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Lok Sabha Elections 2024: देश में सबसे निचले पायदान पर खड़े आदिवासियों के मुद्दे क्या हैं

उत्तर-पूर्वी राज्यों के को छोड़ दें तो देश में ऐसे राजनीतिक दलों का आभाव नज़र आता है जो विशेष रुप से आदिवासी हितों की राजनीति करते हैं. शायद सबसे उल्लेखनीय उदाहरण पूर्वी और दक्षिणी बिहार में है, जहां आजादी के बाद से आदिवासी क्षेत्रवादी झारखंड आंदोलन एक कारक रहा है.

आगामी लोकसभा चुनाव की तैयारियां जोर शोर से चल रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई में बीजेपी लगातार तीसरी बार सत्ता पर काबिज होने के लिए पूरा ज़ोर लगा रही है. वहीं विपक्षी दल भी उलटफेर करने की रणनीति बनाने में जुटे हुए हैं.

इस लोकसभा चुनाव में आदिवासी मतदाता राजनीति के केंद्र में तो नहीं पर चर्चा में ज़रूर आ गए हैं. राजनीतिक दलों के बीच देश के आदिवासी समुदाय को अपनी ओर खींचने की कोशिश शुरू हो गई हैं. सत्तारूढ़ बीजेपी और प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के अलावा क्षेत्रीय दल भी आदिवासियों के बीच अपना आधार बनाने की कोशिश में लगे हैं.

देश की करीब 9 फीसदी आबादी वाले आदिवासी समाज के लिए लोकसभा में 47 सीटें आरक्षित हैं. इन सीटों को अपने नाम करने के लिए चुनाव के वक्त सभी पार्टियां आदिवासियों के लिए बड़े-बड़े वादे करती हैं. लेकिन चुनाव खत्म होने और वोट मिलने के बाद राजनीतिक पार्टियां और नेता आदिवासियों की सुध लेने भी नहीं आते हैं.

तो आइए आज बात करते हैं भारत के इस अहम समाज यानि आदिवासी समाज के इतिहास, संवैधानिक स्थिति, राजनीतिक प्रतिनिधत्व और वर्तमान में इनसे जुड़े मुद्दों के बारे में…

कौन हैं आदिवासी

आदिवासी भारत के कई मूल निवासियों (Indiginous Communities) के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला सामूहिक नाम है. आदिवासी शब्द की उत्पत्ति हिंदी शब्द ‘आदि’ से हुई है जिसका अर्थ है प्राचीन काल का या शुरुआत से और ‘वासी’ का अर्थ है निवासी. इसे 1930 के दशक में गढ़ा गया था, जो मुख्य रूप से भारत के विभिन्न मूल निवासी लोगों के बीच पहचान की भावना पैदा करने के लिए एक राजनीतिक आंदोलन का परिणाम था.

आधिकारिक तौर पर आदिवासियों को ‘अनुसूचित जनजाति’ कहा जाता है, लेकिन यह एक कानूनी और संवैधानिक शब्द है जो अलग-अलग राज्यों और क्षेत्र-दर-क्षेत्रों में भिन्न होता है और इसलिए इसमें कुछ समूहों को शामिल नहीं किया जाता है जिन्हें मूल निवासी माना जा सकता है.

आदिवासी कोई सजातीय समूह नहीं हैं, यहां 200 से अधिक अलग-अलग लोग हैं जो 100 से अधिक भाषाएं बोलते हैं और उनकी जातीयता और संस्कृति में काफी भिन्नता है.

2011 में हुई आधिकारिक जनगणना के मुताबिक, आदिवासी देश की कुल आबादी का 8.6 प्रतिशत यानि 10.42 करोड़ है.

अनौपचारिक आंकड़े काफी अलग हैं, आदिवासी भारत की जनसंख्या के कहीं अधिक अनुपात का प्रतिनिधित्व करते हैं. वैसे तो आदिवासी पूरे भारत में रहते हैं लेकिन मुख्य तौर पर उपजाऊ मैदानों से दूर पहाड़ी इलाकों में रहते हैं.

संवैधानिक स्थिति

1950 के संविधान के तहत आदिवासी, ‘अछूतों’ के साथ विशेष सुरक्षात्मक प्रावधानों के अधीन हो गए. ज्यादातर मूल निवासियों को ‘अनुसूचित जनजाति’ के रूप में वर्गीकृत किया गया था.

आर्टिकल 341 भारत के राष्ट्रपति को ‘जातियों, नस्लों या जनजातियों को निर्दिष्ट करने के लिए अधिकृत करता है जिन्हें इस संविधान के प्रयोजनों के लिए अनुसूचित जनजाति माना जाएगा.’

1951 में पारित संविधान के पहले संशोधन ने राज्य को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के नागरिकों के सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की उन्नति के लिए विशेष प्रावधान बनाने की अनुमति दी.

