HomeAdivasi Dailyसाँसों की डोर टूटती रही, लेकिन काग़ज़ तैयार नहीं हुए

साँसों की डोर टूटती रही, लेकिन काग़ज़ तैयार नहीं हुए

ओडिशा में लोधा, हिल खड़िया और बोंडा की दुर्दशा भी देखी. ऐसा नहीं है कि जो हमने देखा वो सरकार ने नहीं देखा. सरकार ने भी इन आदिवासियों की हालत को देखा है. बल्कि सरकार ने तो देश भर के आदिवासियों की हालत पर एक दस्तावेज तैयार करवाया है.

अगर किसी मरीज़ की साँस की डोर टूट रही हो तो पहले इलाज दिया जाएगा या फिर काग़ज़ तैयार किये जाएँगे? मुन्ना भाई एमबीबीएस फ़िल्म का किरदार यही सवाल पूछ कर तालियाँ बटोरता है. यह एक हास्य फ़िल्म थी जो कई मायनों में असलियत से काफ़ी दूर थी. लेकिन मुन्ना भाई का यह सवाल तो जायज़ था और हमारी व्यवस्था के बारे में बिलकुल सही तस्वीर भी पेश करता है.

देश के सबसे कमज़ोर और पिछड़े आदिवासी समुदायों के मामले में भी यह सवाल जायज़ नज़र आता है. 2014 में एक हाई लेवल कमेटी की रिपोर्ट में यह बताया गया कि ये आदिवासी समुदाय यानि पीवीटीजी दम तोड़ रहे हैं. कुपोषण, भुखमरी और बीमारियों से उनकी मौत हो रही है. लेकिन अफ़सोस कि इस रिपोर्ट पर तो अभी तक काग़ज़ी खा़नापूर्ती भी नहीं हो पाई है. 

देश के कुल 705 आदिवासी समुदायों में से 75 को पीवीटीजी (Particularly Vulnerable Tribal Groups) की श्रेणी में रखा गया है. यानि इन आदिवासी समुदायों को कई नज़रिए से कमज़ोर और पिछड़े समुदायों के तौर पर पहचाना गया है. इन समुदायों के बारे में यह माना गया है कि इनमें से कई समुदायों की आबादी में ठहराव है या फिर उनकी आबादी लगातार कम हो रही है.

ओडिशा के मांकड़िया

मैं भी भारत की ग्राउंड रिपोर्टिंग में हमने झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और अंडमान निकोबार की दशा को देखा और समझने का प्रयास किया. इस सिलसिले में हम मध्य प्रदेश के श्योपुर में सहरिया आदिवासियों से मिले. झारखंड में बिरहोर और ओडिशा में लोधा और हिल खड़िया आदिवासियों से मिलने का मौक़ा मिला. इसके अलावा आंध्र प्रदेश में गडबा और कोदू के अलावा भी कई और पीवीटीजी आदिवासियों से मिलने का मौक़ा मिला.

हमने अपनी ग्राउंड रिपोर्ट्स में यह दिखाया था कि किस तरह से श्योपुर में कुपोषण और भुखमरी से सहरिया बस्तियों में बच्चों की मौत हो रही है. यहाँ एक एक बस्ती में 15-20 मौतें दर्ज हो रही थीं.

वहीं झारखंड के बिरहोर बस्तियों में भी हालात बेहद ख़राब थे. यहाँ हमने नोटिस किया था कि जो बिरहोर अभी भी जंगल में रह रहे थे उनकी हालत की तुलना में उन बिरहोर आदिवासियों की हालत ज़्यादा ख़राब थी जिन्हें सरकार ने जंगल से निकाल कर बस्तियों में बसा दिया था.

झारखंड के बिरहोर

तमिलनाडु और केरल की सीमा पर नीलगिरी के पहाड़ों पर हमने पाया था कि यहाँ के आदिवासी समुदाय अब यहाँ अल्पसंख्यक बन चुके हैं. इन आदिवासी समुदायों में हमें एक अजीब सा डिप्रेशन नज़र आया. जीवन के प्रति उमंग जैसे पूरी तरह से ग़ायब है.

