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चुनाव प्रचार के दौरान आदिवासी बस्तियों में घरों के बंद दरवाज़े और सुनसान सड़के क्या कहती है?

कर्नाटक के चामराजनगर और मैसूर ज़िले के आदिवासी बस्तियों सुनसान है. क्योंकि यहां रहने वाले ज्यादातर आदिवासी रोज़गार की तलाश में दूसरे ज़िले या फिर राज्य में पालयन कर चुके है.

चामराजनगर (Chamarajanagar) और मैसूर (Mysore) ज़िले के आदिवासी बस्तियों में घरों के बंद दरवाज़े और सुनसान सड़के पार्टियों के नेताओं का स्वागत (Election campaign) कर रहे हैं.

यहां रहने वाले हज़ारों आदिवासी रोज़गार के सिलसिले में केरल (kerala) के कोडगु (kodagu) और वायनाड (Wayanad) ज़िले में पालयन कर चुके हैं. क्योंकि उनकी बस्तियों के पास मजदूरी या रोज़गार का अन्य कोई विकल्प मौजूद नहीं है.

इसलिए इस समय इन आदिवासी बस्तियों में सिर्फ बच्चे और वृद्ध लोग ही मौजूद है.

इन आदिवासी बस्तियों में हनूर के हरदानरीपुरा, चामराजनगर ज़िले के मनेश्वर कॉलोनी और श्रोनिवासपुरा कॉलोनी शामिल हैं.

ऐसा पहली बार नहीं है, जब बस्तियों में रहने वाले आदिवासी काम के लिए पालयन कर रहे हैं.

जनवरी के महीने में कोडगु और वायनाड के कॉफी बगानों में कटाई का काम शुरू हो जाता है.

इसलिए यहां के आदिवासी जनवरी में कोडगु या फिर वायनाड चले जाते है और उगादि त्योहार के आस-पास घर की ओर लौटते है.

उगादि त्योहार कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना राज्य का प्रमुख त्योहार है. इस साल यह त्योहार 9 अप्रैल को मनाया जाएगा.

कांग्रेस हो या बीजेपी दोनों ही पार्टियों के कार्यकर्ता आदिवासियों को फोन कॉल के ज़रिए वोट देने का आग्रह कर रहे हैं.

माले महादेश्वर हिल्स मैसूर से लगभग 150 किलोमीटर दूर है. यहां पर रहने वाला आदिवासी, मदेश बताता है कि उनके गाँव में पक्की सड़के ना होने के कारण एबुलेंस नहीं पहुंच पाती है. गाँव वालों को कई किलोमीटर तक डोली के सहारे मरीज़ो को अस्पताल ले जाना पड़ता है.  

मदेश ने आगे कहा कि कई आदिवासी बस्तियों पीने के लिए स्वच्छ पानी नहीं है और यहां के लोग रोज़गार के तलाश में तमिलनाडु के कोल्लेगल या फिर अन्य किसी जगह पालयन कर लेते है.

समाजिक कार्यकर्ता मल्लेशप्पा बताती है कि हर पिछड़े ज़िले की यहीं कहानी है. इन ज़िलों में लोगों को रोज़गार नहीं मिलता. यहां पर रहने वाले कुछ आदिवासी और अन्य वर्ग के लोगों को राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी स्कीम से जोड़ा जरूर है. लेकिन इन स्कीम से रोज़गार समय पर नहीं मिल पाता.

इसलिए मजबूरन आदिवासी रोज़गार के लिए दूसरी जगह पलायन करते है.

लेकिन वे चुनाव के दौरान वापस आकर, अपना मत देते है. क्योंकि उनको यह भय है कि सरकारी स्कीम के अंतर्गत मिलने वाला मुफ्त राशन और पेंशन बंद ना हो जाए.

रोज़गार की तलाश में आदिवासी या किसी भी वर्ग का पलायन आम बात है. लेकिन आदिवासी इलाकों में पलायन की वजह से उन्हें सवैंधानिक सुरक्षा से वंचित होना पड़ता है.

ख़ासतौर से अनुसूचित इलाकों के आदिवासियों को संविधान के तहत कई तरह की सुरक्षा हासिल होती है.

इसके अलावा जब वे पलायन करते हैं तो अक्सर उनके बच्चों का स्कूल भी छूट जाता है. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि आदिवासियों को भी वोट देने के लिए अपने घर लौटना ही चाहिए.

लेकिन इसके साथ ही उनकी बस्तियों में मौजूद मुद्दों की चर्चा भी हो तो अच्छा होगा.

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