पिछले दिनों एक लोकल न्यूज़ चैनल के जरिये पता चलता है कि झारखंड की बीजेपी नेत्री सीमा पात्रा जो ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ कार्यक्रम की झारखंड कॉर्डिनेटर थीं, पर अपनी आदिवासी घरेलू कामगार सुनिता खाखा के साथ अमानवीय व्यवहार करने के एवज में रांची के अरगोड़ा थाना में एक सप्ताह पहले ही एफआईआर दर्ज हो चुकी थी.
लेकिन पुलिस कार्रवाई के नाम पर टालमटोल कर रही थी. ये न्यूज़ सोशल मीडिया में फैल गई और लोग सीमा पात्रा को गिरफ्तार करने की मांग जोर शोर से करने लगे.
इस दबाव में आकर पुलिस ने सीमा पात्रा को गिरफ्तार कर लिया. इसके अलावा बीजेपी ने भी उसे पार्टी से निकाल कर अपने हिस्से की खानापूर्ति कर ली.
इसी क्रम में मुझे याद आया कि 2013 में ऑल इंडिया क्रिस्चियन मायनोरिटी फ्रंट की उपाध्यक्ष प्रभामुनी मिंज और उसके पति पर 16 नाबालिग आदिवासी लड़कियों के साथ अमानवीय मारपीट और बलात्कार का केस दर्ज हुआ था. झारखंड की एंटी ह्युमन ट्रेफिकिंग युनिट के तहत यह मामला दर्ज किया गया था.
लेकिन इस मामले में गिरफ्तारी 6 साल बाद यानि 2019 में होती है. तब जाकर ये खबर बनती है और लोगों को इनका घिनौना चेहरा नजर आता है.
आज जब मैं उसकी बेटी की फेसबुक प्रोफाइल चेक कर रही थी तो पता चला कि वो अपने माता पिता प्रभामुनी मिंज और रोहित कुमार मुनि के साथ हैप्पी फेमिली लिखते हुए खुबसूरत तस्वीर पोस्ट कर रही थी.
मैं कल्पना कर पा रही हूँ कि कल को सीमा पात्रा भी अपने पहुँच और पैसे के दम पर फिर से ‘बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ’ अभियान में लग जायेगी और लोग इस बात भूल भी जायेंगे. लेकिन झारखंड से न जाने कितनी ही सुनिता खाखा हर रोज गायब होती रहेगी और बर्बर हिंसा का दंश झेलते रहेगी.
इन दोनों उदाहरणों से साफ पता चलता है कि देश के पिछड़े राज्यों में से एक झारखंड में आदिवासी लड़कियों को सस्ते श्रम पर कितनी आसानी से दोहन और शोषण किया जा सकता है.
झारखंड से घरेलू कामगार के रूप में महानगरों की तरफ कितनी लड़कियों को लेकर जाया जाता है इसका रिकॉर्ड सरकार के पास नहीं है. क्योंकि घरेलू कामगारों की श्रम विभाग में संगठित मजदूर की तरह कोई गिनती नहीं होती है.
सरकार द्वारा घरेलू कामकाज करने वाली इन आदिवासी लड़कियों की न्यूनतम मजदूरी भी तय नहीं की गई है. एक तरह से कहें तो सरकार ने ऐसी लड़कियों के लिए सुरक्षित मजदूरी का कोई प्रावधान नहीं किया है.
सरकार की ऐसी कोई योजना भी नज़र नहीं आ रही है. झारखंड में मानव तस्करी रोकने के लिए 12 जिलों( गुमला, गढ़वा, साहेबगंज, दुमका, पाकुड़, बोकारो, गिरिडीह, कोडरमा और लोहरदगा में एंटी ह्युमन ट्रैफिकिंग युनिट बनाया गया है.
लेकिन अफ़सोस कि उसके तहत गिरफ्तारी में प्रभामुनी मिंज के पति रोहित कुमार मुनि जैसे बलात्कारी कुछ ही दिनों में जेल से निकल कर आलिशान जिंदगी जीने लगते हैं.
जबकि ऐसे मामलों में 7 से 10 साल तक की सजा का प्रावधान है. ऐसे में सरकार तस्करी के खिलाफ अभियान में एक्का दुक्का पीड़ित आदिवासी लड़कियों को रेस्क्यू कर वाहवाही बटोर कर गर्व से फूले नहीं समाती है.
जबकि होना तो ये चाहिए था कि सरकार असुरक्षित पलायन रोकने के लिए कोई ठोस राजनैतिक और सामाजिक पहल करती.
दूसरी तरफ आदिवासी समाज की ये स्थिति है कि उनको ‘आदिवासी महिलाओं को आजादी है’ का ढींढोरा पिटने से ही फुर्सत नहीं मिलता है. ये वही आदिवासी समाज है जो ये कहता है कि हमारे यहाँ लड़कियों को अपने मन से कहीं भी जाने की आज़ादी है.
घर बाहर हर जगह काम करने की आज़ादी है. साफ है कि अपनी नाबालिग बेटियों को अनजान लोगों और असुरक्षित तरीके से पैसे कमाने के लिए भेज देना आज़ादी नहीं बल्कि उन्हें खतरे और शोषण में धकेलना है.