ओडिशा में लोधा, हिल खड़िया और बोंडा की दुर्दशा भी देखी. ऐसा नहीं है कि जो हमने देखा वो सरकार ने नहीं देखा. सरकार ने भी इन आदिवासियों की हालत को देखा है. बल्कि सरकार ने तो देश भर के आदिवासियों की हालत पर एक दस्तावेज तैयार करवाया है.

इस सिलसिले में प्रोफ़ेसर वर्जीनियस खाखा की अध्यक्षता में एक हाई लेवल कमेटी का गठन किया गया था. 2014 में इस कमेटी ने देश भर के आदिवासियों की हालत पर एक रिपोर्ट भी सरकार को सौंप दी थी.

इस रिपोर्ट में देश के आदिवासियों की सामाजिक आर्थिक स्थिति, रोज़गार और जीविका के अलावा स्वास्थ्य, शिक्षा और उनके संवैधानिक क़ानूनी अधिकारों की स्थिति की एक स्टडी पेश की गई है. 

छत्तीसगढ़ के पहाड़ी कोरवा

इस रिपोर्ट में समिति ने पीवीटीजी समुदायों की स्थिति पर भी विस्तार से चर्चा की है. चर्चा के अलावा कई केस स्टडी भी इस रिपोर्ट में शामिल की गई हैं. हम अपने ज़मीनी अनुभव के आधार पर कह सकते हैं कि इस रिपोर्ट में शामिल की गई केस स्टडीज़ में जो हालत पीवीटीजी की बताई गई है, कई इलाक़ों में स्थिति उससे भी ख़राब है. 

इस रिपोर्ट में पीवीटीजी समुदायों में कुपोषण पर काफ़ी विस्तार से लिखा गया है. इस बारे में रिपोर्ट में भोजन का अधिकार (Right to Food Act), फॉरेस्ट राइट्स एक्ट (Forest Rights Act), पेसा (PESA) की ज़मीनी हकीकत को भी समझने और समझाने का प्रयास किया गया है.

लेकिन सात साल पहले दी गई इस रिपोर्ट पर अभी तक कोई ढंग की चर्चा तक नहीं हुई है. आईए देखें तो सही कि इस रिपोर्ट में पीवीटीजी समुदायों के बारे में कहा क्या गया है. 

इस रिपोर्ट में सबसे पहले भोजन का अधिकार के कमिश्नर की रिपोर्ट का हवाला दिया गया है. जिसमें यह बात स्वीकार की गई है कि विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों (पीवीटीजी) में कुपोषण सबसे अधिक है. 

रिपोर्ट यह मानती है कि ये समुदाय अपने परिवार के लिए खाना जंगल से ही जुटाते हैं. लेकिन अक्सर यह देखा गया है कि संरक्षणवादियों और पर्यावरणविदों द्वारा लगातार लॉबिंग की वजह से इन आदिवासियों की जंगल तक पहुँच ख़त्म कर दी जाती है.

ओडिशा के लोधा आदिवासी

इस वजह से इन आदिवासी समुदायों का पोषण प्रभावित होता है और उनका जीवन ख़तरे में पड़ता जाता है. 

इसके अलावा पीवीटीजी दुर्गम पहाड़ियों और जंगल में रहते हैं. इसलिए आंगनवाड़ी केंद्रों तक उनकी पहुँच ही नहीं हो पाती है. इसलिए उनके बच्चों को भी ऐसा खाना नहीं मिल पाता है जो उनके लिए ज़रूरी है.  इसके अलावा, आंगनवाड़ी केंद्र खोलने के लिए उनकी बस्तियों को बहुत छोटा माना जाता है. 

इन समुदायों के बच्चों की स्कूलों तक भी पहुँच नहीं है तो इसलिए स्कूलों में चलने वाली दोपहर के भोजन योजना का लाभ भी इन्हें नहीं मिलता है. 

इस रिपोर्ट में कई केस स्टडी का हवाला देते हुए तथ्यों को रखा गया है. मसलन केरल के पलक्कड़ जिले के अट्टपाड़ी में पीवीटीजी के बीच बच्चों की मौत ने कुपोषण, एनीमिया और अत्याधिक गरीबी के भूत को वापस ला दिया. 

