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डिलिस्टिंग: इतिहास और तथ्यों को खारिज करने की कोशिश

राजनीति और चुनाव की अपनी मजबूरियां होती हैं लेकिन इतिहास और तथ्यों की पवित्रता अपनी जगह पर अटल रहती है. आप उसे खारिज नहीं कर सकते हैं. धर्म परिवार्तन और आदिवासी आरक्षण के मामले में इतिहास को खारिज करने की कोशिश हो रही है.

मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, राजस्थान और झारखंड में रह रह कर डीलिस्टिंग (Dilisting) का मुद्दा उछाला जा रहा है. इन राज्यों में जल्दी ही विधान सभा के चुनाव होंगे. 

इससे पहले गुजरात के विधान सभा चुनाव हुए हैं. यहाँ पर भी चुनाव से पहले धर्म परिवर्तन कर चुके आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति की सूचि से बाहर किये जाने की माँग उठाई गई थी.

अगले साल देश में आम चुनाव भी होगा और इस चुनाव से पहले सत्ताधारी दल ने आदिवासी मतदाता को एक अलग वोट बैंक में तब्दील करने की रणनीति पर काम शुरू किया है. 

 डीलिस्टिंग के मुद्दे को जीवित रखने के पीछे और बार-बार इसे बहस के केन्द्र में लाने के पीछे कारण स्पष्ट तौर पर चुनाव में लाभ पाने की मंशा है. लेकिन यह कहा जाता है कि इतिहास और तथ्यों (Facts) को बदला नहीं जा सकता है.

इतिहास और तथ्यों की समीक्षा से यह पता चलता है कि डीलिस्टिंग का मुद्दा तर्कों पर नहीं टिका है. आईए इस मसले से जुड़े इतिहास और तथ्यों को थोड़ा समझने की कोशिश की जाए:- 

  1. संसद और सुप्रीम कोर्ट में यह मामला नहीं टिका

कार्तकि उराँव अपने समय के क़द्दावर आदिवासी नेता था. संविधान सभा के सदस्य जयपाल सिंह मुंडा के बाद कार्तिक उराँव को अपने समय में इतनी ख्याति मिली थी. 

वे आज के झारखंड में और तत्कालीन बिहार में लोहरदगा से सांसद रहे. उन्होंने संसद में एक बिल पेश किया था जिसमें धर्म परिवर्तन कर चुके आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति की सूची से बाहर करने का प्रावधान किया गया था. लेकिन यह बिल संसद में पास नहीं हो पाया था. 

इसके अलावा कार्तिक उराँव डिलिस्टिंग के मामले को सुप्रीम कोर्ट भी ले गए थे. दरअसल 1962 के लोकसभा चुनाव में कार्तिक उराँव कांग्रेस के उम्मीदवार थे. लेकिन वो लोहरदगा सीट पर डेविड मुंजनी से 17000 वोटों से चुनाव हार गए.

इस हार के बाद उन्होंने पहले इलेक्शन कमीशन और फिर सुप्रीम कोर्ट में यह दावा किया कि लोहरदगा अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सीट है. लेकिन डेविड मुंजनी एक ईसाई हैं और इसलिए वे इस आरक्षित सीट से चुनाव नहीं लड़ सकते हैं.

अपनी याचिका में कार्तिक उराँव ने यह दावा किया था कि उनके प्रतिद्वंद्वी यानि डेविड मुंजनी का परिवार ईसाई धर्म अपना चुका है. वे अब आदिवासी जीवनशैली को नहीं निभाते हैं. इसलिए वे इस सीट पर चुनाव लड़ने के लिए योग्य उम्मीदवार नहीं हो सकते हैं.

लेकिन अदालत ने उनके तर्कों को ख़ारिज कर दिया था. अदालत ने जिन तर्कों पर अपना फ़ैसला दिया था उसके अनुसार आदिवासी हिन्दू धर्म की तरह किसी वर्ण व्यवस्था या जाति व्यवस्था का पालन नहीं करते हैं. इसलिए धर्म परिवर्तन के बाद भी डेविड मुंजनी का परिवार एक उराँव परिवार ही माना जाएगा. 

यह माँग उठाने वाले राजनीतिक दल और नेता दरअसल जान-बूझ कर इतिहास से अनजान बनते हैं. आदिवासी धर्म या दर्शन और हिन्दू धर्म में काफ़ी अंतर है. आदिवासियों में समूह होते हैं जाति नहीं पाई जाती है. मसलन भील, गोंड, उराँव ये सभी जातियाँ नहीं हैं. ये आदिवासी समुदाय या समूह कहे जाएँगे. 

इन समुदायों के अपने गोत्र या वंश (clan) हैं. मसलन भील जनजाति के 23 क्लेम हैं, मुंडा के पाँच बड़े क्लेन हैं.  उसी तरह से उराँव या दूसरे आदिवासी समुदायों के भी अपने अपने क्लेन होते हैं. यानि किसी आदिवासी को धर्म के आधार पर नहीं बल्कि जन्म के आधार पर पहचाना जाता है. 

