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आदिवासी आश्रम स्कूलों और छात्रावासों में छात्रों की मौत का सिलसिला चुनावी चर्चा में ज़रूरी है

स्कूलों और हॉस्टल में आदिवासी छात्र-छात्राओं के मौत का मामला किसी एक राज्य तक सीमित नहीं है. देश के लभग हर उस राज्य के स्कूलों और छात्रावास में अलग-अलग कारणों से आदिवासी छात्रों की मौत बेहद चिंताजनक मुद्दा है.

देश में लोकसभा चुनाव प्रचार शुरू हो चुका है. इसके साथ ही आंध्र प्रदेश, ओडिशा, सिक्कम और अरुणाचल प्रदेश के विधान सभा चुनाव भी होंगे. इन चारों ही राज्यों में बड़ी आदिवासी जनसंख्या रहती है.

साल 2024 के लोकसभा चुनाव में भी इस बार आदिवासी समुदायों की काफी चर्चा हो रही है. इन चुनावों के नज़रिये से अलग अलग पार्टियों ने आदिवासियों के भले के लिए कई घोषणाएं की हैं.

फिर भी आदिवासी समुदाय की कुछ ऐसे मुद्दे हैं जो शायद इस बार के लोक सभा या विधान सभा में नज़रअंदाज़ कर दिया गया है. देश के अलग अलग राज्यों में आश्रमशालाओं यानि हॉस्टल वाले स्कूलों में आदिवासी बच्चों की मौत ऐसा ही एक विषय है.

साल 2017-18 से लेकर साल 2023 यानि करीब 5 साल में सिर्फ़ महाराष्ट्र राज्य में हर महीने कम से कम दो आदिवासी बच्चों की मौत हॉस्टल में हुई थी. इसी साल फ़रवरी महीने में 7 दिन के भीतर आंध्र प्रदेश के हॉस्टलों में कम से कम 4 आदिवासी बच्चों की मौत हो गई.

वहीं पिछले शुक्रवार यानि 22 मार्च को ओडिशा के रायगड़ा जिले के आदिवासी हॉस्टल में 5वीं कक्षा के छात्र का शव बरामद किया गया था. मृतक छात्र की पहचान जुदास शाबर (11) के रूप में की गई और वह स्कूल से सटे सरगियासिंह गांव का रहने वाला था. जुदास के पिता प्रदीप शाबर ने अपने बेटे की असामयिक मृत्यु के संबंध में हत्या का आरोप लगाया है.

स्कूल अधिकारियों ने तालाना आश्रम के परित्यक्त (जहां जाना मना हो) छात्रावास परिसर में लड़के को गले में गमछा लपेटकर पंखे से लटका हुआ पाया.

बच्चे के पिता ने बताया कि स्कूल अधिकारियों ने उन्हें यह कह कर स्कूल बुलाया गय था कि उनका बेटा बीमार था. लेकिन जब वह स्कूल पहुंचे तो अपने बेटे को पंखे से लटका हुआ पाया.

इसी तरह के एक मामले में स्कूल अधिकारियों के ढुलमुल रवैये के कारण सिरिगुडा में एकलव्य मॉडल आवासीय स्कूल (EMRS) के महेंद्र माझी नाम के एक और नाबालिग आदिवासी छात्र की अस्पताल में भर्ती होने के लगभग एक घंटे के भीतर ही मृत्यु हो गई थी.

महेंद्र के पिता ने स्कूल स्टाफ, खासकर प्रिंसिपल के गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार के बारे में भी शिकायत की. जिन्होंने कभी भी परिवार के सदस्यों को लड़के की बीमारी के बारे में सूचित नहीं किया.

तेलंगाना का आदिलाबाद ज़िले के आदिवासी छात्रावास भी बार बार बच्चों की मौत के लिए ख़बरों में आते रहे हैं.

स्कूलों और हॉस्टल में आदिवासी छात्र-छात्राओं के मौत का मामला किसी एक राज्य तक सीमित नहीं है. देश के लभग हर उस राज्य के स्कूलों और छात्रावास में अलग-अलग कारणों से आदिवासी छात्रों की मौत बेहद चिंताजनक मुद्दा है.

आंध्र प्रदेश

आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा सरकारी स्कूलों के छात्रों को स्वस्थ भोजन उपलब्ध कराने के लिए कई कदम उठाने के बावजूद आदिवासी कल्याण प्रबंधन की कथित लापरवाही ने फरवरी माह में पार्वतीपुरम-मण्यम जिले में एक हफ्ते से भी कम समय में चार आदिवासी छात्रों की जान ले ली थी.

इन मौतों ने माता-पिता और आदिवासी नेताओं के बीच गंभीर चिंता पैदा कर दी है और मामले की विस्तृत जांच की मांग की गई.