केंद्र सरकार के पास अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए एक विशेष आयोग है, जो वार्षिक रिपोर्ट जारी करता है. ये रिपोर्ट आदिवासियों के खिलाफ गैरकानूनी कार्रवाइयों या अपराधों का विवरण देती हैं. इसके अलावा अनुसूचित जनजाति आयोग देश में जनजातियों यानि आदिवासियों की स्थिति में सुधार के लिए सिफ़ारिशें भी करता है.

राजनीतिक प्रतिनिधित्व

संसद और राज्य विधानमंडलों में अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित हैं. संसद के दोनों सदनों, लोकसभा और राज्यसभा में 7 प्रतिशत सीटें अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के लिए आरक्षित थीं और राज्य विधानसभाओं में भी राज्य की जनसंख्या में अनुसूचित जनजातियों के प्रतिशत के अनुपात में समान प्रतिनिधित्व का नियम बनाया गया है.

सरकारों में आमतौर पर अनुसूचित जनजातियों के मंत्री होते हैं, जिनमें कभी-कभी कैबिनेट मंत्री भी शामिल होते हैं, विशेष रूप से अनुसूचित जनजातियों के मामलों की देखभाल के लिए.

इसके अलावा भूरिया समिति की स्थापना संविधान के 73वें और 74वें अनुच्छेदों के विस्तार को सुरक्षित करने के लिए आदिवासी सांसदों द्वारा की गई थी, जो अनुसूचित क्षेत्रों को अधिकार सौंपते हैं. इसने जनवरी 1995 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की.

भूरिया समिति की रिपोर्ट पर मिश्रित प्रतिक्रियाएँ आईं. इस समिति द्वारा शुरू की गई प्रक्रिया का समर्थन भी हुआ तो इसकी आलोचना भी की गई . इस समिति की सिफ़ारिशों की आलोचना दो मुख्य वजहों से की गई थी. पहली वजह थी कि इस कमेटी ने सभी आदिवासी क्षेत्रों के लिए सिफ़ारिशें नहीं की थीं. दूसरी वजह यह थी कि इस रिपोर्ट में आदिवासी समुदायों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की कमी और उनके बराबरी के हक के मसले को नज़रअंदाज़ कर दिया गया था.

उत्तर-पूर्वी राज्यों के को छोड़ दें तो देश में ऐसे राजनीतिक दलों का आभाव नज़र आता है जो विशेष रुप से आदिवासी हितों की राजनीति करते हैं. शायद सबसे उल्लेखनीय उदाहरण पूर्वी और दक्षिणी बिहार में है, जहां आजादी के बाद से आदिवासी क्षेत्रवादी झारखंड आंदोलन एक कारक रहा है.

इस आंदोलन की जड़ें पूर्वी बिहार और पश्चिमी बंगाल के संथाल लोगों में हैं, जो ब्रिटिश शासन के तहत भूमि हस्तांतरण के खिलाफ शुरुआती आदिवासी विद्रोहों में से एक था.

इस क्षेत्र में से कुछ में भारत के सबसे समृद्ध खनिज भंडार और खनन भी शामिल हैं. आज़ादी के बाद में औद्योगीकरण और वनों की कटाई ने आदिवासियों की मुश्किलों को बढ़ा दिया, जिससे शिकायतें बढ़ी.

झारखंड पार्टी की स्थापना 1950 में हुई थी और इसकी मुख्य मांग पश्चिम बंगाल, ओडिशा और मध्य प्रदेश के संथाल परगना और छोटानागपुर क्षेत्रों के पारंपरिक आदिवासी क्षेत्रों में एक अलग राज्य या क्षेत्र का गठन करना था.

उनके कई बड़े नेता कांग्रेस पार्टी में शामिल होने के बाद पार्टी में गिरावट आई. लेकिन 1973 में पार्टी पुनर्जीवित हुई तो एक नई पार्टी, झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) का गठन किया गया.

झारखंड अलग राज्य के साथ बनी झामुमो समय के साथ कई छोटे समूहों में विभाजित हुआ. लेकिन 1987 में पचास से अधिक छोटे संगठनों के साथ एक नया समन्वय संगठन, झारखंड समन्वय समिति का गठन किया गया. इस समूह ने अपनी मांगों के समर्थन में कई बंद और बड़े पैमाने पर प्रदर्शनों का नेतृत्व किया और एक समानांतर सरकार स्थापित करने की भी कोशिश की थी.

केंद्र और राज्य दोनों सरकारों ने झारखंड राज्य के निर्माण के संबंध में किसी भी रियायत पर विचार करने से लगातार इनकार कर दिया. हालांकि 2 सितंबर 1992 को हस्ताक्षरित एक समझौते के मुताबिक, केंद्र और राज्य सरकारें औपचारिक रूप से झारखंड क्षेत्र को कुछ हद तक स्वायत्तता देने पर सहमत हुईं.

दिसंबर 1994 में बिहार राज्य विधानसभा ने झारखंड क्षेत्र स्वायत्त परिषद अधिनियम पारित किया, जिसमें बिहार के अठारह जिलों को शामिल करते हुए झारखंड क्षेत्र स्वायत्त परिषद (जेएएसी) के गठन की परिकल्पना की गई. आखिरकार 2000 में एक अलग राज्य झारखंड की स्थापना की गई.