एक आदिवासी पिता जिस तरह से हंडिया और महुआ का संस्कृति के नाम पर गौरवगान करते हुए सुबह से शाम तक नशे में धुत्त रहता है उसे अपनी किशोरी बेटी को घर का खर्चा चलाने के लिए लापरवाही के साथ किसी अनजान व्यक्ति के साथ भेज देने में कोई हिचक नहीं होती है.
आदिवासी पुरूषों द्वारा बेतहाशा नशे के कारण कई औरतें जवानी में ही विधवा हो जातीं है. आदिवासी समुदाय में पत्नियों को थोक के भाव में छोड़ दिया जाता है खास कर बेटियों वाली माँओं को.
कई तो ऐसी हैं जो अपने पिता का घर संभालते हुए उम्र गुजार देतीं हैं और कहीं शादी भी नहीं हो पाती. ऐसी ही छोड़ी हुई, तलाक शुदा, विधवा और बालिग / नाबालिग गरीब लड़कियों को समाज ‘ आजाद’ कर देता है.
इन लड़कियों के एक बार घर से बाहर निकल जाने के बाद दोबारा उनकी वापसी नहीं हो पाती है. जो लड़कियां वापस आतीं भी हैं उनको ‘ दिल्ली रिटर्न’ ‘मुम्बई रिटर्न’ का टैग लगाकर एक तरह से अलग थलग कर दिया जाता है. ऐसी लड़कियों से अक्सर कोई शादी नहीं करना चाहता है. समाज ऐसी लड़कियों को ‘अपवित्र’ मान लेता है.
आदिवासी बुद्धिजीवियों का एक तबका ऐसी लड़कियों को ‘ पैसे की लालची’ ‘ बड़ा शहर ऐय्याशी करने जाती है ‘ ‘ दिकु का पसंद करती हूँ’ ‘ मूर्ख ‘ ‘मिठी बातों में फंस जाती है’ कहकर बड़ी ही निर्दयता से विक्टिम शेमिंग करती है.
जिसका नतीजा ये है कि समाज से धकेल कर निकाली गई ऐसी लड़कियों के लिए सामाजिक संगठन / सामाजिक आंदोलन कारी असुरक्षित पलायन और ह्यूमन ट्रैफिकिंग को कोई राजनैतिक/ सामाजिक मुद्दा नहीं बना पाती है.
पिछले लॉक डाउन में जब अलग अलग राज्यों से येन केन प्रकारेन मजदूर अपने घर को लौट रहे थे. उनमें से ही दुमका की नयाचक गाँव की दो संथाल महिलाएं कर्नाटक से वापस आने के क्रम में सामुहिक बलात्कार की शिकार हो गई.
किसी तरह से वो दोनों लोकल थाना तक पहुंची और टुटी फूटी भाषा में पुलिस वालों को आपबीती बताई. कर्नाटक पुलिस उनके बयान के आधार पर एफआईआर दर्ज कर आरोपियों को पकड़ती है .
इन दोनों पीड़ित महिलाओं को मुआवजे की राशि के साथ सुरक्षित दुमका पहुंचा देती है. इन महिलाओं को खुशी होती है कि चलो अपने घर सही सलामत आ गये. लेकिन गाँव के लोग इनके लिए बेहद ही खराब मानसिकता बना चुके थे.
वे सवाल करने लगे कि इनको ये पैसा ( मुआवजे की राशि) कहाँ से मिली? जरूर ये महिलाएं ‘ गलत काम’करतीं होंगी . दोनों ही महिलाएं बेटियों वाली सिंगल मदर थी जिसे पतियों ने छोड़ दिया था.
लेकिन इनके पतियों को जैसे ही पैसे का पता चलता है ये लोग बेशर्मी की सारी हदें पार कर उस पैसे पर अपना दावा कर के लिए परेशान करने लगते हैं. एक तरफ गाँव वालों का नफरती व्यवहार दूसरी तरफ पतियों का लालची व्यवहार.
ऐसे में ये महिलाएं दुमका प्रशासन से सुरक्षा की गुहार लगातीं हैं. उसके बदले में तत्कालीन दुमका डीसी उनको शेल्टर होम में रहने की व्यवस्था करती है. शेल्टर होम वो जगह है जहाँ कोई समुदाय नहीं होता है. जहाँ कोई परिवार नहीं होति है. जहाँ कोई पर्व त्यौहार नहीं होता है.
जहाँ आप अपने जड़ / घर से उखाड़ कर अलग एक छोटे से कमरे में सिमट जाते हैं. जहाँ आपको एक जानवर की तरह सुबह शाम केवल जिंदा रहने के लिए खाना दे दिया जाता है. मतलब शेल्टर होम जेल की तरह हई है… ऐसा जेल जहाँ विक्टिम को ही रखा जाता है और अपराधी छुट्टा सांड़ की तरह बाहर घुमता है.
क्या एक कल्याणकारी राज्य की ये प्राथमिक जिम्मेदारी नहीं है कि वो हर औरत को एक सम्मान जनक समाज उपलब्ध कराये?
लोग सड़कों पर तभी क्यों उतरते हैं जब किसी की मौत हो जाती है?
जो औरतें रोज बंद कमरों में रोज़ थोड़ा थोड़ा मर रहीं हैं उनके लिए समाज/ सरकार कब सोचेगी?
(रजनी मूर्मु झारखंड में गोड्डा कॉलेज, गोड्डा में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. इस लेख में उनके निजी विचार हैं)