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झारखंड में आदिवासी सियासत और विरासत की कहानी

झारखंड की 14 लोकसभा सीटों में दुमका निर्वाचन क्षेत्र हमेशा से चर्चा में रहा है. इस सीट पर लंबे समय तक जेएमएम का कब्जा रहा. शिबू सोरेन 2019 तक यहां से चुनाव जीतते रहे. उनकी 8 बार की जीत का रिकॉर्ड पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने तोड़ा था.

लोकसभा चुनाव 2024 का बिगुल बज चुका है और तारीखों का ऐलान हो चुका है. देशभर में लोकसभा चुनाव 19 अप्रैल से 1 जून तक सात चरणों में होंगे और वोटों की गिनती 4 जून को होगी.

इसके साथ ही झारखंड की 14 लोकसभा सीटों के लिए चार चरणों में चुनाव होंगे. चुनाव आयोग ने घोषणा की कि राज्य में मतदान 13 मई, 20 मई, 25 मई और 1 जून को होंगे.

झारखंड की लोकसभा की कुल 14 सीटों में से 5 सीटें – राजमहल, दुमका, सिंहभूम, खूंटी और लोहरदगा अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है. तो आइए आज हम इन्हीं एसटी आरक्षित सीटों की बात करेंगे…

सबसे पहले बात करते हैं कि इन सीटों पर मतदान कब होगा. झारखंड में चार चरणों में चुनाव होगा तो इसके पहले चरण में 13 मई को सिंहभूम, खूंटी और लोहरदगा में मतदान होगा. जबकि चौथे चरण में 1 जून को राजमहल और दुमका में वोटिंग होगी.

राजमहल लोकसभा सीट

अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित राजमहल लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र पूरे साहेबगंज और पाकुड़ जिलों को कवर करता है.

इस लोकसभा सीट के अन्तर्गत छह विधानसभा सीटें – राजमहल, बोरियो, बरहेत, लिटिपारा, पाखुड़, महेशपुर आते हैं. इसमें बोरियो, बरहेत, लिटिपारा और महेशपुर अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है.

यहां भाजपा-कांग्रेस और झामुमो के बीच हमेशा कांटे की टक्कर देखने को मिली है. राजमहल सीट कांग्रेस ने 8 बार, झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) ने 5 बार, भाजपा ने दो बार और बीएलडी और जनता पार्टी ने एक-एक बार जीती है.

1957 में पहला चुनाव

संयुक्त बिहार झारखंड की राजमहल सीट पर 1957 में चुनाव हुआ था. इस सीट पर कांग्रेस के पाइका मुर्मू ने जीत हासिल की. 1962 में यह सीट कांग्रेस के हाथ से निकल गई और यहां से झारखंड पार्टी के ईश्वर मरांडी सांसद चुने गए.

1967 में ईश्वर मरांडी कांग्रेस के टिकट पर लड़े और दोबारा जीत दर्ज की. 1971 में कांग्रेस के ईश्वर मरांडी ने यहां से जीत की हैट्रिक मारी. 1977 में कांग्रेस उम्मीदवार योगेश चन्द्र मुर्मू चुनाव हार गए. यहां से भारतीय लोकदल के अंथोनी मुर्मू ने जीत दर्ज की थी.

1980 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार सेठ हेंब्रम सांसद चुने गए. इसके बाद 1984 में कांग्रेस के सेठ हेंब्रम दोबारा जीत हासिल की. 1989 और 1991 में यहां से झारखंड मुक्ति मोर्चा के साइमन मरांडी ने जीत दर्ज की.

1996 में कांग्रेस ने इस सीट पर कब्जा जमाया और थॉमस हांसदा ने जीत दर्ज की. 1998 में पहली बार भाजपा उम्मीदवार सोम मरांडी ने इस सीट पर जीत दर्ज की. 1999 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने कब्जा जमाया.

झारखंड बनने के बाद बदली तस्वीर

झारखंड के बंटवारे के बाद 2004 में इस सीट पर झारखंड मुक्ति मोर्चा ने कब्जा जमाया. यहां से हेमलाल मुर्मू ने जीत दर्ज की थी. फिर 2009 में यहां से भाजपा के देवीधन बेसरा सांसद चुने गए थे.