आम तौर पर जनजातीय मामलों के मंत्रालय (1999) की स्थापना और वन अधिकार कानून 2006 के रूप में की गई विधायी कार्रवाई के बावजूद आदिवासियों के भूमि अधिकारों को सुरक्षित करने में कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा है.

संसाधन

95 प्रतिशत से अधिक अनुसूचित जनजातियां अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती हैं और आर्थिक शोषण उनकी सबसे गंभीर समस्या बनी हुई है. 10 प्रतिशत से भी कम आदिवासी शिकारी हैं लेकिन आधे से अधिक अपनी आजीविका के लिए वन उपज पर निर्भर हैं. खासकर के तेंदू पत्ते के उत्पादन पर, जिनका उपयोग बीड़ी के उत्पादन के लिए किया जाता है.

ब्रिटिश प्रशासन के समय से ही वनों के स्वामित्व और उपयोग से जुड़े कानून मौजूद रहे हैं. देश की ज़्यादातर वन भूमि का प्रभावी ढंग से राष्ट्रीयकरण किया गया है. इसके बावजूद बड़े क्षेत्रों को निजी वाणिज्यिक हितों के लिए अनुबंधित किया गया है.

हांलाकि वन अधिकार कानून 2006 के बाद आदिवासी समुदायों को वन उपज लेने के लिए जुर्माना या जेल भेजने की घटनाएं बंद हो रही हैं.

सिंचाई और पनबिजली के लिए बड़े पैमाने पर बांध निर्माण की वजह से देश में आदिवासी बड़ी तादाद में विस्थापित होते रहे है. आजादी के बाद से कई पनबिजली योजनाएं चलायी गयी हैं और नर्मदा बेसिन में सबसे बड़े बांध के निर्माण पर एक संवैधानिक और राजनीतिक लड़ाई लंबे समय से चली आ रही है, जो नदी के लिए बनाई गई तीस योजनाओं में से एक है.

विरोध प्रदर्शन बांध परियोजना को रोकने में विफल रहा. दुनिया के सबसे बड़े बांधों में से एक, सरदार सरोवर बांध, सितंबर 2019 में अपनी अधिकतम क्षमता तक पहुंच गया. स्थानीय आदिवासी कार्यकर्ताओं के मुताबिक, कम से कम 178 गांव आंशिक रूप से या पूरी तरह से जलमग्न हो गए थे, जिससे हजारों लोगों का विस्थापन हुआ.

मतभेद

कुछ आदिवासियों को वामपंथी समूहों द्वारा संगठित किया गया है. इन्हें आमतौर पर भारत में नक्सली के रूप में जाना जाता है.

नक्सल आंदोलन, 1960 के दशक के अंत और 1970 के दशक की शुरुआत में बंगाल में छात्र-नेतृत्व वाले विद्रोह के रुप में शुरू हुआ था. उसके बाद में बिहार, मध्य प्रदेश, झारखंड, ओडिशा और आंध्र प्रदेश के क्षेत्रों में फैल गया.

परिणामस्वरूप, आदिवासियों को नक्सली दबाव और सरकारी विद्रोह विरोधी अभियानों दोनों का शिकार होने का जोखिम उठाना पड़ा. पुलिस, फॉरेस्ट गार्ड और अधिकारियों ने आदिवासियों को धोखा दिया, धमकाया, डराया और बड़ी संख्या में लोगों को नियमित रूप से गिरफ्तार किया गया और अक्सर छोटे-मोटे अपराधों के लिए जेल में डाल दिया गया है.

आदिवासियों के वर्तमान मुद्दे

आदिवासियों को मुख्यधारा के भारतीय समाज से पूर्वाग्रह और अक्सर हिंसा का सामना करना पड़ता है. वे लगभग हर सामाजिक-आर्थिक संकेतक के सबसे निचले बिंदु पर हैं.

बहुसंख्यक आबादी उन्हें आदिम मानती है और सरकारी कार्यक्रमों का उद्देश्य उन्हें उन्हें बहुसंख्यक समाज के साथ एकीकृत करना है.

आदिवासियों के आर्थिक आधार और पर्यावरण के विनाश से कई आदिवाीस समुदायों की जीवनशैली और संस्कृति पर ख़तरा मंडरा रहा है.

आदिवासियों को शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण दिया गया है लेकिन उच्च शिक्षा स्तर पर आदिवासियों के लिए कोटा अधूरा है. ज्यादातर दलित और आदिवासी बच्चे हाई स्कूल से पहले ही पढ़ाई छोड़ देते हैं.

जब भूमि पुनर्वितरण अधिकार, सीमांत किसानों और दैनिक मजदूरों के अधिकार, मिट्टी जोतने वालों के अधिकार और पुनर्वास अधिकारों की बात आती है तो आदिवासी समुदाय के प्रति राज्य द्वारा समर्थन की कमी रही है.

राज्य सरकारों की राजनीतिक संरचना और तमाम योजनाओं के बावजूद भारत के विभिन्न राज्यों में आदिवासी सबसे गरीब तबका है.

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