रिपोर्ट में बताया गया है कि जब तक सुप्रीम कोर्ट में भोजन के अधिकार याचिका में आयुक्तों के सलाहकार की रिपोर्ट में जानकारी मिलती है कि उनके दौर से पहले ही यहाँ 36 बच्चों की मौत हो चुकी थी. 

अट्टपाड़ी में पता चला की खून की कमी, कुपोषण, पीने के साफ़ पानी की कमी, विशेष डॉक्टरों और उपकरणों कुछ ऐसी वजह हैं जो यहाँ बच्चों की मौतों के लिए ज़िम्मेदार हैं. यहाँ एक जनसुनवाई में यह भी पता पता चला कि कुरुम्बा आदिवासियों के घरों और राशन की दुकान के बीच की दूरी, आदिवासी समुदाय को पेयजल और सिंचाई सुनिश्चित करने वाली लघु सिंचाई परियोजनाओं की कमी, दूरदराज के आदिवासी गांवों तक दुर्गमता  बड़े मसले हैं. 

इसके अलावा सूखे से पैदा हुई समस्या एक मुद्दा भी उठाया गया.  यहां जनसुनवाई में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी सामने आया कि बिना वैकल्पिक भोजन की व्यवस्था किए शिकार पर पाबंदी ने आदिवासियों के पोषण को प्रभावित किया है. 

रिपोर्ट में यह भी नोट किया गया है कि कम से कम इस स्थिति को समझते हुए केरल सरकार ने एक ‘अट्टपाड़ी  पैकेज’ तैयार किया था.  इस पैकेज का मकसद कुरुम्बा पैकेज को लागू करने के साथ-साथ स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार, आंगनवाड़ियों के कामकाज और क्षेत्र में पारंपरिक कृषि पद्धतियों को पुनर्जीवित करना शामिल था. 

इस पैकेज में घर का निर्माण, भूमि की खरीद, बिजली के काम को शामिल किया गया था.  सरकार ने पीने के साफ़ पानी, सड़क, स्वास्थ्य, गरीबी उन्मूलन, सामुदायिक क्षेत्र विकास आदि को भी इस योजना में शामिल किया.  

बेशक यह काम आदिवासियों को काफ़ी नुक़सान हो जाने के बाद किया गया, लेकिन फिर भी यह कहा जा सकता है कि सरकार ने मसले को समझा और कुछ पहल भी की थी. 

यह रिपोर्ट कहती है कि देश भर में पीवीटीजी समुदायों को उनके अधिकारों से वंचित रखा गया है. कुपोषण के पीछे यह एक बड़ा कारण है. इसलिए यह बेहद ज़रूरी है कि इन समुदायों को जंगल पर नियंत्रण दिया जाए. 

पीवीटीजी आदिवासी समुदायों के लिए वन अधिकार क़ानून में विशेष प्रावधान भी किया गया है. इस क़ानून की सेक्शन 3(1) में पीवीटीजी के परिवेश की व्याख्या की गई है. यह व्याख्या रिज़र्व फ़ॉरेस्ट में भी लागू होती है. 

उड़ीसा माइनिंग कॉर्पोरेशन बनाम वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के एक मामले में साल 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, “आदिवासियों में विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों (पीवीटीजी) की नाज़ुक हालत को देखते हुए, जिला स्तरीय समिति को यह सुनिश्चित करने में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए कि सभी पीवीटीजी को जंगल में उनके अधिकार मिलें. 

कमेटी को आदिवासियों की सामाजिक और पारंपरिक संस्थाओं से बात करके यह तय करना चाहिए कि जंगल पर उनके दावे संबंधित ग्राम सभाओं के समक्ष दायर किए जाते हैं.”

पीवीटीजी के लिए, एफआरए (FRA) का लागू करने का काम सबसे कम हुआ है क्योंकि वन विभाग द्वारा उनके अधिकारों को स्पष्ट रूप से परिभाषित ही नहीं किया गया है. विशेष रूप से एफआरए के तहत पीवीटीजी के अधिकारों के प्रावधान लागू करने के बारे में राष्ट्रीय स्तर पर कोई अलग-अलग जानकारी और डेटा नहीं है.