2014 में देशभर में मोदी लहर चली लेकिन उसका असर इस सीट पर नहीं पड़ा और यह सीट झामुमो के खाते में चली गई. यहां से विजय कुमार हांसदा सांसद चुने गए. वहीं 2019 में भी इस सीट पर मोदी का जादू नहीं चला और एक बार फिर जेएमएम के विजय कुमार हांसदा ने जीत दर्ज की.

यहां की सबसे बड़ी जनसंख्या गांवों में निवास करती है और इस सीट पर जनजीवन बेहद ही सामान्य है. यहां राजमहलो प्रोजेक्ट के नाम से एक कोल परियोजना है जो गोड्डा जिले में पड़ता है.

इस लोकसभा क्षेत्र में पत्थर के काम यानी क्रेशर ढेर सारी संख्या में चलते हैं. यहां एक तरफ गंगा नदी बहती है और यह क्षेत्र पश्चिम बंगाल की सीमा से सटा होने के कारण यहां बंगाली भाषी लोगों का भी बड़ा प्रभाव रहा है. यहां बांग्लादेशी घूसपैठ अहम मुद्दा रहा है.

इस बार यहां भाजपा और इंडिया गठबंधन के बीच कांटे की टक्कर होने जा रही है. बीजेपी ने इस बार अपने पूर्व झारखंड प्रदेश अध्यक्ष ताला मरांडी को राजमहल (एसटी) सीट से मैदान में उतारा है.

लेकिन दिशोम गुरु शिबू सोरेन के बड़ी बहू सीता सोरेन की जेएमएम से इस्तीफा और राजमहल में झामुमो विधायक लोबीन हेम्ब्रम की एंट्री से इंडिया गठबंधन को बड़ा झटका लग सकता है.

दुमका लोकसभा सीट

दुमका लोकसभा सीट पर आदिवासी, अल्पसंख्यक और पिछड़े वर्ग के वोटरों का दबदबा है. इस सीट पर 40 फीसदी आदिवासी, 40 फीसदी पिछड़ी जातियां और 20 प्रतिशत मुस्लिम वोटर हैं.

आदिवासी और अल्पसंख्यक वोटरों को झारखंड मुक्ति मोर्चा का परंपरागत वोटर माना जाता है. यही कारण है कि इस सीट से शिबू सोरेन लगातार जीत रहे हैं.

इस लोकसभा सीट के अन्तर्गत 6 विधानसभा सीटें शिकारीपाड़ा (एसटी), जामताड़ा, दुमका (एसटी), नाला, सारठ और जामा (एसटी) आती है.

साल 1989 से ही यह सीट झारखंड मुक्ति मोर्चा का गढ़ रही है और इस सीट से सात बार से शिबू सोरेन सांसद बनते आ रहे हैं.

दुमका सीट की सियासत

झारखंड की 14 लोकसभा सीटों में दुमका निर्वाचन क्षेत्र हमेशा से चर्चा में रहा है. इस सीट पर लंबे समय तक जेएमएम का कब्जा रहा. शिबू सोरेन 2019 तक यहां से चुनाव जीतते रहे. उनकी 8 बार की जीत का रिकॉर्ड पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने तोड़ा था.

दुमका में पहली बार 1952 में चुनाव हुआ और कांग्रेस के पॉल जुझार सोरेन यहां के पहले सांसद चुने गए. इसके बाद 1957 में इस सीट से झारखंड पार्टी के देबी सोरेन जीते थे. फिर इस सीट से कांग्रेस के एस. सी. बेसरा लगातार तीन बार (1962, 1967 और 1971) सांसद बने थे.

1977 में यह सीट जनता पार्टी के पास चली गई और हेमब्रह्म बटेश्वर जीतने में कामयाब हुए. 1980 के चुनाव में झारखंड मुक्ति मोर्चा के टिकट पर शिबू सोरेन पहली बार संसद पहुंचे थे. 1984 में यह सीट फिर कांग्रेस के पास आ गई और पृथ्वी चंद किस्कू जीते.

1989 में शिबू सोरेन ने वापसी की और लगातार तीन बार (1989, 1991 और 1996) झारखंड मुक्ति मोर्चा के टिकट पर जीते थे. 1998 में इस सीट से बीजेपी प्रत्याशी बाबू लाल मरांडी जीते. मरांडी 1999 का चुनाव भी जीते.