चार मृत आदिवासी छात्रों में से दो सलूर विधानसभा क्षेत्र के मूल निवासी थे, जिसका प्रतिनिधित्व उपमुख्यमंत्री और आदिवासी कल्याण मंत्री पीडिका राजन्ना डोरा करते हैं.

इस मामले में जिला कलेक्टर निशांत कुमार के निर्देशों के आधार पर आदिवासी कल्याण विभाग के उप निदेशक रूग्माता राव ने जांच शुरू की और छात्रावास के निवासियों के स्वास्थ्य की कथित लापरवाही के लिए दो छात्रावास वार्डन को निलंबित कर दिया .

वहीं 17 फरवरी को मक्कुवा मंडल के अंतर्गत एर्रासामंतवलसा में आदिवासी कल्याण छात्रावास में एनीमिया के कारण 10वीं कक्षा के छात्र 15 वर्षीय एस अशोक की मृत्यु हो गई थी. यह पता चला कि लड़के का हीमोग्लोबिन स्तर 7.5 तक कम हो गया था और आखिरकार उसका हृदय संबंधी समस्या के कारण निधन हो गया.

इस मामले के तीन दिन बाद यानि 20 फरवरी को तीन छात्रों ने इलाज के दौरान दम तोड़ दिया. पचीपेंटा मंडल के अंतर्गत सराय वलासा में आदिवासी कल्याण लड़कियों के छात्रावास में कक्षा 9 की छात्रा अनीता (14) को मासिक धर्म के दौरान गंभीर रक्तस्राव की शिकायत के बाद 17 फरवरी को विशाखापत्तनम के किंग जॉर्ज अस्पताल (केजीएच) में रेफर कर दिया गया था.

उसी दिन गुम्मलक्ष्मिपुरम मंडल के अंतर्गत बड़हरागिरी में पीजीटी गुरुकुलम में कक्षा 7 की छात्रा बिद्दाका श्रुति की केजीएच में इलाज के दौरान मृत्यु हो गई. छात्रा को तेज़ बुखार हुआ था और 14 फरवरी को उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था

श्रीकाकुलम जिले में सीथमपेटा आईटीडीए सीमा के तहत मेलियापुट्टी मंडल के धरानीकोटा में आदिवासी कल्याण आश्रम स्कूल में कक्षा 6 में पढ़ने वाली जक्करबंदा की एस नंदिनी (11) की 20 फरवरी को मृत्यु हो गई. पलासा के एक अस्पताल में इलाज के बाद उसकी मृत्यु हो गई.

महाराष्ट्र

सरकार ने पिछले साल जुलाई में विधान परिषद को सूचित किया कि महाराष्ट्र में शैक्षणिक सत्र 2017-18 और 2022-23 के बीच हर महीने स्कूल या छात्रावास (आश्रमशाला) में औसतन दो आदिवासी छात्रों की ‘विभिन्न बीमारियों’ के कारण मृत्यु हो गई.

सरकारी और निजी सहायता प्राप्त आश्रमशालाओं के परिसर में कुल मिलाकर 108 मौतें हुईं, जिनमें से 25 फीसदी मामले नासिक डिवीजन के हैं.

पांच वर्षों के दौरान करीब 22 छात्रों की औसत वार्षिक मृत्यु होती है लेकिन ये आँकड़े तब और अधिक स्पष्ट हो जाते हैं जब कोई इस बात पर ध्यान देता है कि कोविड महामारी (2020-21 सत्र) के दौरान, आवासीय विद्यालय महीनों तक बंद रहे.

ये मौतें कैंपस में हुईं इसलिए वास्तविक अवधि चार साल के करीब है जब स्कूल भौतिक रूप से खुले थे, इस तरह वार्षिक मृत्यु औसत 27 के करीब पहुंच गया.

इस दौरान विधानसभा में जबाव मांगने पर आदिवासी कल्याण मंत्री विजयकुमार गावित ने कहा कि वास्तविक मौतें 108 थीं. इनमें से 49 आदिवासी छात्रों की मौत सीधे सरकार द्वारा संचालित स्कूलों में हुई, जबकि 59 की मौत निजी स्कूलों में हुई, जिन्हें राज्य से फंड मिलता है. दोनों संस्थानों में हुई मौतों के लिए गावित ने ‘विभिन्न बीमारियों’ को कारण बताया.

मंत्री ने पुष्टि की कि सदन में जिन 108 मौतों पर चर्चा हो रही थी, उनमें से 25 फीसदी से अधिक मौतें नासिक डिवीजन में हुईं.

गावित ने कहा कि ऐसा इसलिए था क्योंकि नासिक में बड़ी संख्या में आश्रमशालाएं हैं और नामांकन भी उसी के मुताबिक है. 108 मौतों में से 28 नासिक डिवीजन में हुईं.

