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आदिवासियों की हत्या में कांग्रेस और किसान आंदोलन पर बीजेपी के तर्क में क्या फ़र्क़ ?

छत्तीसगढ़ सरकार से पहला सवाल यह ही बनता है कि इस फ़ायरिंग की नौबत क्यों आई ? पुलिस ने जो थ्योरी दी है कि प्रदर्शनकारियों में माओवादी मौजूद थे, ना तो नई है और ना ही हज़म होने लायक़ है. यह बिलकुल वैसा ही तर्क है जो केंद्र की बीजेपी सरकार और दिल्ली पुलिस किसान आंदोलन के बारे में दे रही है. किसान आंदोलन में भी केंद्र सरकार कथित खालिस्तानियों की आड़ ले रही है. छत्तीसगढ़ की सरकार और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को यह बात ध्यान रखनी होगी कि अगर पुलिस या दूसरी संस्थाओं की जवाबदेही तय नहीं की जाती है तो उसकी क़ीमत राजनीतिक नेतृत्व को चुकानी पड़ती है.

छत्तीसगढ़ के बीजापुर और सुकमा ज़िले के कलेक्टरों के साथ बैठक के बाद भी आदिवासी अपनी ज़मीन से कैंप हटाए जाने की माँग पर डटे हुए हैं.

यहाँ पर 17 मई को सिलगेर नाम के गाँव में प्रदर्शन कर रहे आदिवासियों पर पुलिस ने फ़ायरिंग की थी. 

इस फ़ायरिंग में 3 लोगों की मौत हो गई थी. इसके अलावा कम से कम दो दर्जन लोग घायल हुए थे.

प्रदर्शनकारियों में से 8 लोगों को पुलिस ने हिरासत में ले लिया था. पुलिस अधिकारियों का कहना है कि इन प्रदर्शनकारियों से पूछताछ की जा रही है. लेकिन ख़बरों के अनुसार पुलिस इन लोगों को होस्टेज़ की तरह से इस्तेमाल कर रही है. 

पुलिस प्रदर्शनकारियों को इन लोगों की रिहाई के बदले में आंदोलन ख़त्म करने का दबाव बना रही है. 

स्थानीय पत्रकारों ने बातचीत में बताया कि सिलगेर पंचायत के तीन गाँवों के अलावा आस-पास के कम से कम 40 गाँवों के लोग केंद्रीय रिज़र्व पुलिस फ़ोर्स (सीआरपीएफ़) की 153वीं बटालियन के कैंप के ख़िलाफ़ सड़कों पर हैं.

अभी भी ये ग्रामीण पीछे हटने को तैयार नहीं हैं. 

मैं इस मसले पर देर से और दूर से लिख रहा हूँ. इस तरह की घटना पर किसी ठोस नतीजे पर तब तक संभव नहीं होता है जब तक आप ज़मीन पर मौजूद ना हों.

इसके बावजूद इस घटना से जुड़े कई सवाल हैं जो छत्तीसगढ़ सरकार से पूछने में मुझे कोई बुराई नज़र नहीं आती है. 

जब हम इस घटना की चर्चा कर रहे हैं तो मेरे मन में एक बात बिलकुल स्पष्ट है कि छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार को माओवादियों हिंसा के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने का पूरा अधिकार है. बल्कि यह उसकी ज़िम्मेदारी भी है.

कांग्रेस पार्टी की सरकारें माओवादी आंदोलन के बारे में क्या समझ रखती हैं, यह भी कोई छुपी हुई बात नहीं है. बेशक मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से उनके नेता विपक्ष के तौर पर दिए गए बयानों पर सवाल करना जायज़ बात है.

उस समय वो पुलिस की फ़र्ज़ी मुठभेड़ों पर सवाल कर रहे थे.

वो उस समय मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ सुर मिला रहे थे. इसके बावजूद मैं यह मानता हूँ कि भूपेश बघेल सरकार से यह उम्मीद करना कि वो छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाक़ों में पुलिस कैंप लगाने से पीछे हटेगी, शायद सही नहीं होगा.

केंद्र में यूपीए सरकार का नेतृत्व करने वाले प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह ने माओवाद को देश के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बताया था. उस समय के गृहमंत्री पी चिदंबरम के ऑप्रेशन ग्रीन हंट पर पर्याप्त बहस हो चुकी है.

