर बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ लिख रही थीं. इस दौरान वह सही से इसे नहीं लिख पाई हैं.

उन्होंने बोर्ड पर बेटी पड़ाओ बच्चाव लिख दिया. इस मौके पर मौजूद कुछ लोगों ने इसका वीडियो बनाया था जो अब सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है. उसके बाद सावित्री ठाकुर का मज़ाक बनाया जा रहा है. 

इस मामले में टीवी चैनल या अख़बार भी पीछे नहीं हैं. यह बार-बार बताया जा रहा है कि चुनावी हलफनामे के अनुसार धार सांसद और केंद्रीय महिला एवं बाल विकास राज्य मंत्री सावित्री ठाकुर 12वीं पास हैं, फिर भी वे हिन्दी में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ नहीं लिख पाई हैं. 

केंद्रीय महिला एवं बाल विकास राज्य मंत्री सावित्री ठाकुर धार लोकसभा सीट से सांसद हैं. वह धार लोकसभा सीट से दूसरी बार सांसद बनी हैं. उनके परिवार का राजनीति से दूर-दूर तक नाता नहीं रहा है. पति किसान हैं और पिता सरकारी कर्मचारी रहे हैं.  

ज़ाहिर है कि एक आदिवासी महिला सावित्री ठाकुर का केंद्रीय मंत्री पद तक का सफ़र आसान तो नहीं रहा होगा. उन्होंने ज़िला पंचायत से अपने राजनीतिक सफ़र की शुरुआत की और पार्टी के भी कई महत्वपूर्ण पदों पर काम किया.  अपने दम पर राजनीति में जगह बनाने वाली सावित्री ठाकुर को सिर्फ़ इसलिए निशाना बनाया जा रहा है कि वे हिंदी में एक नारा भी नहीं लिख पाईं. 

सोशल मीडिया और न्यूज़ चैनल उनकी बरसों की मेहनत को मिट्टी में मिलाने पर तुले हैं. लेकिन इस काम में लगे लोगों को शायद इस बात का अहसास नहीं है कि सावित्री ठाकुर का मज़ाक बनाना भारतीय लोकतंत्र को कितना भारी नुकसान पहुंचाएगा. 

संसद और विधान सभाओं में आदिवासी आवाज़ कमज़ोर होगी

देश की सबसे बड़ी पंचायत कही जाने वाली लोकसभा में कम से कम 47 आदिवासी सांसद चुने जाते हैं. लेकिन संसद में किसी भी महत्वपूर्ण क़ानून या मुद्दे पर बहस में आदिवासी सांसदों की भागीदारी ना के 

बराबर रहती है. क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल अपने आदिवासी सांसदों को बहस में हिस्सा लेने का मौका ही नहीं देता है.

पश्चिम बंगाल के झारग्राम से संथाल आदिवासी समुदाय से सांसद बने कुनार हेम्ब्रम ने मैं भी भारत के एक इंटरव्यू में आदिवासी सांसदों को उनकी पार्टी द्वारा बहस में भागीदार नहीं बनाने सबसे बड़ी वजह भाषा को ही बताया था.

उनका कहना था कि राष्ट्रीय दल या फिर क्षेत्रीय दल सभी संसद में ऐसे नेताों को बहस में उतारना चाहते हैं जो प्रभावी तरीके से बोलते हैं. इसलिए यह देखा गया है कि आदिवासियों के अधिकार या पहचान से जुड़े मुद्दों पर भी ग़ैर आदिवासी सासंद ही सदन में ज़्यादा बोलते हैं. 

इस पृष्ठभूमि में अगर केंद्रीय मंत्री सावित्री ठाकुर का इसलिए मज़ाक बनाया जाना आदिवासी सांसदों को और डराएगा. इसके साथ ही राजनीतिक दल भी अपने आदिवासी सांसदों को किसी बहस में भाग लेने का मौका देने से बचते रहेंगे.

आदिवासी नेताओं में मीडिया के प्रति अविश्वास बढ़ेगा

पिछले 10 साल में आदिवासी क्षेत्रों में ग्राम पंचायत सदस्यों से लेकर सांसद और मंत्रियों तक और अलग अलग पार्टियों और संगठन के कार्यकर्ताओं और नेताओं से हमारी बातचीत हुई है. इस दौरान हमने यह पाया कि ज़्यादातर आदिवासी नेता कैमरे पर बात करने में झिझकते हैं. 

इसका मतलब यह नहीं है कि वे अपने कार्यक्षेत्र की समझ नहीं रखते हैं. वे बात करने में इसलिए झिझकते हैं कि जिस भाषा में हम चाहते हैं उस भाषा में किसी मुद्दे को समझाना उनके लिए आसान नहीं होता है. वे इस बात से भी डरते हैं कि उनकी भाषा ही नहीं बात करने की शैली का भी मज़ाक बनाया जा सकता है. 