इसके बाद एक बार फिर 2002 के उपचुनाव में शिबू सोरेन ने दुमका में झारखंड मुक्ति मोर्चा का परचम फहराया और जीते. इसके बाद लगातार 2014 तक शिबू सोरेन का इस सीट पर कब्जा रहा. लेकिन 2019 के चुनाव में भाजपा नेता सुनील सोरेन से शिबू सोरोन चुनाव हार गए.

हालांकि, आगामी चुनाव में दुमका लोकसभा सीट पर बीजेपी ने बड़ा दाव खेला है. बीजेपी ने सांसद सुनील सोरेन का टिकट काट कर झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन की बड़ी बहू सीता सोरेन को टिकट दिया है.

सीता सोरेन जामा विधानसभा क्षेत्र से लगातार तीन बार विधायक रही हैं. हाल ही में दिल्ली में भाजपा कार्यालय में सीता सोरेन ने झामुमो का साथ छोड़ भाजपा में शामिल हुई हैं.

सिंहभूम लोकसभा सीट

सिंहभूम लोकसभा सीट पर अनुसूचित जनजाति का खास दबदबा है. इस सीट पर उरांव, संथाल समुदाय, महतो (कुड़मी), प्रधान, गोप, गौड़ समेत कई आदिवासी समुदाय, इसाई और मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका में रहते हैं.

2011 के जनगणना के मुताबिक सिंहभूम जिले की कुल आबादी करीब 19 लाख है. इसमें 4.06 प्रतिशत अनुसूचित जाति और 58.72 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के लोग हैं.

इस क्षेत्र का गठन 1952 देश के पहले लोकसभा चुनावों में नहीं हुआ था। दूसरे लोकसभा चुनाव के दौरान 1957 में यह संसदीय क्षेत्र अस्तित्व में आया था.

इस सीट के अंतर्गत सरायकेला, चाईबासा, मंझगांव, जगन्नाथपुर, मनोहरपुर और चक्रधरपुर विधानसभा सीट आते हैं. यह सभी सीट अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है.

शुरुआत में यह सीट झारखंड पार्टी का गढ़ थी, लेकिन समय के साथ यहां कांग्रेस ने पांव पसारा और उसके प्रत्याशी कई बार जीते. इस सीट से झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा भी निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव जीत चुके हैं.

सिंहभूम सीट का सियासी इतिहास

सिंहभूम लोकसभा सीट पर 1952 में कानुराम देवगम झारखंड पार्टी के टिकट पर सांसद चुने गए. इसके बाद 1957 में झारखंड पार्टी के शंभूशरण गोडसोरा और 1962 में हरि चरण सोय ने जीत दर्ज की.

1967 में ऑल इंडिया झारखंड से कोलाय बिरूवा, 1971 में मोरन सिंह पुरर्ती और 1977 में बागुन सुम्ब्रुई ने जीत हासिल की. हालांकि 1980 में बागुन जनता पार्टी से सांसद चुने गए. वहीं 1984 और 1989 में कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा पहुंचे.

इसके बाद 1991 में झारखंड मुक्ति मोर्चा के टिकट पर कृष्णा मार्डी ने चुनाव में जीत हासिल की. 1996 में बीजेपी के चित्रसेन सिंकू ने जीत दर्ज की. वहीं 1998 में विजय सिंह सोय ने इस सीट पर कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीताा.

1999 में लक्ष्मण गिलुवा बीजेपी के टिकट पर जीत दर्ज की. वहीं 2004 में बागुन सुम्ब्रुई एक बार फिर कांग्रेस के सिंबल पर जरुरत की. वहीं 2009 क लोकसभा चुनाव में निर्दल प्रत्याशी मधु कोड़ा ने जीत हासिल की. 2014 में बीजेपी के लक्ष्मण गिलुवा ने जीत हासिल की.

वहीं 2019 के जनादेश की बात करें तो सिंहभूम सीट से कांग्रेस की गीता कोड़ा ने जीत दर्ज की थी. इस चुनाव में उन्हें 4,31,815 वोट मिले थे. वहीं बीजेपी के लक्ष्मण गिलुवा 3,59,660 वोट पाकर दूसरे स्थान पर रहे थे.