छत्तीसगढ़ में ही साल 2013 के जीरम घाटी माओवादी हमले में कांग्रेस पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं की हत्या की गई थी. लेकिन भूपेश बघेल सरकार को यह ध्यान रखना होगा कि राजनीति में हमेशा  2+2= 4 ही नहीं होते हैं. 

17 मई को फ़ायरिंग में मारे गए आदिवासियों को नक्सल बता कर सही ठहराने की पुलिसिया कोशिश नई नहीं है. पुलिस अधिकारियों का काम करने का तरीक़ा देश भर में इसी तरह का रहा है. छत्तीसगढ़ में ही एक नहीं कई ऐसे उदाहरण मिल जाते हैं. 

छत्तीसगढ़ सरकार से पहला सवाल यह ही बनता है कि इस फ़ायरिंग की नौबत क्यों आई ? पुलिस ने जो थ्योरी दी है कि प्रदर्शनकारियों में माओवादी मौजूद थे, ना तो नई है और ना ही हज़म होने लायक़ है. 

यह बिलकुल वैसा ही तर्क है जो केंद्र की बीजेपी सरकार और दिल्ली पुलिस किसान आंदोलन के बारे में दे रही है. किसान आंदोलन में भी केंद्र सरकार कथित खालिस्तानियों की आड़ ले रही है.

पुलिस फ़ायरिंग और हिरासत में लिए गए आदिवासियों की रिहाई के लिए सौदेबाज़ी, यह साफ़ है कि बस्तर में पुलिस कैंप के विरोध को हैंडल करने के लिए पुलिसिया हथकंडे अपनाए जा रहे हैं.

छत्तीसगढ़ की सरकार और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को यह बात ध्यान रखनी होगी कि अगर पुलिस या दूसरी संस्थाओं की जवाबदेही तय नहीं की जाती है तो उसकी क़ीमत राजनीतिक नेतृत्व को चुकानी पड़ती है.

पुलिस और माओवादियों में एक सबसे बड़ा फ़र्क़ जवाबदेही का ही है. पुलिस को एक-एक गोली और उस गोली से हुई हर मौत का हिसाब देना होता है.  लेकिन ऐसा महसूस हो रहा है कि छत्तीसगढ़ सरकार 2+2=4 के फ़ार्मूले पर चल रही है.

यानि सरकार ये मान रही है कि इस बड़ी लड़ाई में कुछ कोलेट्रल डैमेज अपरिहार्य है. 

ज्यांद्रेज़, बेला भाटिया और सोनी सोरी को सिलेगर जाने से क्यों रोका

पिछले कई सालों से बस्तर में रह रही जानी-मानी सामाजिक कार्यकर्ता और वकील डॉक्टर बेला भाटिया और अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ जब घटना के दूसरे दिन सिलगेर जाने के लिए रवाना हुए तो सुरक्षाबलों के जवानों ने उन्हें वहाँ जाने से रोक दिया.

जब ये लोग अस्पताल में घायलों को देखने पहुँचे तो प्रशासन के लोग साये की तरह इन लोगों के साथ मौजूद रहे. बेला भाटिया ने एक बयान जारी कर बताया कि उन्हें किसी भी घायल से बातचीत नहीं करने दी गई. 

इसके अलावा भी कुछ और राजनीतिक लोगों को घटना स्थल पर नहीं जाने दिया गया है. आख़िर क्या कारण है कि बेला भाटिया, ज्यों द्रेज और सोनी सोरी को घटना स्थल जाने से रोका गया ?

क्यों उनको अस्पताल में इलाज करा रहे घायलों से ठीक से बातचीत नहीं करने दी गई? 

मुझे लगता है कि ज्या द्रेज, बेला भाटिया और सोनी सोरी से आप असहमत हो सकते हैं. लेकिन ये आवाज़ें आज के दौर में महत्वपूर्ण हैं. क्या छत्तीसगढ़ की सरकार को इन आवाज़ों को दबाते हुए नज़र आना चाहिए. 

जब कोई सरकार इस तरह का काम करती है तो उसकी मंशा पर सवाल उठना लाज़मी है. 