हमारा अनुभव बताता है कि आदिवासी नेता अन्य समुदायों या क्षेत्रों के नेताओं, विधायकों या सांसदों की तुलना में अपने समुदाय के मुद्दों पर ज़्यादा संजीदा होते हैं. आदिवासी नेता अपनी बात को रखने में भी सक्षम हैं बशर्ते आप उन्हें यह विश्वास दिलाएं कि आप उनकी बात सुनना चाहते हैं. 

किसी आदिवासी नेता का मीडिया में उसकी भाषा का मज़ाक बनाना उनके मन में इस बात को और पुख़्ता करता है कि दरअसल मीडिया उनकी बात सुनने से ज़्यादा उनका मज़ाक बनाने में रुचि रखता है.

राजनीतिक दलों के प्रतिनीधियों को सावधानी की ज़रूरत

लोक सभा चुनाव 2024 के चुनाव परिणामों के बाद कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने कहा कि ग़रीब, आदिवासी, दलित और मेहनतकश जनता संविधान और लोकतंत्र की रक्षा में खड़ा हुआ है. अपने चुनाव प्रचार के दौरान भी राहुल गांधी ने लगातार आदिवासियों की पहचान और अधिकारों की बातें काफ़ी मजबूती से रखी थीं.

लेकिन जिस तरह से उनके पार्टी के नेता सावित्री ठाकुर का मज़ाक बनाने में शामिल हुए हैं वह शर्मनाक और परेशान करने वाला है. एक राष्ट्रीय दल जिसने संविधान और आरक्षण बाचने के नारे के साथ चुनाव लड़ा अगर उसके नेता एक आदिवासी महिला मंत्री का मज़ाक इस लिए उड़ा रहे हैं कि वह हिंदी नहीं लिख पाती हैं तो यह बेहद अफ़सोसनाक है.

आदिवासियों को मुख्यधारा में शामिल करने के वादों पर सवाल

देश की आज़ादी के बाद से लगातार यह कहा जाता रहा है कि आदिवासियों को देश की मुख्यधारा में शामिल किया जाना चाहिए. यानि देश सामाजिक और आर्थिक तरक्की से रास्ते पर आदिवासियों को भी साथ ले कर चले. 

लेकिन एक आदिवासी महिला केंद्रीय मंत्री का मज़ाक उड़ाए जाने की यह घटना बताती है कि यह वादा कितना खोखला है. देश के शिक्षण संस्थानों से लेकर संसद तक अगर आदिवासी समुदाय के लोगों को भेदभाव देखना पड़ता है तो भला कैसे देश यह दावा कर सकता है कि वह अपने जनजातीय समुदायों को भी विकास में हिस्सेदार बनाना चाहता है.

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि शिक्षा किसी भी व्यक्ति या समाज के विकास में बेहद महत्वपूर्ण है. इसके साथ ही अपनी मातृभाषा के अलावा अन्य भाषाओं का ज्ञान भी व्यक्ति को ज़्यादा सक्षम बनाता है. लेकिन क्या शिक्षा और भाषा ही किसी की क्षमता या योग्यता का पैमाना हो सकता है? ख़ासतौर से राजनीति के क्षेत्र में क्या शिक्षा और भाषा किसी के योगदान का पैमाना हो सकता है? 

ख़ासतौर से आदिवासियों के मामले में यह बात ध्यान रखनी होगी कि देश के ये समुदाय मुख्यधारा कहे जाने वाले समाज से कटे रहे हैं. आदिवासी भाषाओं में पढ़ाई लिखाई ना होना जनजातीय क्षेत्रों में शिक्षा के स्तर ख़राब होने का एक बड़ा कारण भी रहा है. 

ख़ासतौर से राजनीति के क्षेत्र में शिक्षा और भाषा के साथ साथ सबसे ज़्यादा ज़रूरी काबलियत लोगों से जुड़े रहना होता है. मुझे लोकसभा और राज्यसभा की कार्रावाई कवर करने का कम से कम एक दशक तक मौका मिला है. इस दौरान मैने तो यही महसूस किया कि महत्वपूर्ण विधेयकों या मुद्दों पर ज़मीन से जुड़े नेताओं का योगदान बहस में ज़्यादा ज़रूरी होता है. 

मुझे लगता है कि धार लोक सभा सीट से जीतने वाली सासंद सावित्री ठाकुर मोदी मंत्रीमंडल में किसी भी अन्य मंत्री से कम नहीं आंकी जानी चाहिए, हां उनके काम काज की निगरानी की जा सकती और ज़रूरत हो तो आलोचना भी हो सकती है…लेकिन भाषा ज्ञान के बारे में उनका मज़ाक बनाना देश को शर्मिंदा करता है. 

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