आगामी चुनाव में बीजेपी ने इस सीट से गीता कोड़ा को अपना प्रत्याशी बनाया है. गीता कोड़ा इससे पहले कांग्रेस में थी. कुछ दिनों पहले ही इन्होंने कांग्रेस छोड़ बीजेपी का दामन थामा है. पिछले लोकसभा में गीता कोड़ा कांग्रेस की टिकट से चुनाव जीतकर यहां से सांसद बनी थीं.

खूंटी लोकसभा सीट

खूंटी लोकसभा झारखंड ही नहीं पूरे देश में अपना अलग महत्व रखता है. खूंटी लोकसभा क्षेत्र के खूंटी जिला के उलिहातु में स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा का जन्मस्थली है. बिरसा मुंडा के नेतृत्व में ब्रिटिशों के खिलाफ लंबे समय तक चला संघर्ष इतिहास में दर्ज है.

खूंटी लोकसभा सीट मुख्य रूप से मुंडा जनजातियों के लिए जानी जाती है. बताया जाता है कि छोटानागपुर के राजा मदरा मुंडा के बेटे सेतिया के आठ बेटे थे. उन्होंने ही एक खुंटकटी गांव की स्थापना की थी, जिसे उन्होंने खुंति नाम दिया था, जो बाद में खूंटी हो गया.

खूंटी संसदीय क्षेत्र के अन्तर्गत सूबे की छह विधानसभा सीटें आती हैं, जिनमें खरसावन, तमर, तोरपा, खूंटी, कोलेबीरा, सिमडेगा विधानसभा सीटें शामिल हैं. ये सभी अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं.

खूंटी सीट की सियासत

खूंटी सीट पर शुरुआत में कांग्रेस का कब्जा था. यहां से कांग्रेस के टिकट पर जयपाल सिंह मुंडा लगातार तीन चुनाव (1952, 1957 और 1962) जीते. इसके बाद साल 1971 में इस सीट से झारखंड पार्टी के निरल इनम होरो ने बाजी मारी थी.

साल 1977 में इस सीट पर झारखंड पार्टी का खाता खुला था और उसके टिकट पहली बार करिया मुंडा चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे. साल 1980 में फिर झारखंड पार्टी के निरल इनम होरो की वापसी हुई थी. साल 1984 में कांग्रेस के सिमोन टिग्ग जीते थे.

इसके बाद बीजेपी के टिकट से करिया मुंडा ने लगातार पांच बार (1989, 1991, 1996, 1998 और 1999) जीत दर्ज की थी. इसके बाद साल 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के सुशीला केरकेता ने जीत हासिल की थी. इसके बाद फिर करिया मुंडा बीजेपी के टिकट पर लगातार दो बार यानी 2009 और 2014 में जीते.

एक बार फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने इस सीट पर जीत दर्ज की. यहां से कांग्रेस के प्रत्याशी कालीचरण मुंडा से कड़ी टक्कर के बाद बीजेपी के अर्जुन मुंडा महज 1400 वोट से जीत हासिल की. अर्जुन मुंडा को 3,82,638 और कालीचरण मुंडा को 3,81,193 वोट मिले थे.

अब एक बार फिर भाजपा ने खूंटी लोकसभा सीट से केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा को टिकट दिया है. वहीं कांग्रेस ने यहां से फिर एक बार कालीचरण मुंडा को टिकट दिया है.

लोहरदगा लोकसभा सीट

लोहरदगा सीट पर अनुसूचित जनजाति का खास दबदबा है. अपने समृद्ध खनिज भंडार जैसे बॉक्साइट और लेटराइट के कारण यह इलाका प्रसिद्ध है. हालांकि खनिज भंडार के बावजूद इसकी पहचान आर्थिक रूप से पिछड़े इलाके में होती है.

लोहरदगा सीट पर आदिवासियों की तादात करीब 64.04 फीसदी है. इस सीट की 96 फीसदी आबादी गांवों में रहती है.

इस लोकसभा सीट के तहत मान्डर, गुमला, लोहरदगा, सिसई और बिशुनपुर विधानसभा सीटें आती हैं. यह सभी सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं.

लोहरदगा सीट की सियासत

अभी तक लोहरदगा लोकसभा सीट पर कांग्रेस और बीजेपी के बीच कड़ी टक्कर देखने को मिलती रही है. लोहरदगा लोकसभा सीट पर 1957 में पहला चुनाव हुआ था. इस दौरान झारखंड पार्टी से इग्नेस बेक सांसद बनकर लोकसभा पहुंचे.