क्या छत्तीसगढ़ में इतने पुलिस कैंपों की ज़रूरत है 

यह बात तीन साल पहले की है, हम लोग छत्तीसगढ़ के कांकेर ज़िले में थे. यहाँ की अंतागढ़ तहसील के आस-पास के गाँवों में हम आदिवासियों से मिल रहे थे.

तीन दिन बाद हमने तय किया कि हम कोयलीबेड़ा ब्लॉक जाएँगे. लेकिन अंतागढ़ में आस-पास के गाँवों में जाने में हमारी मदद कर रहे एक आदिवासी हमें उस सुबह मिले ही नहीं जिनके साथ हमें जाना था.

उनका फ़ोन भी नहीं लग रहा था. हमने सोचा कि उनके घर चला जाए. लेकिन वो घर पर भी नहीं मिले.

ख़ैर हमने तय किया कि हम उनके बिना ही कोयलीबेड़ा जाएँगे. हम अंतागढ़ से कोयलीबेड़ा के लिए निकल पड़े. घने जंगल से हो कर जाने वाली क़रीब 22 किलोमीटर की सड़क पर हमें केंद्रीय सुरक्षा बलों के दो कैंप मिले.

दोनों ही चेकपोस्ट पर हमें रोका गया. कोयलीबेड़ा पहुँच कर यहाँ हम अपने एक संपर्क सहयोगी से मिले. 

पहले वो हमें काफ़ी देर तक टालमटोल करते रहे. उन्होंने कहा कि हमें काफ़ी पैदल चलना पड़ेगा. जब हमने कहा कि हम तैयार हैं तो उन्होंने असली कहानी बताई.

उन्होंने कहा कि नदी पार उनके जाने में ख़तरा है. क्योंकि उन्होंने सड़क के काम के लिए एक ट्रैक्टर ख़रीद लिया था. इसलिए माओवादियों ने उनके ख़िलाफ़ पर्चा जारी कर दिया है. 

हालाँकि यह एक सीमित सा अनुभव है, लेकिन छत्तीसगढ़ के बस्तर ज़िले में माओवादी और सुरक्षाबलों के बीच लगातार संघर्ष है.

इस लिहाज़ से देखेंगे तो माओवाद प्रभावित इलाक़ों में सुरक्षा बलों की लगातार उपस्थिति रहेगी, इस बात को स्वीकार करना ही होगा.

लेकिन माओवाद के ख़िलाफ़ अभियान के लिए लगाए गए सुरक्षाबलों पर राजनीतिक नेतृत्व की नकेल हटना ख़तरनाक होगा. सरकार पुलिस को ज़रूरी कार्रवाई की छूट के नाम पर हत्या करने की छूट नहीं दे सकती. 

सुरक्षा बलों पर हमले हुए हैं और कई बार बड़ी संख्या में जवान हताहत हुए हैं. इसके बावजूद सुरक्षा बलों को यह छूट नहीं दी जा सकती कि आम आदिवासियों की जान की क़ीमत पर माओवादियों को मारा जाए. 

सरकार जब सुरक्षाबलों को छूट देती है, इसका मतलब होना चाहिए कि वो इन बलों के अधिकारियों की क़ाबिलियत और विवेक पर भरोसा करती है.

लेकिन इस छूट का मतलब अक्सर यह माना जाता रहा है कि सरकार सुरक्षा बलों की कुछ ज़्यादती नज़रअंदाज़ करने के लिए तैयार है. 

फ़िलहाल छत्तीसगढ़ में  वही होता नज़र आ रहा है. छत्तीसगढ़ सरकार अगर माओवादी संगठनों से आप-पार की लड़ाई में है तो मुझे उसमें कोई आपत्ति नहीं है. क्योंकि माओवादी तो कहते हैं कि वो स्टेट से युद्ध में हैं.

लेकिन इस आप-पार की लड़ाई में आदिवासियों की हत्याओं की इजाज़त नहीं दी जानी चाहिए. इसलिए छत्तीसगढ़ सरकार को पारदर्शी तरीक़े से इस पूरी घटना की जाँच करानी चाहिए.

हर सूरत में तीन आदिवासियों की मौत का जवाब माँगा जाना चाहिए.

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