2010 में ओडिशा सरकार ने पीवीटीजी समुदायों के लिए कुछ कदम उठाए थे. लेकिन इसके बावजूद वहाँ भी पीवीटीजी समुदायों एफ़आरए में बताए गए अधिकारों को नहीं दिया गया है. 

इस रिपोर्ट में आदिवासियों के परिवेश और फ़ॉरेस्ट राइट एक्ट से जुड़ा एक अहम तथ्य नोट किया गया है. वन अधिकार क़ानून के अनुसार आदिवासियों को उनके परिवेश यानि उस जंगल पर अधिकार देने का प्रावधान है जहां वो लंबे समय से परंपरागत तरीक़े से रहते आए हैं. 

लेकिन अक्सर यह देखा जाता है कि जब अधिकारी इस क़ानून के प्रावधानों की व्याख्या करते हैं तो आदिवासियों के अधिकारों को सीमित कर देते हैं. परिवेश को अक्सर उनके घरों और खेती की ज़मीन या फिर थोड़े बहुत आस-पास के जंगल को ही माना जाता है.

जबकि आदिवासी परंपरा के लिहाज़ से देखेंगे तो बेशक उनकी बस्तियाँ छोटी छोटी होती हैं, लेकिन उनका परिवेश काफ़ी बड़े इलाक़े में होता है. आदिवासियों की धार्मिक आस्थाएँ प्रकृति से जुड़ी होती हैं. ये आदिवासी नदियों, पहाड़ियों और पेड़ों की पूजा करते हैं. अपनी धार्मिक आस्थाओं के अनुसार वो जंगल और पहाड़ों पर अलग अलग पर्व पर अलग अलग स्थानों पर पूजा करते हैं.

 आदिवासियों के पूजा स्थल को उनके परिवेश का हिस्सा कैसे नहीं माना जा सकता है. लेकिन अक्सर इस तथ्य को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है. इस रिपोर्ट में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के बैगा आदिवासियों का उदाहरण दिया गया है.

मैं भी भारत की टीम को इस तरह की बातें हिल खड़िया समुदाय से बातचीत के दौरान भी पता चलीं. जब इस समुदाय के लोगों से हमने यह पूछा कि क्यों वो जंगल से बाहर आना नहीं चाहते हैं. तो उनका कहना था कि इस जंगल से वो तो बाहर आ जाएँगे, पर उनके देवी देवताओं को कैसे जंगल से बाहर लाया जाएगा. 

रिपोर्ट यह बताती है कि आदिवासियों के पूजा स्थलों को ध्यान में रख कर यह समझना ज़रूरी है कि यह आदिवासियों के परिवेश का हिस्सा हैं. 

PVTGs के संदर्भ में यह बात बेझिझक कही जा सकती है कि अनुसूचित जनजातियों के कई समुदायों और विशेष रूप से पीवीटीजी के समुदाय ग़रीबी और भूखमरी के शिकार हैं. यह रिपोर्ट कहती है कि जिन इलाक़ों में जंगल कम हुआ है उन इलाक़ों में इन आदिवासियों की हालत ज़्यादा ख़राब हुई है. 

कई राज्यों में जंगल में सिर्फ़ टिम्बर की ज़रूरत को पूरा करने के लिए पेड़ लगाने की नीति अपनाई कई है. यह नीति इन आदिवासियों को पोषण की नज़र से और कमजोर बनाती है. वैसे कुछ राज्यों में इन आदिवासियों के आस-पास के जंगल में फल वाले पेड़ लगाने का फ़ैसला भी लिया गया है.

मसलन छत्तीसगढ़ ने इस तरह का काम शुरू किया है, बेशक यह एक अच्छा कदम है. 

इस रिपोर्ट में सरकार को कई तरह की सिफ़ारिशें भी पेश की गई हैं जो आदिवासियों की हालत को सुधार सकती हैं. कमेटी ने अपनी समझ से सिफ़ारिशें की हैं, ज़ाहिर है इनमें से कुछ सिफ़ारिशों को नज़रअंदाज़ भी किया जा सकता है. 

अफ़सोस की पीवीटीजी यानि आदिवासियों में भी बेहद कमज़ोर और पिछड़े वर्ग पर दी गई पूरी रिपोर्ट को ही सरकार ने नज़रअंदाज़ कर दिया है. 

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