इसके बाद साल 1962 में इस सीट पर कांग्रेस के डेविड मुंजिन जीते थे. इसके बाद कांग्रेस के टिकट पर कार्तिक ओरेन लगातार दो बार (1967 और 1971) चुनाव जीते थे.

हालांकि साल 1977 का चुनाव कार्तिक हार गए थे और जनता पार्टी लालू ओरेन जीतने में कामयाब हुए थे. साल 1980 में कार्तिक ओरेन ने फिर इस सीट पर जीत दर्ज की. साल 1984 और 1989 में कांग्रेस के टिकट पर सुमति ओरांव जीते थे.

वहीं 1991 में इस सीट पर बीजेपी का खाता खुला और उसके प्रत्याशी ललित ओराँव जीते थे. साल 1996 में भी ललित ओराँव जीत दर्ज कर थी और भगवा पताका फहराया था. साल 1998 में कांग्रेस के इंद्र नाथ भगत जीतने में कामयाब हुए थे.

फिर साल 1999 में बीजेपी के दुखा भगत जीते. साल 2004 में कांग्रेस के रामेश्वर ओरेन जीते थे. इसके बाद साल 2009 और 2014 का चुनाव बीजेपी के सुदर्शन भगत जीते थे.

इस सीट से 2019 में बीजेपी ने तीसरी बार सांसद सुदर्शन भगत को चुनाव मैदान में उतारा था और उन्होंने जीत भी दर्ज की. वहीं कांग्रेस के टिकट से सुखदेव भगत चुनाव लड़ रहे थे.

झारखंड के आदिवासी और उनके मुद्दे

झारखंड जनजातियों का राज्य है. यहां 30 अनुसूचित जनजातियां रहती है जिसमें 22 बड़ी जनजातियां हैं. जबकि आठ यानि असूर, बिरजिया, बिरहोर, कोरवा, मालपहाड़िया, परहिया, हिल खड़िया, सौरिया पहाड़िया को आदिम जनजाति (PVTG) के श्रेणी में रखा गया है. आदिम जनजाति अल्पसंख्यक हैं और इनमें से ज़्यादतर समुदाय गरीबी रेखा के नीचे हैं.

झारखंड में आदिवासियों के प्रमुख मुद्दों की बात करें तो उसमें डिलिस्टिंग, पलायन, बेरोजगारी, आबादी का कम होना और सरना धर्म शामिल है.

झारखंड में पलायन का मुद्दा एक लंबे समय से चुनौती बनी हुई है. सरकारें लगातार इसका प्रभावी समाधान करने के लिए संघर्ष कर रही हैं. पिछली सरकारों के प्रयासों के बावजूद जिसमें हेमंत सोरेन सरकार द्वारा शुरू की गई पहल भी शामिल है, पलायन बड़े पैमाने पर जारी है. लाखों आदिवासी दूसरे राज्यों में आजीविका तलाशने के लिए मजबूर हैं.

इसके अलावा आदिवासियों के लिए एक अलग धर्म के रूप में ‘सरना’ की मान्यता की मांग प्रमुख है.

झामुमो के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार ने नवंबर 2020 में विधानसभा में एक प्रस्ताव पारित कर जनगणना में सरना को एक अलग धर्म के रूप में शामिल करने की मांग की थी. झामुमो ने भी राष्ट्रपति को पत्र लिखकर सरना को अलग धर्म बनाने में हस्तक्षेप की मांग की है. लेकिन अभी तक केंद्र सरकार की ओर से सरना कोड पर प्रतिक्रिया नहीं मिली है.

झारखंड राज्य आदिवासियों के लंबे संघर्ष के बाद अस्तित्व में आया. लेकिन बावजूद इसके राज्य की कई जनजातियां आज भी बुनियादी सुविधाओं के अभाव में जीवन जी रहे हैं. इन जनजातियों का विकास न हो पाना सरकार की गैर जिम्मेदारी का भी नतीजा है.

गरीबी और जरूरी सुविधाओं के अभाव के कारण इन जनजातियों में मातृ-मृत्यु दर, शिशु-मृत्यु दर अधिक है. बीमारियों में इलाज-उपचार न होने के कारण इनकी अधिक मृत्यु होती है.

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