राज्य सरकार ने 2016 में इस मुद्दे को देखने के लिए स्वास्थ्य सेवाओं के पूर्व महानिदेशक डॉ. सुभाष सालुंखे की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था. लेकिन बावजूद इसके आश्रमशालाओं में आदिवासी छात्रों की मौत का मामला नहीं थम रहा.

महाराष्ट्र के आदिवासी इलाकों में चलने वाले हॉस्टल युक्त स्कूलों (आश्रमशाला) में बच्चों की मौत का मामला हाईकोर्ट तक जा चुका है. सरकार ने भी इन मौतों को रोकने के लिए कई उपाय करने का दावा किया है. लेकिन विधानसभा में दिए गए आंकड़े सच्चाई बयां करते हैं.

तेलंगाना

तेलंगाना में भी सरकारी छात्रावासों और आवासीय विद्यालयों में छात्रों की मौतें एक बड़ी चिंता है. धन की कमी, खराब स्वच्छता, दूषित पानी, भोजन तैयार करने में सामग्री की खराब गुणवत्ता, सुपरविजन की कमी और भोजन की खराब गुणवत्ता इन छात्रावासों को परेशान कर रही है.

पिछले महीने ही आदिलाबाद ग्रामीण मंडल के ममीदीगुडा में आदिवासी आश्रम स्कूल की सातवीं कक्षा में पढ़ने वाली एक छात्रा की बुखार से मौत हो गई थी.

छात्रा के माता-पिता ने छात्रावास कर्मचारियों के खिलाफ उनकी बेटी को उचित इलाज प्रदान करने में लापरवाही का आरोप लगाया था.

मध्य प्रदेश

वहीं मध्य प्रदेश में आए दिन आदिवासी विद्यालयों या एकलव्य आदिवासी छात्रावासों से फूड प्वाइजनिंग के मामले सामने आते हैं. इन मामलों में कई बार आदिवासी छात्रों की हालत इतनी खराब होती है कि उनकी मौत हो जाती है.

पिछले साल जबलपुर के एक एकलव्य आदिवासी छात्रावास में करीब 100 बच्चों को फूड प्वाइजनिंग से पीड़ित होने के बाद अस्पताल में भर्ती कराया गया था.

देश भर में आदिवासी छात्रावासों में घटिया खाना, नियमित स्वास्थ्य जांच की कमी, सुरक्षा के अपर्याप्त इंतज़ाम और प्रशासनिक लापरवाही कुछ ऐसी वजह हैं जिनके बारे में राज्य सरकार और केंद्र सरकार भी जानती हैं.

संसदीय समिति की रिपोर्ट

देश के अलग अलग राज्यों में आश्रम स्कूलों की स्थिति पर चिंता जताते हुए सामाजिक न्याय और अधिकारिता पर स्थायी समिति (अध्यक्ष: श्री हेमानंद बिस्वाल) ने 18 फरवरी, 2014 को आदिवासी क्षेत्रों में आश्रम स्कूलों के कामकाज पर अपनी रिपोर्ट सौंपी.

इस रिपोर्ट में कई सिफ़ारिशें की गई थीं, जिनमें से कुछ ज़रूरी सिफ़ारिश निम्नलिखित हैं –  

