HomeColumns'जनजातीय गौरव दिवस' में साज़िश मत तलाशो, सही सवाल करो

‘जनजातीय गौरव दिवस’ में साज़िश मत तलाशो, सही सवाल करो

बिरसा मुंडा की जयंती को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाए जाने की घोषणा एक महत्वपूर्ण कदम है जो आदिवासी मसलों को बहस में लाने का एक मौक़ा और बहाना बनता है. बिरसा मुंडा की जयंती को एक बड़े आयोजन में बदलने के पीछे बेशक सरकार की सियासी मंशा हो सकती है. इसे सरकारी औपचारिकता भी कहा जा सकता है. लेकिन यह औपचारिकता बन कर ना रह जाए और यह दिन आदिवासी मसलों को बहस में लाने का कारण बने यह तय करना होगा. यह काम देश के आदिवासी नेताओं, नौजवानों, बुद्धिजीवियों और पत्रकारों को करना होगा.

15 नवंबर 2021 सोमवार यानि आज भोपाल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक बड़ी आदिवासी रैली को संबोधित करेंगे. इससे पहले प्रधानमंत्री राँची में बने एक आदिवासी संग्रहालय का वर्चुअल उद्घाटन करेंगे. दरअसल सरकार ने घोषणा की है कि अब से 15 नवंबर यानि बिरसा मुंडा का जन्मदिन ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाया जाएगा. 

इस सिलसिले में मध्यप्रदेश सरकार की तरफ़ से अख़बारों में बड़े बड़े विज्ञापन भी छपे हैं. इन विज्ञापनों से अहसास होता है कि बीजेपी और उसकी केन्द्र और राज्य सरकार इस इवेंट को काफ़ी गंभीरता से ले रही है. 

ऐसा दावा किया जा रहा है कि आज की भोपाल रैली में कम से कम 2 लाख से ज़्यादा आदिवासी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सुनने आएँगे. इस रैली के इंतज़ाम में ख़ुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जुटे हैं. 

बिरसा मुंडा का जन्म आज के झारखंड में उलिहातु नाम के एक गाँव में हुआ. उनकी कर्मभूमि भी अपने गाँव के आस-पास का इलाक़ा ही रहा. लेकिन बिरसा मुंडा को देश के लगभग सभी आदिवासी समुदाय बराबर सम्मान देते हैं. 

‘धरती आबा’ पुकारे जाने वाले बिरसा मुंडा एक ऐसे आदिवासी हीरो हैं, जिन्हें देश के हर कोने में जाना जाता है. इतिहास में आदिवासी नायक या नायिकाओं की कमी नहीं है. लेकिन इन नायकों में बिरसा ही अकेले नज़र आते हैं जिन्हें देश के नायकों में गिना जाता है. 

सरकार का बिरसा मुंडा की जयंती को जनजातीय गौरव दिवस के तौर पर मनाने की घोषणा से भी यह साबित होता है कि बिरसा मुंडा आदिवासियों के ही नहीं देश के नायकों में गिने जाते हैं. 

बिरसा मुंडा जयंती को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाए जाने की घोषणा के पीछे सियासी मंशा हो सकती है. इसके अलावा सोशल मीडिया पर कुछ आदिवासी नौजवानों और कार्यकर्ताओं ने यह सवाल भी किया है कि इसे ‘आदिवासी गौरव दिवस’ क्यों नहीं कहा जाए. 

यह सवाल करते हुए इन लोगों ने ‘आदिवासी’ पहचान का मुद्दा उठाया है. इस सवाल में कोई बुराई नहीं है. यह सवाल संविधान सभा की बहस में भी तो उठा था कि आख़िर आदिवासी शब्द के इस्तेमाल में क्या बुराई है.

लेकिन संविधान सभा ने तय किया था कि देश में आदिवासियों को जनजाति के रूप में ही पहचाना जाएगा. इसलिए जनजाति शब्द संवैधानिक है और सरकार की शायद यह मजबूरी भी है कि वो औपचारिक घोषणाओं में इस शब्द का ही इस्तेमाल करे.

मेरी नज़र में बिरसा मुंडा की जयंती को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाए जाने की घोषणा एक महत्वपूर्ण कदम है जो आदिवासी मसलों को बहस में लाने का एक मौक़ा और बहाना बनता है. 

कोई भी सरकार जब इस तरह की कोई घोषणा करती है तो उसके पीछे कोई ना कोई सियासी कारण ही होता है. सरकारें अक्सर जन दबाव या फिर जन समर्थन की आस में इस तरह के फ़ैसले लेती आई हैं. 

वर्तमान सरकार को भी यह उम्मीद होगी कि बिरसा मुंडा की जयंती को बड़े पैमाने पर मनाने का फ़ैसला उसे आदिवासी आबादी में मिले समर्थन को बरकरार रखने या बढ़ाने में मदद कर सकता है.

लेकिन यह घोषणा विपक्ष, आदिवासी संगठनों, नेताओं, बुद्धिजीवियों और पत्रकारों को भी मौक़ा देता है कि ‘जनजातीय गौरव दिवस’ पर देश में आदिवासियों के हालात पर चर्चा करे. यह  एक दिन होगा जब हर साल औपचारिक सरकारी कार्यक्रमों के अलावा आदिवासी मसलों पर चर्चा का बहाना बनेगा.

जनजातीय गौरव दिवस पर आदिवासी पहचान के अलावा उनके हक़ों के मसलों पर बहस का मौक़ा भी बनेगा. मसलन आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आदिवासियों को बताएँगे कि उनकी सरकार ने आदिवासी समुदायों के लिए क्या क्या किया है. 

वहीं उनके दावों पर सवाल भी किए जाएँगे. आज उनसे पूछा जाना चाहिए कि उनके कार्यकाल में जनजातीय कार्य मंत्रालय का बजट लगातार कम क्यों हो रहा है. पिछले बजट में चुपचाप 200 करोड़ क्यों काट लिए गए थे. 

इसके अलावा उनसे यह भी पूछा जाना चाहिए कि जिस मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में बिरसा मुंडा की जयंती पर वो आदिवासी रैली कर रहे हैं, वहाँ फोरेस्ट राइट एक्ट (Forest rights Act) को लागू करने में कोताही क्यों हो रही है. क्यों अभी भी जमीनों पर लाखों आदिवासियों के दावे लंबित पड़े हैं. 

यह मौक़ा है कि मध्य प्रदेश में आदिवासियों पर अत्याचार के मामले सबसे अधिक क्यों हैं. क्या कारण है कि आदिवासियों में कुपोषण से बच्चों और औरतों की मौत का सिलसिला थम नहीं रहा है.

बिरसा मुंडा की जयंती को एक बड़े आयोजन में बदलने के पीछे बेशक सरकार की सियासी मंशा हो सकती है. इसे सरकारी औपचारिकता भी कहा जा सकता है. लेकिन यह औपचारिकता बन कर ना रह जाए और यह दिन आदिवासी मसलों को बहस में लाने का कारण बने यह तय करना होगा.

यह काम देश के आदिवासी नेताओं, नौजवानों, बुद्धिजीवियों और पत्रकारों को करना होगा. 

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