  1. आदिवासी धर्म या दर्शन क्या है

आदिवासी प्रकृति का पुजारी होता है. कुछ लोग यह भी कहते हैं कि आदिवासी समुदाय आत्माओं या प्रेतात्माओं में विश्वास रखते हैं. लेकिन अगर आप आदिवासी धर्म और उनके दर्शन को समझना चाहेंगे तो सरना धर्म की अवधारणा उसके सबसे क़रीब मिलती है. सरना धर्म को मानने वालों की धारणा के अनुसार उनका सर्वोच्च देवता ( सिंहबोंगा) साल के पेड़ में वास करता है.

आदिवासी धर्म में भगवान और व्यक्ति के बीच सीधा संवाद होता है. उसे किसी मध्यस्थ (पुरोहित-पुजारी) की ज़रूरत नहीं होती है. वह अपने देवता का आह्वान करता है और उसका देवता किसी व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं. कुल मिला कर अगर आप आदिवासी धर्म या दर्शन को समझना चाहते हैं तो उसके मूल में प्रकृति है. 

प्रकृति यानि जल, जंगल, पहाड़ की अनुपस्थिति में आदिवासी के भगवान की कल्पना नहीं की जा सकती है. 

  1. चर्च, प्रलोभन और धर्म परिवर्तन

चर्च और आदिवासियों के बारे में कई तरह की धारणाएँ, अफ़वाहें और ग़लत जानकारियाँ फैली हैं. सबसे पहले तो यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि चर्च लोगों को ईसाई बनाने की मंशा से ही आदिवासी इलाक़ों में स्कूल खोलता है. चर्च ने आदिवासी इलाक़ों से ज़्यादा स्कूल तो ग़ैर आदिवासी इलाक़ों में खोले हैं.

बल्कि चर्च ने शहरी इलाक़े में अंग्रेज़ी मीडियम के अच्छी क्वालिटी के स्कूल खोले हैं और आदिवासी इलाक़ों में तो बचा-खुचा कुछ ही लोगों को दिया गया है. यानि शिक्षा की गुणवत्ता में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ है. यह तर्क भी सही नहीं है कि ईसाई बने आदिवासी सारे आरक्षण का लाभ लेते हैं.

इसके लिए गुजरात, राजस्थान या झारखंड कहीं भी आँकड़े उठा कर देखेंगे तो पाएँगे कि यह सच नहीं है. आप सारे चुने हुए प्रतिनिधियों को ही देख लें और पता लगा लें कि आरक्षित सीटों पर कितने ईसाई आदिवासी चुनाव जीत रहे हैं. 

  1. प्रलोभन, डर और ईसाई जनसंख्या

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि आदिवासियों में धर्म परिवर्तन हुआ है. लेकिन इससे जुड़ी दो ज़रूरी बातें हैं – एक बात की धर्म परिवर्तन किसी प्रलोभन या डर से नहीं हो रहा है, दूसरी बात यह कि बड़े स्तर पर धर्म परिवर्तन नहीं हो रहा है. 

आदिवासी समुदायों में अगर लोग हिन्दू या ईसाई बन रहे हैं तो उसका कारण है इन धर्मों का संगठित और अनुशासित होना. इन धर्मों का हिस्सा बन कर आदिवासी को लगता है कि उसका जीवन स्तर उपर उठ रहा है. उसके जीवन में एक अनुशासन आता है. 

लेकिन यह कहना कि किसी डर या प्रलोभन में आदिवासी ईसाई बन रहा है तो फिर यह बात कहने वाला आदिवासी को ना तो जानता है और ना ही समझता है. 

अब आते हैं दूसरी बात पर – क्या आदिवासियों में बड़े स्तर पर धर्म परिवर्तन हो रहा है ? कम से कम आँकड़े तो यह नहीं कह रहे हैं. झारखंड में अगर आप आँकड़ों को देखें तो यहाँ पर 80 लाख आदिवासी बताए जाते हैं. इनमें से 35 लाख आदिवासी ख़ुद को हिन्दू लिखते हैं, 14 लाख आदिवासी ख़ुद को ईसाई लिखते हैं और बाक़ी आदिवासी ख़ुद को सरना धर्म मानने वाले लिखते हैं.

जनगणना में अगर आप देश भर में ईसाई आबादी के आँकड़े देखेंगे तो आप पाएँगे कि 2001 की तुलना में ईसाई आबादी कम हो रही है. 2001 में ईसाई आदिवासी 2.4 प्रतिशत था जबकि 2011 की जनगणना में यह घट कर 2.3 प्रतिशत ही रह गया.

राजनीति और चुनाव में लोगों के बीच में भावनात्मक मुद्दे उछाले जाते हैं…डिलिस्टिंग भी वैसा ही एक मुद्दा है जो तथ्यों की कसौटी पर कसते ही खोखला साबित हो जाता है.  

(ये लेख प्रोफेसर संतोष किड़ो से बातचीत पर आधारित है)

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