  • आश्रम विद्यालय आवासीय विद्यालय हैं जो अनुसूचित जनजाति (एसटी) के बच्चों को माध्यमिक स्तर तक शिक्षा प्रदान करते हैं.
  • एकीकृत कार्य योजना:   जबकि एसटी के अन्य समूहों के बीच राष्ट्रीय स्तर पर साक्षरता अंतर घटकर 14% हो गया है, कुछ राज्यों में साक्षरता अंतर 28% के साथ महत्वपूर्ण अंतर-राज्य भिन्नता है. यानि कुछ राज्य इस मामले में अभी भी काफी पिछड़े हुए हैं. समिति ने एसटी की साक्षरता दर में सुधार के लिए जनजातीय मामलों के मंत्रालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, राज्य सरकारों और गैर-सरकारी संगठनों द्वारा सहयोगात्मक प्रयास की सिफारिश की.
  • आश्रम विद्यालयों पर केंद्रीय योजना:   जनजातीय मामलों का मंत्रालय एक केंद्रीय योजना लागू कर रहा है जिसका उद्देश्य 1990-91 से जनजातीय उपयोजना क्षेत्रों (Tribal Sub Plan Areas) में आश्रम विद्यालय स्थापित करना है. जनजातीय उपयोजना दृष्टिकोण के तहत, उन क्षेत्रों के लिए विशेष रूप से जनजातीय कल्याण से संबंधित एक उपयोजना तैयार की जाती है, जिन्हें जनजातीय आबादी की घनी आबादी वाले क्षेत्रों के रूप में परिभाषित किया गया है. 
  • समिति ने बताया कि आश्रम विद्यालयों पर सीमित डेटा है. इसमें यह भी बताया गया कि अब तक केवल 862 आश्रम विद्यालयों को मंजूरी दी गई है. स्वीकृत 862 स्कूलों में से 246 का निर्माण अभी तक नहीं हुआ है. यह योजना सभी जनजातीय उपयोजना क्षेत्रों में लागू नहीं की गई है. तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में कोई स्कूल स्थापित नहीं किया गया है. राजस्थान 9 और झारखंड ने 2 स्कूल स्थापित किए हैं. 
  • फंडिंग पैटर्न:   यह योजना नक्सली क्षेत्रों में लड़कियों के लिए आश्रम स्कूलों और लड़कों के लिए आश्रम स्कूलों के निर्माण के लिए 100% केंद्रीय वित्तपोषण प्रदान करती है. समिति ने सभी आश्रम विद्यालयों के लिए 100% केंद्रीय वित्तपोषण प्रदान करने की सिफारिश की.
  • वित्त पोषण:   समिति ने 2012-13 में संशोधित अनुमान चरण (Revised Estimate Stage) में योजना के लिए बजटीय आवंटन को 75 करोड़ रुपये से घटाकर 61 करोड़ रुपये करने पर अस्वीकृति व्यक्त की.
  • एसटी बच्चों की शिक्षा के लिए अंब्रेला योजना:   जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने 12वीं योजना के तहत आदिवासी बच्चों की शिक्षा के लिए एक योजना प्रस्तावित की है, जिसमें आश्रम स्कूलों को अपग्रेड करने के लिए राज्य सरकारों को बड़ी धनराशि उपलब्ध कराई जाएगी. समिति ने योजना के लिए अनुमोदन प्रक्रिया में तेजी लाने की सिफारिश की ताकि इसे चालू वित्तीय वर्ष के दौरान लागू किया जा सके. 
  • भोजन और बुनियादी ढांचे की गुणवत्ता:   समिति ने बताया कि स्कूलों और छात्रावासों में घटिया भोजन उपलब्ध कराया जा रहा है और वर्तमान में स्कूलों में बहुत भीड़ है. इसने कमरों के बंटवारे के लिए मानदंड तय करने और अधिक स्कूल खोलने की सिफारिश की जहां नामांकन सीट की उपलब्धता से अधिक है.
  • आश्रम स्कूलों में बच्चों की मौत:   समिति ने बताया कि 2001-02 और 2012-13 के बीच बिच्छू/सांप के काटने और छोटी-मोटी बीमारियों के कारण महाराष्ट्र के आश्रम स्कूलों में 793 बच्चों की मौत हो गई. इसने सिफारिश की कि मंत्रालय इस मुद्दे पर राज्यों से जानकारी मांगे और स्कूल इन घटनाओं की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए कदम उठाएँ.
  • शिक्षकों की नियुक्ति:   समिति ने सिफारिश की कि: (ए) एसटी युवाओं को आश्रम स्कूलों में पढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया जाए और (बी) गैर आदिवासी शिक्षकों को विशेष प्रशिक्षण प्रदान किया जाए.
  • ड्रॉपआउट:   बड़ी संख्या में एसटी बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं, प्राथमिक स्तर पर 55% और माध्यमिक स्तर पर 71% बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं. यह राष्ट्रीय औसत से 22% अधिक है. समिति ने इसे संबोधित करने के लिए स्थानीय भाषा की पाठ्यपुस्तकें विकसित करने और बच्चों को धीरे-धीरे हिंदी या अंग्रेजी में बदलाव के साथ उनकी स्थानीय भाषा में पढ़ाने की सिफारिश की.

लेकिन अफ़सोस कि इन सिफ़ारिशों में से किसी भी सिफ़ारिश पर संजीदगी से काम नहीं किया गया है. साल 2021 में सरकार ने जानकारी दी कि सरकार अभी भी आश्रम स्कूलों के निर्माण में ही मदद के तौर पर राशी देती है.

इसके अलावा आश्रम स्कूलों में बच्चों की मौत, घटिया खाना या ड्रॉप आउट रेट अभी आश्रम स्कूलों में क़ायम हैं. आश्रम स्कूलों की दयनीय स्थिति पर आई रिपोर्ट को दस साल बीत चुके हैं. लेकिन स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है.

बल्कि कई मामलों में तो स्थिति और भी ज़्यादा ख़राब हो गई है. इसलिए यह ज़रूरी है कि इस लोकसभा चुनाव में आश्रम स्कूलों की स्थिति और आदिवासी इलाकों में शिक्षा पर चर्चा हो.

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